क्या न्यायालय रियासतों और संघ के बीच पूर्व-संवैधानिक समझौतों के अंतर्गत आने वाली संपत्तियों से उत्पन्न विवादों की सुनवाई कर सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट करेगा विचार

Shahadat

3 Jun 2025 5:22 AM

  • क्या न्यायालय रियासतों और संघ के बीच पूर्व-संवैधानिक समझौतों के अंतर्गत आने वाली संपत्तियों से उत्पन्न विवादों की सुनवाई कर सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट करेगा विचार

    सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर विचार करने के लिए तैयार है कि क्या पूर्व-संवैधानिक समझौतों के तहत उल्लिखित पूर्ववर्ती रियासतों की संपत्तियों से संबंधित विवाद अनुच्छेद 363 के तहत न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से वर्जित हैं।

    जस्टिस पीके मिश्रा और जस्टिस एजी मसीह की खंडपीठ जयपुर के राजपरिवार के सदस्यों, राजमाता पद्मिनी देवी, दीया कुमारी और सवाई पद्मनाभ सिंह की याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

    याचिकाकर्ताओं ने राजस्थान हाईकोर्ट के उस निर्णय को चुनौती दी, जिसमें कहा गया कि 'टाउन हॉल', जिसका उल्लेख पूर्ववर्ती रियासत और संघ के बीच अनुबंध में किया गया, उसके कब्जे या मध्यवर्ती लाभ की मांग करने वाले मुकदमों पर अनुच्छेद 363 के तहत सिविल कोर्ट द्वारा विचार नहीं किया जा सकता।

    अनुच्छेद 363 किसी रियासत और भारत सरकार के बीच निष्पादित कुछ संधियों, समझौतों, अनुबंधों, सनद, अनुबंधों आदि से उत्पन्न होने वाले किसी भी विवाद में न्यायालयों के हस्तक्षेप को रोकता है।

    याचिकाकर्ता की ओर से उपस्थित सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने प्रस्तुत किया कि उक्त अनुबंध वास्तव में 5 राजकुमारों के बीच किया गया था, जबकि भारत सरकार केवल यह सुनिश्चित करने के लिए एक गारंटर थी कि शर्तें पूरी हों। उन्होंने बताया कि हाईकोर्ट के समक्ष कार्यवाही में इस पहलू पर बहस नहीं की गई।

    हालांकि, जस्टिस मिश्रा ने पूछा, यदि भारत सरकार पक्षकार नहीं है तो "आपने भारत संघ के साथ विलय कैसे किया?"

    साल्वे ने स्पष्ट किया कि विलय संविधान के अनुच्छेद 1 के लागू होने के बाद हुआ था।

    हालांकि, प्रस्तुतीकरण से असंतुष्ट प्रतीत होते हुए जस्टिस मिश्रा ने तब स्पष्ट किया,

    "इस विशेष दस्तावेज़ में यदि आप कहते हैं कि भारत संघ पक्ष नहीं है। इसलिए अनुच्छेद 363 लागू नहीं होगा तो हर दूसरा शासक मुकदमा दायर करेगा, जिसमें कहा जाएगा कि मेरी संपत्ति वापस कर दो।"

    साल्वे ने कहा कि वर्तमान परिदृश्य में अनुच्छेद 363 के तहत न्यायालयों के हस्तक्षेप पर प्रतिबंध लागू नहीं होगा।

    उन्होंने आगे कहा,

    "संविदा द्वारा जब्त की गई संपत्ति जारी रहेगी।"

    उन्होंने आगे जोर देकर कहा,

    "मुकदमा दायर करना और (संपत्ति पर) अधिकार होना दो अलग-अलग चीजें हैं।"

    साल्वे ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ताओं का मामला उन संपत्तियों पर स्वामित्व का दावा करने का नहीं है, जो अब संविधान के अनुसार राज्य के पास हैं, चाहे अनुच्छेद 363 कुछ भी हो।

    उन्होंने कहा,

    "राज्य के पास जो है उस पर किसी का अधिकार नहीं है- यह खत्म हो चुका है, यह खत्म हो चुका है। अगर मुझे कभी सूची पर सवाल उठाना पड़ा तो 363 के साथ या उसके बिना इसे प्रतिबंधित कर दिया जाएगा और मैं इसे सही करूंगा।"

    हालांकि, उन्होंने बताया कि हाईकोर्ट द्वारा अनुच्छेद 363 की वर्तमान व्याख्या शासक की निजी संपत्तियों पर उन विवादों को प्रभावित कर सकती है जो ऐसे अनुबंधों और समझौतों के अंतर्गत नहीं आते हैं।

    "लेकिन अगर तकनीकी मुद्दे पर...कल यह 363 स्पष्टीकरण किसी अन्य बिंदु की ओर ले जाएगा.."

    खंडपीठ ने याचिका में नोटिस जारी करते हुए एडिशनल एडवोकेट जनरल (एएजी) शिव मंगल शर्मा का बयान भी दर्ज किया कि राज्य सरकार संबंधित संपत्तियों पर तब तक यथास्थिति बनाए रखेगी जब तक कि मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है।

    "शिव मंगल शर्मा, एलडी एएजी ने कहा कि राज्य एसएलपी के लंबित रहने का सम्मान करेगा और मामले को आगे नहीं बढ़ाएगा।"

    वर्तमान मुकदमेबाजी का कारण क्या है?

    याचिकाकर्ताओं ने शुरू में सिविल कोर्ट में 4 मुकदमे दायर किए, जिसमें अनिवार्य निषेधाज्ञा, कब्ज़ा, स्थायी निषेधाज्ञा और टाउन हॉल (पुरानी विधानसभा) के नाम से जानी जाने वाली उनकी निजी संपत्ति के लिए मध्यवर्ती लाभ की वसूली की मांग की गई। उक्त राहतें इस बात पर विचार करते हुए मांगी गईं कि टाउन हॉल 2001 तक ही 'आधिकारिक उपयोग' में था। उसके बाद नई विधानसभा इमारत के निर्माण के बाद इसका उपयोग बंद कर दिया गया था।

    मुकदमे में याचिकाकर्ताओं ने 1949 में तत्कालीन शासक और भारत सरकार के बीच हुए एक अनुबंध पर भरोसा किया "केवल इस सीमा तक कि यह विषय संपत्ति में वादी के टाइटल को संदर्भित करता है।"

    याचिका में कहा गया कि अनुबंध का संदर्भ यह उजागर करने के लिए किया गया कि यह जयपुर के पूर्व शासक की निजी संपत्तियों को भी सूचीबद्ध करता है।

    इसमें कहा गया:

    "यह अनुबंध जयपुर की तत्कालीन रियासत के भारत संघ में विलय के समय निष्पादित किया गया और इसमें केवल तत्कालीन महाराजा सवाई की "निजी संपत्तियों" को सूचीबद्ध किया गया। भवानी सिंह जी। महत्वपूर्ण बात यह है कि विषयगत संपत्ति के शीर्षक के स्रोत के रूप में अनुबंध पर भरोसा नहीं किया गया।"

    उल्लेखनीय है कि विचाराधीन अनुबंध 30 मार्च, 1949 को जयपुर के तत्कालीन राजा सवाई मान सिंह द्वितीय और भारत सरकार के बीच निष्पादित किया गया। उक्त अनुबंध के अनुसार, सूची में शामिल संपत्तियों की सूची का उपयोग सरकारी अधिकारियों द्वारा आधिकारिक उद्देश्यों के लिए किया जाएगा। सूची के अंतर्गत टाउन हॉल को "जयपुर के महाराजा की अचल और चल दोनों निजी संपत्तियों को दर्शाने वाला विवरण" टाइटल के तहत दर्ज किया गया था।

    ट्रायल कोर्ट के समक्ष राजस्थान राज्य ने अनुच्छेद 363 के तहत प्रतिबंध पर भरोसा करके आदेश VII नियम 11 सीपीसी (वाद की अस्वीकृति) के तहत मुकदमा खारिज करने की मांग की। हालांकि इस आवेदन को ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया।

    इसके बाद राज्य ने हाईकोर्ट के समक्ष सिविल रिवीजन के तहत ट्रायल कोर्ट के आदेश को चुनौती दी।

    चुनौती स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट ने कहा:

    "वादपत्र में किए गए कथन के मद्देनजर, जो कि अनुबंध द्वारा समर्थित है, यह स्पष्ट है कि ये मुकदमे स्पष्ट रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 363 के अंतर्गत वर्जित हैं, क्योंकि ये मुकदमे राज्य सरकार के विरुद्ध दायर किए गए और वादी(वादियों) को अनुबंध में उल्लिखित संपत्तियों पर कब्जा या मध्यवर्ती लाभ की मांग करने के लिए भारत संघ या राज्य सरकार के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई सिविल मुकदमा या कोई अन्य कार्यवाही दायर करने का कोई अधिकार या प्राधिकार नहीं है, क्योंकि ये संपत्तियां न तो पट्टे पर हैं और न ही लाइसेंस पर हैं।"

    सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिकाकर्ताओं का मुख्य तर्क यह है कि (1) अनुबंध के प्रावधानों को चुनौती नहीं दी गई; (2) अनुच्छेद 363 की हाईकोर्ट द्वारा की गई व्याख्या याचिकाकर्ताओं को उनकी संपत्तियों से संबंधित किसी भी सिविल उपाय की मांग करने से वंचित कर देगी, भले ही वे सिविल कानूनों के तहत सरल प्रकृति की हों; (3) विवादित निर्णय माधव राव जीवाजी राव सिंधिया बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विपरीत है।

    माधव राव सिंधिया मामले में यह माना गया कि न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र को खत्म करने वाले प्रावधानों की सख्त व्याख्या की जानी चाहिए। यहां, संविधान पीठ ने 1970 के राष्ट्रपति के आदेश की संवैधानिक वैधता को संबोधित किया, जिसने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 291 और अनुच्छेद 362 के तहत भारतीय राजकुमारों को दिए गए प्रिवी पर्स और आधिकारिक मान्यता को समाप्त कर दिया।

    निर्णय के प्रासंगिक भाग में कहा गया:

    "ऐसा प्रावधान जो कुछ मामलों में न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र को बाहर करने और पीड़ित पक्ष को सामान्य उपचार से वंचित करने का दावा करता है, उसकी सख्ती से व्याख्या की जाएगी, क्योंकि यह एक ऐसा सिद्धांत है, जिसे कम नहीं किया जा सकता है कि पीड़ित पक्ष को जब तक न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र को स्पष्ट अधिनियमन या आवश्यक निहितार्थ द्वारा वर्जित न किया जाए, अपने अधिकारों के निर्धारण के लिए न्यायालयों का सहारा लेने के उसके अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा। न्यायालय यथासंभव न्याय और तर्क के अनुरूप किसी क़ानून की व्याख्या करेगा और दो या अधिक व्याख्याओं के मामले में अधिक उचित और न्यायसंगत व्याख्या को अपनाया जाएगा, क्योंकि विधि निर्माता के विरुद्ध हमेशा अन्याय और अविवेक का इरादा रखने का अनुमान होता है।"

    इसके अतिरिक्त, याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि संविधान से अनुच्छेद 362 को हटाए जाने के बाद अनुच्छेद 363 की व्यापक रूप से व्याख्या नहीं की जा सकती, क्योंकि बाद वाला पहले वाले पर निर्भर है, जो अब मौजूद नहीं है।

    अनुच्छेद 362 में कहा गया:

    "भारतीय राज्यों के शासकों के अधिकार और विशेषाधिकार: संसद या राज्य विधानमंडल की कानून बनाने की शक्ति के प्रयोग में या संघ या राज्य की कार्यकारी शक्ति के प्रयोग में किसी भारतीय राज्य के शासक के व्यक्तिगत अधिकारों, विशेषाधिकारों और प्रतिष्ठा के संबंध में अनुच्छेद 291 के खंड (1) में निर्दिष्ट किसी ऐसे प्रसंविदा या समझौते के तहत दी गई गारंटी या आश्वासन पर उचित ध्यान दिया जाएगा।"

    Case details: RAJMATA PADMINI DEVI AND ORS. Versus STATE OF RAJASTHAN AND ORS.| SLP(C) No. 16066/2025

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