संविधान के हृदय और आत्मा की सुरक्षा करे सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

22 Nov 2020 10:35 AM IST

  • संविधान के हृदय और आत्मा की सुरक्षा करे सुप्रीम कोर्ट

    डॉ लोकेंद्र मल‌िक

    चंद दिनों पहले भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने संविधान के अनुच्छेद 32 के बारे में कुछ टिप्पणियां की थीं। चीफ जस्टिस की अगुवाई में तीन जजों की बेंच केरल के एक पत्रकार की ओर से दायर आर्टिकल 32 याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसे उत्तर प्रदेश पुलिस ने हाथरस में गिरफ्तार किया था। चीफ जस्टिस बोबडे ने याचिका पर विचार करने के लिए अपना आरक्षण व्यक्त किया और कहा कि इस प्रकार की याचिकाएं उच्च न्यायालयों के समक्ष दायर की जानी चाहिए। उन्होंने सीन‌ियर एडवोकेट कपिल सिब्बल से कहा, "हम अनुच्छेद 32 याचिकाओं को हतोत्साहित करने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में, हमने अनुच्छेद 32 याचिकाओं की बाढ़ देखी है।"

    सिब्बल ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 32 याचिकाओं में जमानत दे रहा है और इस मामले में, एक पत्रकार की गिरफ्तारी के कारण एक असाधारण स्थिति पैदा हुई, जिसे न्यायिक संरक्षण की आवश्यकता है। इस पर, चीफ जस्टिस बोबडे ने कहा, "हम मामले के गुणों पर टिप्पणी नहीं कर रहे हैं। हम अतीत में इसी प्रकार के आदेशों के बारे में जानतै हैं और अनुच्छेद 32 के तहत कोर्ट की विशाल शक्तियों के बारे में में भी हमें जानकारी है। हम इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना चाहते हैं।"

    कोर्ट ने नोटिस जारी किया और सिब्बल से कहा कि वह इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा याचिका पर सुनवाई करने का आदेश देने का इच्छुक है। फिर, अगले ही दिन एक अलग मामले में चीफ जस्टिस बोबडे ने अपने विचार व्यक्त किए और एक चुनावी मामले में अनुच्छेद 32 याचिका की सुनवाई करने से इनकार कर दिया। रिट याचिका में पेश वकील से चीफ जस्टिस बोबडे ने कहा, "हम अनुच्छेद 32 क्षेत्राधिकार में कटौती करने की कोशिश कर रहे हैं।" माननीय चीफ जस्टिस की इन टिप्पणियों ने संवैधानिक पंडितों को अनुच्छेद 32 की संवैधानिक आभा और संवैधानिक महत्व पर बहस करने के लिए प्रोत्साहित किया है।

    अनुच्छेद 32 संवैधानिक रूप से गारंटीकृत मौलिक अधिकारों में से एक है, जो लोगों को उचित कार्यवाही द्वारा अपने मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने का अधिकार देता है। संविधान राज्य और उसकी एजेंसियों के खिलाफ लोगों को मौलिक अधिकार देता है, जैसा कि अनुच्छेद 12 में उल्लिखित है। दिसंबर 1948 में संविधान सभा की बहस के दौरान, भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार डॉ बीआर अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 का महत्व इन सुंदर शब्दों में ब‌ताया था: "अगर मुझे इस संविधान में किसी विशेष अनुच्छेद को सबसे महत्वपूर्ण बताने के लिए कहा जाए- एक ऐसा अनुच्छेद, जिसके बिना यह संविधान एक शून्य होगा- मैं इस एक अनुच्छेद (अनुच्छेद 32) को छोड़कर किसी अन्य अनुच्छेद का उल्लेख नहीं कर सकता। यह संविधान की सच्ची आत्मा है और इसका सच्‍चा दिल है।"

    अनुच्छेद 32 एक गारंटीकृत उपचारात्मक अधिकार है, जो लोगों को संविधान के भाग 3 के तहत गारंटीकृत उनके मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास जाने का अधिकार प्रदान करता है और यह अधिकार राष्ट्रपति के आदेश द्वारा लागू आपातकाल की अवधि के अलावा निलंबित नहीं किया जा सकता है। यह हमारे मौलिक अधिकारों के अध्याय में सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान है और इस प्रावधान के बिना, हमारे मौलिक अधिकारों का प्रवर्तन बिल्कुल भी संभव नहीं है। यह तथ्य है कि पूरा पीआईएल या एसएएल न्यायशास्त्र (जैसा कि प्रख्यात न्यायविद् प्रोफेसर बक्सी कहते हैं) इस प्रावधान के आसपास ही बनाया गया है। यदि इस अनुच्छेद के उपयोग को जानबूझकर हतोत्साहित किया जाता है, तो पूरी पीआईएल प्रणाली बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाएगी। यह प्रावधान सुप्रीम कोर्ट को संविधान का संरक्षक और मौलिक अधिकारों का महान रक्षक बनाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान के तहत कई ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं, जिन्होंने देश में कानून, संवैधानिकता और लोकतंत्र के शासन की रक्षा की है। ऐसे मामलों की एक लंबी सूची है जो इस तथ्य को प्रदर्शित करते हैं। अनुच्छेद 13, जो कि न्यायिक समीक्षा शक्ति का स्रोत है, को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 32 के माध्यम से सक्रिय किया जा सकता है। इस प्रावधान का उपयोग करके एक महान संवैधानिक न्यायशास्त्र विकसित किया गया है और इसे संरक्षित करने की आवश्यकता है।

    केशवानंद भारती मामले के बाद अब यह अच्छी तरह से तय हो गया है कि संसद अनुच्छेद 368 संशोधन प्रक्रिया के तहत न्यायिक समीक्षा शक्ति को नष्ट नहीं कर सकती क्योंकि इसे संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना जाता है। यदि संसद इस शक्ति को कम नहीं कर सकती है, तो सुप्रीम कोर्ट इस अद्भुत उपाय को कैसे काट सकती है? सुप्रीम कोर्ट के पास किसी भी अधिकार क्षेत्र को जोड़ने या काटने की कोई शक्ति नहीं है। एल चंद्र कुमार आदि जैसे कई मामले हमारी संवैधानिक योजना में इस अनुच्छेद के महत्व का वर्णन करते हैं। यह संविधान के अनुच्छेद 226 से अलग है, जो लोगों के मौलिक अधिकारों और अन्य कानूनी अधिकारों की रक्षा के लिए उच्च न्यायालयों को सशक्त बनाता है। निस्संदेह, अनुच्छेद 226 की आभा अनुच्छेद 32 की तुलना में व्यापक है, लेकिन अनुच्छेद 226 को अनुच्छेद 32 के साथ मिश्रित नहीं किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 32 का मूल्य और सौंदर्य भी है। आजकल जब भी कोई अनुच्छेद 32 के अधिकार क्षेत्र के तहत सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक देता है, तो सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 226 के तहत याचिकाकर्ताओं से हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए कहने में संकोच नहीं करती है। लेकिन कुछ भाग्यशाली लोग हैं जो सीधे सुप्रीम कोट में अनुच्छेद 32 के तहत सुनवाई पा जाते हैं। यह बिल्कुल अच्छा अभ्यास नहीं है। यह उन लोगों को निराश करता है जिन्हें समय पर न्याय की आवश्यकता है। कोर्ट को सभी याचिकाकर्ताओं के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। लोगों को उनकी आवश्यकता के अनुसार या तो सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालयों से संपर्क करने का विकल्प दिया जाना चाहिए।

    उल्लेखनीय है कि संविधान अनुच्छेद 32 के अधिकार क्षेत्र के तहत सुप्रीम कोर्ट के पास जाने से पहले संविधान में ऐसी कोई शर्त नहीं तय करता है। अनुच्छेद 226 मौलिक अधिकार नहीं है। यह उच्च न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति है और लोगों को अनुच्छेद 32 के तहत प्रदत्त उपचारात्मक उपाय को छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। यह एक अनूठा उपाय है जिसे शीर्ष अदालत द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए। उच्च न्यायालयों को मामलों को धीमी गति से निपटाने के लिए जाना जाता है। कई मामलों में, लोग अपने मामलों के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना जरूरी समझते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि, सुप्रीम कोर्ट को बकाया मामलों की एक गंभीर समस्या का सामना करना पड़ रहा है, जिसे एक अच्छी योजना बनाकर और कार्य दिवसों और न्यायालय की ताकत को बढ़ाकर तय किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 32 के अधिकार क्षेत्र में कटौती इस समस्या का समाधान नहीं है। यह लोगों को बुरी तरह निराश करेगा और न्यायपालिका की संस्था में लोगों के विश्वास को भी कम करेगा।

    जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, हाल ही में कई मामलों में शीर्ष अदालत ने अनुच्छेद 32 क्षेत्राधिकार के उपयोग को हतोत्साहित किया है। इससे मुश्किल समय में, जब लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता दांव पर होती है, मौलिक अधिकारों के संरक्षण के प्रभावित होने की आशंका है। एक महान संवैधानिक प्रावधान को इस तरह कमजोर नहीं किया जा सकता है। इसे संवैधानिक योजना को सच्ची भावना के साथ लागू किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 32 को केवल कुछ सुरक्षा उपायों के साथ आपातकाल के दौरान निलंबित किया जा सकता है, जैसा कि 44 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा प्रदान किया गया है। इस अधिकार को निलंबित करने का कोई अन्य तरीका नहीं है। भारत के लोग 1975 के आपातकाल के बुरे अनुभव को नहीं भूल सकते। सुप्रीम कोर्ट को एडीएम जबलपुर मामले के क्षणों को नहीं दोहराना चाहिए। भारत के लोगों ने न्यायालय को ऊंचा सम्मान दिया है, और न्यायालय को हमेशा इस सार्वजनिक विश्वास को बनाए रखना चाहिए। कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता है कि उसे बकाया मामलों के समाधान का भी पता लगाना चाहिए। लेकिन ऐसे मुद्दे से निपटने के तरीके हैं। संविधान में दिए गए इस प्रकार के महान उपायों को हतोत्साहित नहीं करना चाहिए। यह हमारे संवैधानिक लोकतंत्र के लिए एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति है, जब सुप्रीम कोर्ट एक जैसे मामलों में अलग-अलग बोलती है। इसी तरह के मामलों को समान रूप से तय किया जाना चाहिए।

    माननीय उच्चतम न्यायालय संवैधानिक रूप से अनुच्छेद 32 याचिकाओं को सुनने के लिए बाध्य है और यह अनुच्छेद 32 के ऐसे आवेदनों को सीधे सुनने से मना नहीं कर सकता है। कोर्ट को याचिका को खारिज करने का पूर्ण अधिकार है यदि ऐसी याचिकाओं में योग्यता की कमी है, हांलाकि ऐसा याचिकाकर्ता को एक उचित सुनवाई प्रदान करने के बाद ही किया जा सकता है। अगर वे सुनवाई की मांग करते हैं, तो अदालत उन्हें उचित सुनवाई दिए बिना वापस नहीं कर सकती। 'हाईकोर्ट जाना' आदर्श नहीं होना चाहिए। यह याचिकाकर्ता को एक सुझाव हो सकता है। न्यायालय को कम से कम पीड़ित व्यक्तियों की सुनवाई करनी चाहिए और कानून के अनुसार मामले को तय करना चाहिए। यह बहुत ही महत्वपूर्ण संवैधानिक कर्तव्य का त्याग नहीं कर सकता है। अनुच्छेद 32 क्षेत्राधिकार को हतोत्साहित करने या उसे काटने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि न्यायालय संविधान से ऊपर नहीं है। न्यायालय का गठन संवैधानिक मानदंडों के अनुसार न्याय करने के लिए किया जाता है। न्यायालय संवैधानिक प्रावधानों को अधिरोहित नहीं कर सकता। संविधान भूमि का सर्वोच्च कानून है और सुप्रीम कोर्ट सहित राज्य की सभी शाखाएं संवैधानिक सीमाओं के भीतर कार्य करने के लिए बाध्य हैं। न्यायालय सहित संवैधानिक सरकार की कोई भी शाखा लोगों के मौलिक अधिकारों को नहीं छीन सकती है। ये मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर) केवल राष्ट्रपति के आदेश से आपातकाल के समय निलंबित किए जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के पास लोगों के मौलिक अधिकारों को निलंबित करने की कोई शक्ति नहीं है। न्यायालय संविधान में संशोधन नहीं कर सकता या संवैधानिक प्रावधानों को कम नहीं कर सकता। इसे संवैधानिक योजना के अनुसार लोगों के अधिकारों की रक्षा करना है क्योंकि यह रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य, 1950 के मामले में ठीक ही कहा गया है: "इस न्यायालय को इस प्रकार मौलिक अधिकारों का रक्षक और गारंटर बनाया गया है, और निरंतर सौंपी गई जिम्मेदारी के साथ, इस प्रकार के अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ सुरक्षा के लिए दायरा आवदनों की सुनवाई से इनकार नहीं कर सकता है।" हमारे महान संस्थापकों ने भी कोर्ट की यही कल्पना की थी, जब उन्होंने हमें महान संविधान दिया था।

    सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फैसलों का हवाला देना उचित होगा, जिनमें स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 32 के महत्व को प्रदर्शित किया गया हैं। प्रेमचंद बनाम आबकारी आयुक्त, 1963, एससी 996 में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने कहा था,"इस कोर्ट में आने के मौलिक अधिकार को इसलिए उचित रूप से संविधान द्वारा निर्मित लोकतांत्रिक इमारत की आधारश‌िला के रूप में वर्णित किया जा सकता है।" इसीलिए, यह स्वाभाविक है कि यह न्यायालय, पतंजलि शास्त्री, जे के शब्दों में, स्वयं को "मौलिक अधिकारों के रक्षक और गारंटर" के रूप में माने और यह घोषित करना चाहिए कि" यह उस पर निर्धारित जिम्मेदारी के साथ, ऐसे अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ सुरक्षा के लिए दायर आवेदनों की सुनवाई से इनकार नहीं कर सकता है।" खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश, AIR 1963, SC 1295 में सुप्रीम कोर्ट की एक और संविधान पीठ ने भी यही रुख दोहराया ‌था।

    हमें उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट हमारे महान न्यायाधीशों के इन महान शब्दों को नहीं भूलेगा, जिन्होंने अनुच्छेद 32 के अधिकार क्षेत्र को ताकत दी है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि अनुच्छेद 32 के तहत जब कोई सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाता है तो अदालत उसे सुझाव दे सकती है कि यदि वह सहमत है तो वह हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाए, लेकिन यदि याचिकाकर्ता दबाव देता है तो न्यायालय को उसकी सुनवाई करनी चाहिए और यदि उसकी याचिका में गुणवत्ता हो तो उचित राहत दी देनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को लोगों को अनुच्छेद 32 के तहर दिए गए अधिकार को छोड़ने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 226 को चुनने का अध‌िकार उन पर छोड़ दिया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को संवैधानिक न्यायशास्त्र में स्थिरता बनाए रखना चाहिए। न्यायालय के विभिन्न पीठों को अनुच्छेद 32 जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर विभिन्न प्रकार की बात नहीं करनी चाहिए। कुछ मामलों में, न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाकर्ताओं को राहत देता है और कुछ अन्य मामलों में, न्यायालय याचिकाकर्ताओं से उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के लिए कहता है। इस प्रकार की प्रैक्टिस को समझना बहुत मुश्किल है। यह निश्चित रूप से लोगों को भ्रमित करता है। न्याय केवल किया ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि यह होते हुए दिखना भी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत भूमि के कानून का पालन करता है और इसे अपने अधिकार क्षेत्र में निरंतरता बनाए रखना चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों की असंगति या चयनात्मक आवेदन के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।

    सुप्रीम कोर्ट को मामलों के बकाए के बावजूद सभी स्थितियों में संविधान के दिल और आत्मा की रक्षा करनी चाहिए। इस महान उपाय को हतोत्साहित करने या काटने से देश के लोगों को एक गलत संदेश जाएगा और यह न्यायिक शाखा की अखंडता और विश्वसनीयता को भी प्रभावित करेगा। यह एक कठिन समय है जब लोगों को कार्यकारी ज्यादतियों से न्यायिक सुरक्षा की आवश्यकता है। सरकार के खिलाफ अपने असंतोष व्यक्त करने के लिए कई लोग जेल में बंद हैं। न्यायपालिका लोगों के लिए आखिरी उम्मीद है और इस उम्मीद को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए। यही कारण है कि अनुच्छेद 32 को न्यायालय द्वारा उन्नत, सुरक्षित और संरक्षित किया जाना चाहिए। इस अनूठे क्षेत्राधिकार को कम करने या काटने की कोई आवश्यकता नहीं है। अगर कोई याचिकाकर्ता अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का मामला बनाता है, तो सुप्रीम कोर्ट को वैकल्पिक उपाय होने के बावजूद उसकी सुनवाई करनी चाहिए। न्यायालय अपने दृष्टिकोण में चयनात्मक नहीं हो सकता।

    लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

    (लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं।)

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