बहुसंख्यक शासन के दौर में उदारवादी चीफ ज‌स्टिस: सीजेआई के रूप में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की चुनौतियां

Manu Sebastian

28 Oct 2022 4:13 PM GMT

  • जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़

    जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़

    मनोनीत चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया जस्टिस धनंजय वाई चंद्रचूड़ ने "परिवर्तनकारी संविधान" की दृष्टि के प्रबल समर्थक रहे हैं। "परिवर्तनकारी संविधान" एक ऐसे संविधान की परिकल्पना है, जो "जाति और पितृसत्ता पर आधारित समाज में उग्र परिवर्तन" का प्रयास करता है।

    नवतेज जौहर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (जिसके तहत सहमतिपूर्ण वयस्क समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया था) में उन्होंने भारतीय संविधान को "एक महान सामाजिक दस्तावेज" बताया था। उन्होंने इसे एक मध्ययुगीन, पदानुक्रमित समाज को एक आधुनिक, समतावादी लोकतंत्र में बदलने के अपने उद्देश्य में लगभग क्रांतिकारी" दस्तावेज के रूप में वर्णित किया था।

    जोसेफ शाइन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में, उन्होंने कहा कि संविधान को "सत्ता की आधिपत्य संरचनाओं की मुख‌ालिफत और नागरिकों के लिए गरिमा और समानता के मूल्यों को सुरक्षित करने" के रूप में समझा जाना चाहिए।

    जस्टिस चंद्रचूड़ ने सामूहिक सामाजिक नैतिकता पर व्यक्ति के अधिकारों को भी प्रधानता दी है। सबरीमाला मामले में उन्होंने कहा "व्यक्ति, मूल इकाई के रूप में, संविधान के केंद्र में है। संविधान के तहत सभी अधिकार और गारंटी लागू हैं और ये व्यक्ति के आत्म-साक्षात्कार के उद्देश्य से हैं।"

    साथ ही, व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक ऐसा मूल्य है जो उन्हें बहुत प्रिय है। अर्नब गोस्वामी मामले में उन्होंने बहुत ही लोकप्र‌िय टिप्पणी की थी, "एक दिन के लिए भी स्वतंत्रता से वंचित होना एक दिन बहुत अधिक होगा।"

    मोहम्मद जुबैर मामले में जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह कहते हुए राहत दी कि वह "आपराधिक प्रक्रिया के दुष्चक्र में फंस गए थे।"

    भीमा कोरेगांव मामले में, उन्होंने यह कहते हुए एक असहमतिपूर्ण निर्णय लिखा कि जांच को महाराष्ट्र पुलिस से लेकर अदालत द्वारा गठित एसआईटी को स्थानांतरित किया जाना चाहिए।

    उन्होंने कहा, "अलोकप्रिय लक्ष्यों को उठाने वालों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए अदालत को सतर्क रहना होगा। विरोध की आवाज को दबाया नहीं जा सकता क्योंकि यह असहमति है।"

    तो, एक चीफ जस्टिस जो सामाजिक पदानुक्रमों के परिवर्तन की वकालत करता है, पारंपरिक रूढ़ियों को तोड़ने का आह्वान करता है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पोषित करता है और असहमति की शक्ति को महत्व देता है, एक "नए" भारत में कैसे बसर कर पाएगा, जो एक बहुसंख्यक शासन के उत्थान को देख रहा है, जो हिंदुत्व की राजनीति से खदक रहा है, सामाजिक-सांस्कृतिक रूढ़िवाद का उदय और परंपरावाद का पुनरुत्थान देख रहा है?

    जब जस्टिस चंद्रचूड़ के नाम की घोषणा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के रूप में की जानी थी तब एक विशेष वर्ग ने उनके खिलाफ सोशल मीडिया में शातिर ट्रोलिंग की थी।

    फर्जी खबर फैलाई गई कि वह यूएस ग्रीन कार्ड वीजा धारक है। आईपीसी की धारा 497 को रद्द करने वाले फैसले में उनकी कुछ टिप्पणियों को एक दुर्भावनापूर्ण संदेश फैलाने के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया था कि उन्होंने व्यभिचार को मंजूरी दे दी है।

    महिलाओं के गर्भपात के अधिकारों को बरकरार रखकर उन्होंने अपने ऐतिहासिक फैसले में अति दक्षिणपंथी समूहों और "पुरुषों अधिकार कार्यकर्ताओं" को चकनाचूर कर दिया था। फैसले में वैवाहिक बलात्कार के अस्तित्व को स्वीकार किया गया था और कहा गया था कि एक पत्नी को पति द्वारा जबरन यौन संबंध से पैदा गर्भावस्था को समाप्त करने का अधिकार है। इसी समूह ने जस्टिस चंद्रचूड़ की इस टिप्पणी पर शत्रुतापूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि अविवाहित और समलैंगिक संबंधों सहित गैर-पारंपरिक परिवारों को कानूनी अधिकारों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।

    जस्टिस चंद्रचूड़ ने जातिवादी समर्थकों के बीच उस समय भी नाराजगी पैदा की जब उन्होंने कहा कि एनईईटी-एआईक्यू में ओबीसी आरक्षण की अनुमति देते हुए "योग्यता" को केवल एक परीक्षा में प्रदर्शन के रूप में नहीं देखा जा सकता है।

    संवादात्मक न्यायिक पुनर्विचार

    जस्टिस चंद्रचूड़ ने "संवादात्मक न्यायिक पुनर्विचार" की अवधारणा को भी आगे बढ़ाया है, जहां न्यायालय कार्यपालिका पर सवाल उठाता है और नीति को तय करने से परहेज करते हुए अपने फैसलों के संबंध में औचित्य की मांग करता है।

    एक आदर्श उदाहरण स्वत: संज्ञान लेकर COVID मामले में पारित आदेश होंगे, जहां न्यायालय ने केंद्र सरकार द्वारा अपनाई गई वैक्सीन नीति पर संदेह जताया था। जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कुछ कड़े सवाल उठाए और यहां तक ​​कि सरकार से टीकों की खरीद के लिए अपने बजटीय आवंटन के उपयोग का विवरण दिखाने के लिए कहा, सरकार ने अपनी टीका नीति बदल दी।

    बेंच ने कहा,

    "हमारा संविधान अदालतों को मूक दर्शक बनने की परिकल्पना नहीं करता है, जब कार्यकारी नीतियों द्वारा नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है ... न्यायिक पुनर्विचार और कार्यपालिका द्वारा बनाई गई नीतियों के लिए संवैधानिक औचित्य की मांग करना एक आवश्यक कार्य है, जिसे करने की जिम्‍मेवारी अदालतों को सौंपी गई है।"

    सशस्त्र बलों के फैसलों की पुनर्विचार करते हुए, जस्टिस चंद्रचूड़ की पीठ ने महिला अधिकारियों के लिए स्थायी कमीशन देने के लिए अपनाए गए मानदंडों को इस आधार पर रद्द कर दिया कि वे लिंग आधारित रूढ़ियों का प्रचार कर रहे थें, जिसके कारण महिलाओं के खिलाफ भेदभाव हुआ।

    मीडिया वन मामले में जस्टिस चंद्रचूड़, गृह मंत्रालय की ओर से दी गई सीलबंद कवर दस्तावेजों को फेस वैल्यू पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, जिनमें चैनल के बारे में "सुरक्षा चिंताओं" को उठाया गया था और इसके प्रसारण की अनुमति दी।

    संघवाद की अवधारणा- जो बाद में एक गहन विवादास्पद मुद्दा बन गया है - उसे जस्टिस चंद्रचूड़ के फैसले से बढ़ावा मिला, जिसमें कहा गया था कि जीएसटी परिषद की सिफारिशें राज्य विधानसभाओं के ‌लिए बाध्यकारी नहीं हो सकती हैं। उन्होंने फैसले में - "असहयोगी संघवाद" का एक दिलचस्प विचार पेश किया और कहा कि संघ और राज्यों के बीच कुछ हद तक संघर्ष लोकतंत्र के लिए अच्छा है।

    चूंकि जस्टिस चंद्रचूड़ स्थिति की मांग पर न्यायिक पुनर्विचार की शक्तियों का प्रयोग करने में संकोच नहीं करते हैं, इसलिए उनके लगभग दो वर्षों के सीजेआई के कार्यकाल को लेकर कार्यपालिका चौकस रहने की संभावना है।

    हाल ही में केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री किरण रिजिजू, जो अब तक न्यायपालिका को संबोधित करते हुए एक शांत और श्रद्धापूर्ण स्वर अपनाते रहे थे, उन्होंने न्यायिक सक्रियता और कॉलेजियम प्रणाली की तीखी आलोचना की।

    उच्च राजनीतिक महत्व वाले मामलों में दृष्टिकोण को लेकर आलोचना

    जिस तरह से उच्च राजनीतिक महत्व वाले कुछ मामलों को निपटाया गया, उसके लिए जस्टिस चंद्रचूड़ भी आलोचना के घेरे में आ गए हैं। वह उस फैसले के लेखक थे, जिसने सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में अमित शाह और अन्य के खिलाफ मुकदमे की सुनवाई कर रहे जज बीएच लोया की मौत में गड़बड़ी से इनकार किया था।

    निर्णय ने कई प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ दिया, क्योंकि जांच को बंद करने के लिए एक असाधारण प्रक्रिया को अनुमति दी गई थी; जांच की मांग करने वाली याचिकाओं में एक प्रकार का मिनी-ट्रायल आयोजित किया गया था, लेकिन गवाहों की परीक्षा की अनुमति नहीं दी गई थी। (निर्णय की विस्तृत आलोचना यहां पढ़ी जा सकती है)।

    वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने हाल ही में करण थापर को दिए इंटरव्यू में कहा कि राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में जस्टिस चंद्रचूड़ निराश कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष ने जस्टिस चंद्रचूड़ को एक बौद्धिक दिग्गज के रूप में सराहना करते हुए, हालांकि साक्षात्कार में अयोध्या और ज्ञानवापी जैसे मामलों में उठाए गए दृष्टिकोणों की आलोचना की। दवे ने कहा कि ज्ञानवापी मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ द्वारा की गई मौखिक टिप्पणी कि पूजा स्थल अधिनियम के तहत किसी स्मारक के धार्मिक चरित्र का पता लगाने पर रोक नहीं है, "एक भानुमती का पिटारा खोल दिया"।

    चुनौतीपूर्ण चरण

    यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि जस्टिस चंद्रचूड़ ऐसे समय में भारतीय न्यायपालिका का नेतृत्व करेंगे जब देश कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। धर्मनिरपेक्षता और संघवाद जैसे कुछ मूल संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ वैचारिक आंदोलन गति पकड़ रहे हैं; कार्यपालिका की सत्तावादी प्रवृत्तियों के सामने संस्थाओं के कमजोर होने की चिंता है; असंतुष्टों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक कानून के शस्त्रीकरण के बारे में भी चिंता व्यक्त की जा रही है; समाज का ध्रुवीकरण पहले इतना कभी नहीं किया गया है; नफरत के माहौल की शिकायतें आ रही हैं और अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य असुरक्षा की भावना व्यक्त कर रहे हैं।

    वास्तव में, जस्टिस चंद्रचूड़ ने स्वयं "बढ़ती असहिष्णुता" और "संगठित समूहों और हितों" द्वारा मुक्त भाषण के खिलाफ उत्पन्न खतरे के बारे में टिप्पणी की है। पिछले साल एक वेबिनार में बोलते हुए, उन्होंने खेद व्यक्त किया कि एक लोकप्रिय ब्रांड को "सार्वजनिक असहिष्णुता" के कारण एलजीबीटी अधिकारों के विषय पर अपना विज्ञापन वापस लेना पड़ा। उन्होंने असंतोष को "राष्ट्र-विरोधी" के रूप में ब्रांड करने की प्रवृत्ति की भी निंदा की है।

    न्यायिक नियुक्तियां से जूझना

    न्यायिक रिक्तियों को उपयुक्त व्यक्तियों के साथ समय पर भरना सुनिश्चित करना एक और कठिन कार्य होगा जो भारत के चीफ जस्टिस के रूप में जस्टिस चंद्रचूड़ की प्रतीक्षा कर रहा है। केंद्र सरकार कुछ सिफारिशों को लंबित रखने के लिए कॉलेजियम के प्रस्तावों को अलग करके और कॉलेजियम द्वारा दोहराए गए नामों की खुलेआम अनदेखी करके न्यायिक मिसालों और परंपराओं का घोर अनादर कर रही है।

    केंद्र ने जस्टिस दीपांकर दत्ता और डॉ एस मुरलीधर से संबंधित सिफारिशों के लिए मंजूरी रोक दी है, पहले ही भौंहें चढ़ चुकी हैं। कॉलेजियम प्रणाली के खिलाफ केंद्रीय कानून मंत्री द्वारा हाल ही में किया गया तीखा बयान शायद न्यायिक नियुक्तियों पर कार्यपालिका की प्रधानता स्‍थापित करने का संकेत है। यह एक ऐसा क्षेत्र होगा जहां भविष्य के सीजेआई को सावधानीपूर्वक बातचीत करनी होगी, क्योंकि उचित न्यायिक नियुक्तियां न्यायिक स्वतंत्रता के निर्वाह के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई हैं।

    नवतेज जौहर के फैसले में, जस्टिस चंद्रचूड़ का एक अंश है, जो उनकी संवैधानिक दृष्टि को उजागर करता है:

    "लोकप्रिय भावना या बहुसंख्यकवाद की किसी भी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना राज्य के सभी तीन अंगों की जिम्मेदारी है। पूरे समाज में एक सजातीय, एकसमान, सुसंगत और एक मानकीकृत दर्शन को धक्का देने और धकेलने का कोई भी प्रयास संवैधानिक नैताकिता के सिद्धांत का उल्लंघन होगा। संवैधानिक नैतिकता के प्रति भक्ति और निष्ठा को किसी विशेष समय पर प्रचलित लोकप्रिय भावना के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए"।

    प्रधान न्यायाधीश के रूप में जस्टिस चंद्रचूड़ के सामने प्रमुख चुनौती बहुसंख्यकवादी शासन के दौरान इस दृष्टिकोण को साकार करने की होगी, जब पारंपरिक पदानुक्रमों को मजबूत करने की कोशिश करने वाली ताकतों द्वारा आधुनिकता को रोकने की मांग की जा रही है।

    (मनु सेबेस्टियन लाइवलॉ के प्रबंध संपादक हैं। उनसे manu@livelaw.in पर संपर्क किया जा सकता है। उनका ट्व‌िटर हैंडल @manuvichar है।)


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