BREAKING | सुप्रीम कोर्ट का ED गिरफ्तारी को चुनौती देने वाली हेमंत सोरेन की याचिका पर सुनवाई से इनकार
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (22 मई) को झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की याचिका खारिज कर दी। उक्त याचिका में उन्होंने झारखंड में कथित भूमि घोटाले से संबंधित मनी लॉन्ड्रिंग मामले में प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा उनकी गिरफ्तारी को चुनौती दी थी।
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की अवकाश पीठ ने मामले पर विचार करने में अनिच्छा व्यक्त की, जिसके बाद याचिकाकर्ता ने याचिका वापस लेने का फैसला किया।
खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान मौखिक रूप से कहा कि याचिकाकर्ता ने ED द्वारा दायर शिकायत पर विशेष अदालत द्वारा संज्ञान लेने से संबंधित तथ्यों का खुलासा नहीं किया।
गौरतलब है कि मंगलवार की सुनवाई के दौरान, खंडपीठ ने सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल (सोरेन की ओर से पेश) को इस प्रस्ताव पर संतुष्ट करने के लिए कहा कि ट्रायल कोर्ट द्वारा ED की शिकायत पर संज्ञान लेने के बावजूद गिरफ्तारी की वैधता की जांच अदालत द्वारा की जा सकती है। सोरेन की ओर से दायर नियमित जमानत याचिका को खारिज कर दिया।
आज की सुनवाई
खंडपीठ ने सिब्बल से पूछा कि याचिकाकर्ता को विशेष अदालत द्वारा संज्ञान लेने के बारे में कब जानकारी मिली। सिब्बल ने जवाब दिया कि संज्ञान आदेश 4 अप्रैल, 2024 को पारित किया गया, जब सोरेन हिरासत में थे।
खंडपीठ ने कहा कि 15 अप्रैल को उन्होंने जमानत याचिका दायर की। सिब्बल ने स्पष्ट किया कि जमानत याचिका रिट याचिका में उनकी दलीलों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना है।
जस्टिस दत्ता ने कहा,
"आप समानांतर कार्यवाही चला रहे थे।"
जस्टिस दत्ता ने कहा कि जमानत की अस्वीकृति और संज्ञान लेने से संबंधित तथ्यों का खुलासा करने में याचिकाकर्ता से "अधिक स्पष्टवादिता" की उम्मीद की गई थी।
न्यायाधीश ने कहा,
"आपका आचरण वांछित होने के लिए बहुत कुछ छोड़ देता है।"
सिब्बल ने जवाब दिया,
"मैं इसे अपनी गलती मानता हूं, मुवक्किल की नहीं। मुवक्किल जेल में है। हमारा इरादा कभी भी अदालत को गुमराह करने का नहीं था।"
उन्होंने बताया कि याचिका गिरफ्तारी की वैधता को चुनौती दे रही थी और जमानत याचिका नहीं थी। इसलिए दोनों उपाय अलग-अलग हैं।
उन्होंने कहा,
"यह मेरी धारणा है। यह गलत हो सकता है।"
जस्टिस दत्ता ने चेतावनी दी,
"हम आपकी याचिका पर कोई टिप्पणी किए बिना उसे आसानी से खारिज कर सकते हैं। लेकिन अगर आप कानून के बिंदुओं पर बहस करते हैं तो हमें इससे निपटना होगा।"
जस्टिस दत्ता ने कहा कि जब संज्ञान लिया गया तो हिरासत एक कार्यकारी अधिनियम के बजाय न्यायिक अधिनियम बन गया।
न्यायाधीश ने कहा,
"यह संज्ञान लिए जाने के साथ ही न्यायिक क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है... किसी भी याचिका, पिछली याचिका और वर्तमान याचिका में इसका उल्लेख क्यों नहीं किया गया।"
गौरतलब है कि हाईकोर्ट द्वारा फैसला सुनाने में की जा रही देरी से व्यथित होकर सोरेन ने पहले भी याचिका दायर की थी। उक्त याचिका को 10 मई को निरर्थक मानते हुए खारिज कर दिया गया, क्योंकि हाईकोर्ट का फैसला 3 मई को आया था।
सिब्बल ने कहा,
"आपका मानना है कि यदि गिरफ्तारी अमान्य है तो संज्ञान लेने वाला आदेश रिहाई के रास्ते में नहीं आएगा। धारा 19 (गिरफ्तारी) को चुनौती देने वाली रिट याचिका मुझे कार्यवाही रद्द करने या बरी करने का अधिकार नहीं देती है। वे फिर से कर सकते हैं- गिरफ़्तारी। इससे कार्यवाही पर कोई असर नहीं पड़ेगा।''
जस्टिस दत्ता ने कहा,
"ऐसा होता है। एक बार जब आप न्यायिक हिरासत में होते हैं तो अदालत को आपको रिहा करने में बहुत धीमी गति से काम करना पड़ता है।"
उन्होंने कहा,
"सबसे पहले आपका आचरण दोषमुक्त नहीं है। यह निंदनीय है। इसलिए आप अपना मौका कहीं और ले सकते हैं।"
सिब्बल ने कहा कि 31 जनवरी को सोरेन की गिरफ्तारी के तुरंत बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 2 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें वापस हाईकोर्ट भेज दिया। सिब्बल ने कहा कि हाईकोर्ट ने चार हफ्ते बाद ही सुनवाई की। हालांकि फैसला 29 फरवरी को सुरक्षित रख लिया गया था, लेकिन इसे 3 मई तक नहीं सुनाया गया।
सिब्बल ने आगे कहा,
"शिकायत 60 दिनों के भीतर दर्ज की जानी है। क्या महामहिम पूछ सकते हैं कि न्यायाधीश ने फैसला क्यों नहीं सुनाया? एक न्यायाधीश जो जानता है कि 60 दिनों के भीतर शिकायत दर्ज की जाएगी, वह किसी मामले में मेरी बात को निष्फल बनाने के लिए फैसला नहीं देता है। क्या इसका कोई जवाब है? न्यायालय का कोई भी कृत्य किसी के मौलिक अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाल सकता।"
जस्टिस दत्ता ने उत्तर दिया,
"सच है, लेकिन हम आपके आचरण के बारे में बात कर रहे हैं।"
सिब्बल ने कहा,
''कोर्ट ने मेरे साथ गलत व्यवहार किया है।''
जस्टिस दत्ता ने कहा,
"आपके पास विकल्प थे। आप इसे न्यायालय के ध्यान में ला सकते थे।"
सिब्बल ने कहा कि यह मामला हाईकोर्ट के समक्ष रखा गया था।
खंडपीठ को मनाने की कोशिश में सिब्बल ने इस आशय के निर्णयों का हवाला दिया कि यदि गिरफ्तारी अमान्य है तो संज्ञान लेने का आदेश किसी आरोपी की रिहाई के रास्ते में नहीं आएगा। सुनवाई के दौरान सिब्बल ने यह भी स्पष्ट किया कि संज्ञान आदेश पिछली विशेष अनुमति याचिका में अतिरिक्त दस्तावेज के रूप में पेश किया गया। उन्होंने यह भी बताया कि वर्तमान याचिका में भी सोरेन की जमानत याचिका का उल्लेख किया गया। हालांकि, जस्टिस दत्ता ने कहा कि तारीखों की सूची और सारांश में इसका उल्लेख नहीं किया गया।
सिब्बल द्वारा अनुनय-विनय के प्रयास विफल होने के बाद खंडपीठ ने आदेश जारी किया। उक्त आदेश में कहा गया कि याचिका खारिज कर दी गई और हाईकोर्ट के फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं है। आदेश तय होने के बाद सिब्बल ने अनुरोध किया कि उन्हें याचिका वापस लेने की अनुमति दी जाए। तदनुसार, याचिका वापस ली गई मानकर खारिज कर दी गई।
सिब्बल ने अनुरोध किया कि हाईकोर्ट को एक महीने के भीतर उनकी जमानत अर्जी पर फैसला करने के लिए कहा जाए। लेकिन खंडपीठ ने ऐसी कोई भी टिप्पणी करने से इनकार किया।
जस्टिस दत्ता ने कहा,
"हमारे लिए हाईकोर्ट के कामकाज को विनियमित करना बहुत मुश्किल हो गया है।"
केस टाइटल: हेमंत सोरेन बनाम प्रवर्तन निदेशालय और अन्य, एसएलपी (सीआरएल) नंबर 6611/2024