राज्यपाल व राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा तय करना गलत: तमिलनाडु फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी टिप्पणी
राष्ट्रपति द्वारा संदर्भित 14 विधिक प्रश्नों पर अपना अभिमत देते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने आज स्पष्ट किया कि तमिलनाडु राज्यपाल वाले निर्णय के वे पैराग्राफ, जिनमें राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए अनुच्छेद 200/201 के तहत समय-सीमा निर्धारित की गई थी, त्रुटिपूर्ण (erroneous) हैं।
8 अप्रैल को दो-जजों पीठ ने यह फैसला दिया था कि तमिलनाडु के राज्यपाल ने विधानसभा द्वारा पुनः पारित किए गए विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजकर दुर्भावनापूर्ण तरीके (mala fide) से कार्य किया। उस फैसले में कोर्ट ने उन विधेयकों को अनुच्छेद 142 के तहत “मानी हुई स्वीकृति (deemed assent)” प्राप्त माना और साथ ही राज्यपाल एवं राष्ट्रपति के लिए समय-सीमाएँ भी निर्धारित कर दी थीं।
चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पाँच-जजों संविधान पीठ—जिसमें जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर शामिल थे—ने कहा कि ऐसी समय-सीमा निर्धारित करना गलत था। खंडपीठ ने यह भी माना कि दो-जजों पीठ को राष्ट्रपति के लिए कोई समय-सीमा तय करने का कोई अवसर ही नहीं था।
खंडपीठ ने कहा:
“उपरोक्त कारणों के आधार पर स्पष्ट किया जाता है कि स्टेट ऑफ तमिलनाडु (supra) के पैरा 260-261, जिनमें अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल पर समय-सीमा लागू की गई है, त्रुटिपूर्ण हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट किया जाता है कि अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा बिलों के निपटारे के लिए समय-सीमा निर्धारण का प्रश्न उस मामले में था ही नहीं। अतः इस संबंध में दिए गए कोई भी अवलोकन या निष्कर्ष केवल ओबिटर (obiter) हैं और उन्हें उसी रूप में देखा जाना चाहिए।”
इन पैरा 260-261 में जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ द्वारा पारित निर्देश X से XIV शामिल थे, जिनमें कहा गया था:
(X) संविधान के अनुच्छेद 200 में राज्यपाल के कार्यों हेतु कोई स्पष्ट समय-सीमा निर्धारित नहीं है, परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि राज्यपाल बिना कार्रवाई किए विधायी प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न कर सकते हैं।
(XI) पहले प्रोवाइज़ो में “जल्द से जल्द” (as soon as possible) शब्दों से स्पष्ट है कि संविधान राज्यपाल से त्वरित कार्रवाई की अपेक्षा करता है।
(XII) जहां समय-सीमा निर्धारित नहीं होती, वहाँ शक्ति का उपयोग उचित समय में किया जाना चाहिए; और यदि प्रक्रिया त्वरित कार्यवाही की मांग करती है, तो कोर्ट समय-सीमा निर्धारित कर सकती है।
(XIII) कोर्ट द्वारा सामान्य समय-सीमा निर्धारित करना संविधान में संशोधन करना नहीं है, बल्कि अनुच्छेद 200 की अंतर्निहित प्रकृति के अनुरूप न्यायिक मानक तय करना है, ताकि मनमानी या अनुचित विलंब को रोका जा सके।
(XIV) अनुच्छेद 200 के महत्व को देखते हुए निम्नलिखित समय-सीमाएँ निर्धारित की जाती हैं—
1. राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह पर सहमति रोकना या राष्ट्रपति के पास आरक्षण भेजना — अधिकतम एक माह में
2. मंत्रिपरिषद की सलाह के विपरीत सहमति रोकना हो तो — अधिकतम तीन माह में बिल वापस भेजना
3. मंत्रिपरिषद की सलाह के विपरीत राष्ट्रपति को आरक्षण भेजना हो तो — अधिकतम तीन माह में
4. पुनर्विचार के बाद वापस भेजे गए बिल पर — अधिकतम एक माह में सहमति देना
सुप्रीम कोर्ट की वर्तमान पाँच-जजों पीठ ने स्पष्ट किया कि उपरोक्त निर्देशों के ये हिस्से कानूनी रूप से सही नहीं हैं और इन्हें केवल ओबिटर माना जाना चाहिए, अर्थात् बाध्यकारी (binding) नहीं।