बकाया बिक्री राशि जमा करने में मामूली देरी से विशिष्ट निष्पादन की डिक्री निष्प्रभावी नहीं होती: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2025-12-20 08:38 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि खरीदार समझौते को पूरा करने के लिए तैयार और इच्छुक बना रहता है तो बिक्री मूल्य की शेष राशि जमा करने में तय समय-सीमा से कुछ देरी मात्र से विशिष्ट निष्पादन (स्पेसिफिक परफॉर्मेंस) की डिक्री को निष्पादित न किए जाने योग्य नहीं ठहराया जा सकता।

जस्टिस संजय करोल और जस्टिस मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने यह निर्णय देते हुए कहा कि असली कसौटी यह है कि क्या वादी का आचरण अनुबंध को पूरा करने से इनकार या उसे छोड़ने का संकेत देता है। अदालत ने अपने हालिया फैसले रामलाल बनाम जरनैल सिंह का हवाला देते हुए दोहराया कि ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित अवधि के भीतर पूरी राशि जमा न करना अपने आप में अनुबंध के परित्याग या उसके स्वतः निरस्त होने के बराबर नहीं माना जा सकता।

मामले की पृष्ठभूमि वर्ष 2004 के एक समझौते से जुड़ी है, जिसके तहत अपीलकर्ता ने 9.05 लाख रुपये में एक भूखंड खरीदने का करार किया था। ट्रायल कोर्ट ने 2011 में विशिष्ट निष्पादन का डिक्री पारित करते हुए दो महीने के भीतर शेष राशि जमा करने पर सेल डीड निष्पादित करने का निर्देश दिया था। हालांकि प्रथम अपील में यह डिक्री पलट दी गई, लेकिन हाईकोर्ट ने 2016 में द्वितीय अपील में ट्रायल कोर्ट की डिक्री बहाल कर दी, बिना कोई नई समय-सीमा निर्धारित किए।

द्वितीय अपील के फैसले के बाद डिक्रीधारक ने 4 जुलाई, 2016 को निष्पादन याचिका दायर की, जो ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित दो महीने की अवधि समाप्त होने के लगभग 87 दिन बाद थी। इसके बाद अगस्त और दिसंबर, 2016 में शेष राशि के बड़े हिस्से जमा किए गए।

निर्णय देनदार ने यह कहते हुए आपत्ति उठाई कि निर्धारित समय के भीतर पूरी राशि जमा न किए जाने से डिक्री निष्पादित नहीं की जा सकती और इससे खरीदार की तत्परता व इच्छाशक्ति पर सवाल उठता है। निष्पादन न्यायालय ने जनवरी 2018 में इन आपत्तियों को खारिज कर दिया लेकिन हाईकोर्ट ने पुनर्विचार में यह कहते हुए डिक्री को निष्पादन योग्य नहीं माना कि न तो समय पर राशि जमा हुई और न ही समय बढ़ाने का कोई आदेश था।

इस आदेश को चुनौती देते हुए खरीदार सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।

जस्टिस संजय करोल द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया कि विशिष्ट निष्पादन की डिक्री को केवल अल्प देरी के आधार पर मृत नहीं माना जा सकता, जब तक कि डिक्रीधारक का आचरण स्पष्ट रूप से यह न दर्शाए कि उसने अपने दायित्वों को निभाने से इनकार कर दिया। अदालत ने इस तथ्य पर जोर दिया कि निचली अदालतों ने स्वयं यह पाया कि अपीलकर्ता समझौते को पूरा करने के लिए तैयार और इच्छुक था और उसने निष्पादन कार्यवाही शुरू कर राशि भी जमा की थी।

अदालत ने 'डॉक्ट्रिन ऑफ मर्जर' यानी विलय सिद्धांत पर भी चर्चा करते हुए कहा कि जब अपीलीय अदालत विशिष्ट निष्पादन की डिक्री को बिना किसी नई समय-सीमा के बरकरार रखती है तो ट्रायल कोर्ट की डिक्री अपीलीय निर्णय में विलय हो जाती है। ऐसे में मूल डिक्री में तय अवधि के बाद राशि जमा किए जाने के आधार पर डिक्री को निष्प्रभावी नहीं ठहराया जा सकता। इस संदर्भ में बलवीर सिंह बनाम बलदेव सिंह के फैसले का भी उल्लेख किया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इस मामले में 27 दिनों की देरी समझौते की जड़ पर प्रहार नहीं करती और इसे घातक नहीं कहा जा सकता। परिणामस्वरूप, अदालत ने अपील स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट का आदेश रद्द कर दिया और निष्पादन न्यायालय को निर्देश दिया कि वह कानून के अनुसार विशिष्ट निष्पादन की डिक्री को लागू करने की कार्यवाही आगे बढ़ाए।

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