आरक्षण नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता: सुप्रीम कोर्ट जज

Update: 2024-08-01 12:49 GMT

अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण की अनुमति देने के बहुमत के दृष्टिकोण से सहमत होते हुए सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस पंकज मित्तल ने आरक्षण प्रणाली पर पुनर्विचार करने का आह्वान किया और कहा कि SC/ST/OBC श्रेणियों के बीच दलितों के उत्थान के लिए अन्य तरीकों की आवश्यकता है।

जस्टिस मित्तल 7 जजों की पीठ के 6-1 बहुमत का हिस्सा थे। उन्होंने अपने सहमति वाले फैसले में कहा कि आरक्षण नीति चाहे वह सफल हो या विफल ने सभी स्तरों पर न्यायपालिका पर भारी मुकदमेबाजी का बोझ डाला है। अगर टुकड़ों में बदलाव करने के बजाय शुरू से ही मजबूत आरक्षण नीति का पालन किया जाता तो इससे बचा जा सकता था।

उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधी आंदोलन अक्सर हिंसक हो जाते हैं जिससे पूरे देश की शांति और सौहार्द भंग होता है।

साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया,

"उपर्युक्त आंदोलन, उपद्रव, हिंसा, मुकदमेबाजी और कमियों का जिक्र करते हुए मेरा यह सुझाव देने का इरादा नहीं है कि दलितों के उत्थान का कार्य समाप्त कर दिया जाए या सरकार को आरक्षण नीति छोड़ देनी चाहिए। लेकिन मुद्दा यह है कि सभी के लिए समानता और विकास लाने की प्रक्रिया को कैसे अंजाम दिया जाए। तथाकथित दलित वर्गों या दलितों की पहचान कैसे की जाए और उनके उत्थान के लिए उठाए जाने वाले कदमों का स्वरूप क्या हो।"

आरक्षण का लाभ वंचितों और हाशिए पर पड़े लोगों तक नहीं पहुंच रहा

जस्टिस मित्तल के अनुसार आंकड़े साबित करते हैं कि वंचित और हाशिए पर पड़े लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाया, जो उच्च स्तर पर स्वीकार्य है क्योंकि सबसे पिछड़े वर्गों के लगभग 50% स्टूडेंट कक्षा-5 से पहले और 75% कक्षा-8 से पहले स्कूल छोड़ देते हैं। हाई स्कूल के स्तर पर यह आंकड़ा 95 प्रतिशत तक पहुंच जाता है।

उन्होंने कहा,

"केवल कुछ जातियों के बच्चे, जो पहले से ही समृद्ध या शहरीकृत हैं, उच्च शिक्षा और आरक्षण का लाभ प्राप्त करने में सक्षम हैं।"

जस्टिस मित्तल ने फैसले में लिखा,

"अनुभव से पता चलता है कि पिछड़े वर्ग के बेहतर लोग आरक्षित अधिकांश रिक्तियों/सीटों को खा जाते हैं, जिससे सबसे पिछड़े लोगों के हाथ में कुछ नहीं बचता।"

प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था नहीं थी वर्ण व्यवस्था को गलत तरीके से समझा गया।

जस्टिस मित्तल ने अपने फैसले में कहा कि प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था नहीं थी बल्कि लोगों का उनके पेशे, प्रतिभा, गुणों और स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण था।

उन्होंने कहा,

"मैं धार्मिक शास्त्रों का विशेषज्ञ नहीं हूं और न ही मैं यह दावा करता हूं कि मुझे उनमें से किसी का भी ज्ञान है। हालांकि मैंने कभी-कभी भगवद् गीता और रामचरित मानस का अध्ययन किया होगा। शास्त्रों, विशेषकर गीता की मेरी सीमित समझ के अनुसार मेरा दृढ़ मत है कि आदिम भारत में किसी भी जाति व्यवस्था का अस्तित्व नहीं था बल्कि लोगों का उनके पेशे, प्रतिभा, गुणों और स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण था।"

वहीं समय बीतने के साथ वर्ण व्यवस्था बिगड़ गई और लोगों ने जन्म के आधार पर इन वर्णों को लेबल करना शुरू कर दिया, व्यक्ति की प्रकृति और विशेषताओं को अनदेखा कर दिया, जो गीता में बताए गए उपदेशों के बिल्कुल विपरीत है। वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था के रूप में गलत तरीके से प्रस्तुत करना एक सामाजिक दोष था जो समय के साथ बढ़ता गया।

उन्होंने अपने फैसले में लिखा,

"आदिम भारत में जाति व्यवस्था नहीं थी। धीरे-धीरे प्रचलित वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था समझ लिया गया संविधान को अपनाने के साथ ही हमने फिर से जातिविहीन समाज की ओर कदम बढ़ाने की कोशिश की लेकिन दलित और पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए सामाजिक कल्याण के नाम पर हम फिर से जाति व्यवस्था के जाल में फंस गए।"

आगे कहा,

"यह आम समझ है कि किसी वर्ग को खुश करने के लिए एक बार जो दिया जाता है, उसे वापस नहीं लिया जा सकता। संविधान के तहत आरक्षित वर्ग के लोगों को दिए गए लाभ भी वापस नहीं लिए जा सकते। एक बार दी गई हर रियायत किशमिश/गुब्बारे की तरह फूलती चली जाती है। आरक्षण की नीति के साथ भी यही हुआ।"

आरक्षण के क्रियान्वयन से जातिवाद फिर से पनपता है न्यायमूर्ति मिथल ने कहा कि आरक्षण दलितों के उत्थान के तरीकों में से एक है, लेकिन इसके क्रियान्वयन से जातिवाद फिर से पनपता है।

उन्होंने कहा,

''आरक्षण' OBC/SC/ST की स्थिति को बेहतर बनाने या मदद करने के तरीकों में से एक है। जो कोई भी तथाकथित दलित वर्गों या दलितों या समाज के हाशिए पर पड़े लोगों की मदद करने का कोई दूसरा या बेहतर तरीका सुझाता है उसे तुरंत दलित विरोधी करार दे दिया जाता है।"

जस्टिस मित्तल ने कहा कि दलित विरोधी कहलाने की कीमत पर वह कानूनी विद्वान नानी पालखीवाला की आत्मकथा से अंश उद्धृत कर रहे थे, जिसमें जाति-आधारित आरक्षण की आलोचना जातिवाद को पुनर्जीवित करने के रूप में की गई।

उन्होंने अपने विचारों को इस प्रकार संक्षेप में प्रस्तुत किया-

(i) संविधान के तहत और इसके विभिन्न संशोधनों द्वारा निहित आरक्षण की नीति पर नए सिरे से विचार करने और दलित वर्ग या दलितों या SC/ST/OBC समुदायों से संबंधित लोगों की मदद करने और उनके उत्थान के लिए अन्य तरीकों के विकास की आवश्यकता है। जब तक कोई नई पद्धति विकसित या अपनाई नहीं जाती, तब तक आरक्षण की मौजूदा प्रणाली, किसी वर्ग, विशेष रूप से अनुसूचित जाति के उप-वर्गीकरण की अनुमति देने की शक्ति के साथ क्षेत्र पर कब्जा करना जारी रख सकती है, क्योंकि मैं किसी मौजूदा इमारत को गिराने का सुझाव नहीं दूंगा, उसके स्थान पर एक नई इमारत खड़ी किए बिना, जो अधिक उपयोगी साबित हो सकती है।

(ii) संवैधानिक शासन में, कोई जाति व्यवस्था नहीं है और देश एक जातिविहीन समाज में चला गया है, सिवाय संविधान के तहत सीमित उद्देश्यों के लिए दलित वर्ग के लोगों, दलितों या एससी/एसटी/ओबीसी को आरक्षण देने के लिए दिए गए प्रावधान के। इसलिए व्यक्तियों की उपरोक्त श्रेणियों की पदोन्नति के लिए कोई भी सुविधा या विशेषाधिकार जाति के अलावा पूरी तरह से अलग मानदंडों पर होना चाहिए, जो आर्थिक या वित्तीय कारकों, रहने की स्थिति, व्यवसाय और उनके रहने के स्थान (शहरी या ग्रामीण) के आधार पर उनमें से प्रत्येक को उपलब्ध सुविधाओं पर आधारित हो सकता है।

(iii) आरक्षण, यदि कोई हो, केवल पहली पीढ़ी या एक पीढ़ी के लिए सीमित होना चाहिए और यदि परिवार में किसी पीढ़ी ने आरक्षण का लाभ लिया है और उच्च दर्जा प्राप्त किया है, तो आरक्षण का लाभ तार्किक रूप से दूसरी पीढ़ी को उपलब्ध नहीं होगा।

(iv) यह दोहराया जाता है कि आरक्षण का लाभ लेने के बाद सामान्य श्रेणी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले व्यक्ति के वर्ग को बाहर करने के लिए समय-समय पर अभ्यास किया जाना चाहिए।

केस टाइटल- पंजाब राज्य और अन्य बनाम दविंदर सिंह और अन्य

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