सिर्फ MLA होने पर अलग ट्रायल नहीं हो सकता: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2025-09-13 04:34 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (12 सितम्बर) को पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का वह आदेश रद्द कर दिया, जिसमें हरियाणा कांग्रेस विधायक मम्मन खान के लिए केवल विधायक होने के आधार पर अलग ट्रायल चलाने का निर्देश दिया गया था। कोर्ट ने कहा कि Ashwini Kumar Upadhyay बनाम Union of India (2023) मामले में सार्वजनिक प्रतिनिधियों से जुड़े मामलों के शीघ्र निपटारे पर जोर दिया गया है, लेकिन ऐसा करना कानून से हटकर किसी जनप्रतिनिधि को संयुक्त ट्रायल का अधिकार न देना उचित नहीं है।

कोर्ट ने कहा,“विधायकों से जुड़े मामलों का शीघ्र निपटारा वांछनीय है, परंतु प्रशासनिक प्राथमिकता, दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) के तहत दी गई प्रक्रियात्मक सुरक्षा या संविधान के समानता के सिद्धांत को ओवरराइड नहीं कर सकती। केवल राजनीतिक पद के आधार पर अलग ट्रायल करना मनमानी वर्गीकरण है और आपराधिक न्याय प्रणाली की निष्पक्षता को कमजोर करता है।”

जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन की खंडपीठ, विधायक मम्मन खान की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उन्होंने हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा था, जिसमें 2023 के नूंह हिंसा मामले में खान के खिलाफ अलग से ट्रायल का आदेश दिया गया था। इस हिंसा में छह लोगों की मौत हुई थी और खान व अन्य सह-आरोपियों पर हिंसा भड़काने का आरोप था।

हाईकोर्ट का आदेश रद्द करते हुए, जस्टिस आर. महादेवन द्वारा लिखित फैसले में कहा गया कि ट्रायल कोर्ट की दलीलें गलत थीं, क्योंकि कोई अलग तथ्य नहीं थे, साक्ष्य अविभाज्य थे और खान को ऐसा कोई नुकसान नहीं दिखाया गया जिससे अलग ट्रायल उचित ठहराया जा सके। कोर्ट ने जोर दिया कि जब अपराध एक ही लेन-देन (transaction) का हिस्सा हों तो Cr.P.C की धारा 223 के तहत संयुक्त ट्रायल उचित है, क्योंकि सबूत और सामग्री एक ही घटना से संबंधित हैं।

कोर्ट ने कहा,“सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विधायक होना अलग ट्रायल का आधार नहीं हो सकता। सभी आरोपी कानून के सामने समान हैं। अलग ट्रायल देना संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता के सिद्धांत के खिलाफ है। अनुच्छेद 21 के तहत शीघ्र ट्रायल का अधिकार महत्वपूर्ण है, परंतु इसे निष्पक्षता की कीमत पर हासिल नहीं किया जा सकता।”

कोर्ट ने आगे कहा,“अलग ट्रायल का आदेश किसी कानूनी रूप से मान्य आधार पर नहीं था – जैसे अलग तथ्य, अलग सबूत, या आरोपी को स्पष्ट नुकसान – बल्कि केवल राजनीतिक पद के कारण दिया गया था।”

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि,“इस मामले में, अपीलकर्ता (खान) के खिलाफ सबूत सह-आरोपियों के खिलाफ सबूत जैसे ही हैं। अलग ट्रायल का मतलब होगा गवाहों को बार-बार बुलाना, जिससे देरी होगी और विरोधाभासी फैसलों का खतरा रहेगा। हाईकोर्ट ने इन परिणामों पर विचार नहीं किया और केवल धारा 223 Cr.P.C की विवेकाधीन भाषा पर भरोसा किया। इसलिए, अलग ट्रायल का आदेश कानूनन अस्थिर है और अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष ट्रायल के अधिकार का उल्लंघन करता है।”

इसके अनुसार, मामला ट्रायल कोर्ट को वापस भेज दिया गया, ताकि आरोपी का संयुक्त ट्रायल सह-आरोपियों के साथ किया जा सके।

साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने संयुक्त ट्रायल के संबंध में निम्नलिखित सिद्धांत तय किए –

(i) Cr.P.C की धारा 218 के तहत अलग ट्रायल सामान्य नियम है; लेकिन यदि अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों या धारा 219-223 Cr.P.C की शर्तें पूरी हों तो संयुक्त ट्रायल संभव है। यह न्यायिक विवेक पर निर्भर करेगा।

(ii) संयुक्त या अलग ट्रायल का निर्णय सामान्यतः कार्यवाही की शुरुआत में और ठोस कारणों के आधार पर किया जाना चाहिए।

(iii) निर्णय लेते समय दो मुख्य बातों पर विचार होना चाहिए – क्या संयुक्त ट्रायल से आरोपी को नुकसान होगा? और क्या इससे देरी या न्यायिक समय की बर्बादी होगी?

(iv) एक ट्रायल में दर्ज सबूत दूसरे ट्रायल में इस्तेमाल नहीं किए जा सकते, इसलिए अलग-अलग ट्रायल से गंभीर प्रक्रियात्मक दिक्कतें हो सकती हैं।

(v) केवल इसलिए दोषसिद्धि या बरी करने का आदेश रद्द नहीं किया जा सकता कि संयुक्त या अलग ट्रायल संभव था; हस्तक्षेप तभी उचित है जब आरोपी को नुकसान या न्याय में चूक दिखाई दे।

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