SC/ST Act | प्रशासनिक जांच रिपोर्ट के बिना लोक सेवक के विरुद्ध कर्तव्य की उपेक्षा के अपराध का संज्ञान नहीं लिया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2024-06-14 05:17 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोक सेवक के विरुद्ध मामला शुरू करने के लिए प्रशासनिक जांच की संस्तुति न होने पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ST Act) के तहत लोक सेवक के विरुद्ध कर्तव्य की उपेक्षा के अपराध का संज्ञान लेने पर रोक लगेगी।

हाईकोर्ट के निष्कर्षों को पलटते हुए जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस एस.वी.एन. भट्टी की खंडपीठ ने कहा कि प्रशासनिक जांच की सिफारिश, 1989 के अधिनियम की धारा 4(2) के तहत लोक सेवक द्वारा जानबूझकर की गई उपेक्षा/कर्तव्य की अवहेलना के अपराध के लिए संज्ञान लेने सहित दंडात्मक कार्यवाही शुरू करने के लिए अनिवार्य शर्त है।

खंडपीठ ने कहा,

"1989 के अधिनियम की धारा 4(2) के तहत लोक सेवक द्वारा जानबूझकर की गई उपेक्षा/कर्तव्य की अवहेलना के अपराध के लिए संज्ञान लेने सहित दंडात्मक कार्यवाही शुरू करने के लिए प्रशासनिक जांच की सिफारिश अनिवार्य शर्त है। यह प्रावधान, प्रत्येक असंतुष्ट शिकायतकर्ता द्वारा अभियोजन आरंभ करने से लोक सेवक के लिए अंतर्निहित सुरक्षा है।"

अधिनियम की धारा 4(2) अधिनियम के तहत लोक सेवक द्वारा किए जाने वाले कर्तव्यों पर विचार करती है। यदि लोक सेवक द्वारा अपने कर्तव्यों के पालन में जानबूझकर लापरवाही बरती जाती है तो अधिनियम की धारा 4(1) के तहत कारावास की सजा का प्रावधान किया गया, अर्थात, जिसकी अवधि छह महीने से कम नहीं होगी, लेकिन जो एक वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है।

अधिनियम की धारा 4(2) के प्रावधान में कहा गया कि प्रशासनिक जांच की संस्तुति के बिना लोक सेवक के खिलाफ इस संबंध में कोई भी आरोप दर्ज नहीं किया जाएगा।

मामले की पृष्ठभूमि

शिकायतकर्ता द्वारा आरोप लगाया गया कि स्टेशन हाउस ऑफिसर (एसएचओ) लोक सेवक होने के नाते अधिनियम के तहत किए गए कथित अपराध के लिए आरोपी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के अपने कर्तव्य को निभाने से इनकार किया। एसएचओ के खिलाफ प्रशासनिक जांच की संस्तुति के अभाव में ट्रायल कोर्ट ने एसएचओ के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने से इनकार किया।

ट्रायल कोर्ट के आदेश से व्यथित होकर, शिकायतकर्ता/प्रतिवादी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने अपील स्वीकार की और एसएचओ के खिलाफ कानून के अनुसार कार्यवाही शुरू करने का निर्देश दिया।

हाईकोर्ट के निर्णय की आलोचना करते हुए एसएचओ ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। ​​न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न आया कि क्या प्रशासनिक जांच की संस्तुति के बिना लोक सेवक के विरुद्ध अपराध का संज्ञान लिया जा सकता है।

जस्टिस एसवीएन भट्टी द्वारा लिखित निर्णय में नकारात्मक उत्तर देते हुए स्पष्ट किया गया कि लोक सेवक द्वारा किसी भी कर्तव्य का पालन या चूक प्रशासनिक जांच की संस्तुति पर ही लोक सेवक के विरुद्ध संज्ञेय अपराध बनती है। न्यायालय ने कहा कि धारा 4(2) के अंतर्गत निहित अपराध का संज्ञान प्रशासनिक जांच द्वारा दी गई संस्तुति के आधार पर लिया जाएगा।

आगे कहा गया,

“लोक सेवक द्वारा कर्तव्य या कार्य में कथित विफलता पर प्रशासनिक जांच की संस्तुति अपराध की उपेक्षा को स्पष्ट करेगी और ऐसे अपराध का संज्ञान कानूनी है। सक्षम न्यायालय संस्तुति के साथ धारा 4 की उपधारा (2) के अंतर्गत निर्दिष्ट किसी भी कर्तव्य के पालन या चूक का संज्ञान ले सकता है और कानूनी कार्यवाही का निर्देश दे सकता है। इसलिए कर्तव्य की लापरवाही का प्रथम दृष्टया मामला गठित करने के लिए धारा 4 की उपधारा (2) के प्रावधान में प्रशासनिक जांच और सिफारिशों की परिकल्पना की गई।"

न्यायालय ने लोक सेवक की ओर से जानबूझकर अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने के कथित कृत्य की प्रशासनिक जांच की आवश्यकता बताई। न्यायालय ने कहा कि प्रशासनिक जांच का उद्देश्य ऐसे लोक सेवक के आचरण का पता लगाना है, जिसके विरुद्ध कर्तव्य या कार्य में विफलता के आरोप लगाए गए और चूक या कमीशन सद्भावनापूर्ण या जानबूझकर है।

इस संबंध में न्यायालय ने बिजेंद्र सिंह बनाम राज्य एवं अन्य के मामले में पारित दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय को मंजूरी दी, जिसमें हाईकोर्ट ने यह भी माना कि अधिनियम के तहत लोक सेवक के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही शुरू करने से पहले जांच रिपोर्ट मांगी जानी चाहिए, न कि आरोप तय करने से पहले।

लोक सेवक के विरुद्ध कार्यवाही शुरू करने से पहले मजिस्ट्रेट को विभाग से रिपोर्ट मांगनी होगी

न्यायालय ने माना कि यदि लोक सेवक के विरुद्ध शिकायत प्रशासनिक जांच की संस्तुति के बिना दायर की गई तो मजिस्ट्रेट का यह दायित्व है कि वह नामित लोक सेवक के विरुद्ध विभाग से रिपोर्ट/संस्तुति मांगे। अदालत ने कहा कि प्रशासनिक जांच रिपोर्ट के आधार पर विशेष न्यायालय या विशेष न्यायालय कथित अपराध का संज्ञान ले सकता है और उसके आधार पर दंडात्मक कार्यवाही का निर्देश दे सकता है।

कोर्ट ने कहा,

“उपर्युक्त प्रक्रिया का पालन करते हुए हम मानते हैं कि मजिस्ट्रेट को अपराध का संज्ञान लेने या न लेने का निर्णय लेने से पहले पक्ष के आरोप और विभाग के दृष्टिकोण को ध्यान में रखना चाहिए।”

निष्कर्ष

रिकॉर्ड पर रखे गए भौतिक साक्ष्यों का अवलोकन करने के बाद अदालत ने पाया कि रिकॉर्ड से यह पता नहीं चलता कि मजिस्ट्रेट ने नामित लोक सेवकों के खिलाफ शिकायत की गई कर्तव्यहीनता पर प्रशासनिक जांच रिपोर्ट मांगी। मजिस्ट्रेट ने सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए प्रतिवादी की शिकायत को खारिज कर दिया, जिसके तहत उसने कहा कि अपीलकर्ता/एसएचओ के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता।

हाईकोर्ट के विवादित निर्णय के संबंध में अदालत ने माना कि विवादित निर्णय सभी उद्देश्यों के लिए नामित लोक सेवकों द्वारा कथित कर्तव्यहीनता का निर्णय करता है और दंडात्मक अभियोजन का निर्देश देता है। ये निर्देश अधिनियम की धारा 4(2) के तहत बताए गए कानून के अधिदेश के अनुरूप नहीं हैं।

तदनुसार, अपील स्वीकार की गई और विवादित निर्णय रद्द कर दिया गया।

केस टाइटल: दिल्ली सरकार और अन्य बनाम प्रवीण कुमार @ प्रशांत

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