बिक्री अनुबंध नहीं; अचल संपत्ति नाबालिग को हस्तांतरित करने पर कोई रोक नहीं : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सेल डीड के माध्यम से नाबालिग के पक्ष में अचल संपत्ति हस्तांतरित करने पर कोई रोक नहीं है।
कोर्ट के अनुसार, नाबालिग सेल डीड के माध्यम से हस्तांतरिती/स्वामी बन सकता है। भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 11 के तहत निर्धारित शर्तें नाबालिग की अनुबंध करने की क्षमता को चुनौती देने के आड़े नहीं आएंगी, क्योंकि बिक्री को अनुबंध नहीं कहा जा सकता।
जस्टिस सीटी रविकुमार और जस्टिस संजय कुमार की खंडपीठ ने टिप्पणी की,
“हालांकि बिक्री के लिए किया गया समझौता बिक्री का अनुबंध है, लेकिन संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 54 के तहत इसकी परिभाषा के अनुसार, बिक्री को अनुबंध नहीं कहा जा सकता। बिक्री, इसके तहत परिभाषा के अनुसार, भुगतान की गई या वादा की गई या आंशिक रूप से भुगतान की गई और आंशिक रूप से वादा की गई कीमत के बदले में स्वामित्व का हस्तांतरण है। उपरोक्त सभी प्रासंगिक प्रावधानों को एक साथ पढ़ने से निस्संदेह यह पता चलता है कि वे नाबालिग के पक्ष में अचल संपत्ति के हस्तांतरण के रास्ते में नहीं आएंगे या दूसरे शब्दों में, वे हमेशा यह सुझाव देंगे कि नाबालिग अचल संपत्ति का हस्तांतरणकर्ता नहीं बल्कि हस्तांतरिती हो सकता है।''
स्पष्ट करने के लिए अनुबंध अधिनियम की धारा 11 के अनुसार, नाबालिग व्यक्ति अनुबंध करने के लिए सक्षम नहीं है। न्यायालय ने कहा कि चूंकि बिक्री को अनुबंध नहीं कहा जा सकता, इसलिए धारा 11 की आवश्यकता उन मामलों में निरर्थक हो जाती है, जहां बिक्री नाबालिग को की जाती है।
इसके अनुसार, न्यायालय ने माना कि एक बार संपत्ति नाबालिग होने पर किसी व्यक्ति को हस्तांतरित कर दी जाती है तो वयस्क होने पर वह उक्त संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति को हस्तांतरित करने के लिए सक्षम होगा।
न्यायालय ने कहा कि वयस्क होने पर व्यक्ति द्वारा किए गए हस्तांतरण को सिर्फ इसलिए चुनौती नहीं दी जा सकती, क्योंकि संपत्ति उसे हस्तांतरित किए जाने के समय वह नाबालिग था।
यह वह मामला था, जिसमें प्रतिवादी/प्रतिवादी के स्वामित्व और मुकदमे की संपत्ति पर कब्जे को प्रतिवादियों/अपीलकर्ताओं द्वारा इस आधार पर विवादित किया गया कि वर्ष 1968 में सीताराम (जब वह 22 वर्ष का था) द्वारा वादी को मुकदमे की संपत्ति का हस्तांतरण वैध हस्तांतरण नहीं कहा जा सकता। प्रतिवादियों के अनुसार, चूंकि सीताराम वर्ष 1963 में नाबालिग था (जब वह 17 वर्ष का था) जब संपत्ति उसे हस्तांतरित की गई। इसलिए उसके पास वर्ष 1968 में वादी को संपत्ति हस्तांतरित करने की क्षमता नहीं है, क्योंकि उसके पास मुकदमे की संपत्ति पर अच्छा स्वामित्व नहीं था।
ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ प्रथम अपीलीय न्यायालय ने प्रतिवादी/अपीलकर्ताओं के पक्ष में फैसला सुनाया, जबकि हाईकोर्ट ने द्वितीय अपील में उक्त निष्कर्षों को उलट दिया, जिसके कारण विवादित निर्णय हुआ।
हाईकोर्ट के निर्णय की पुष्टि करते हुए जस्टिस सीटी रविकुमार द्वारा लिखित निर्णय में निम्नलिखित उल्लेख किया गया:
“ऐसी परिस्थितियों में केवल यह कहा जा सकता है कि सीताराम के पास 15.03.1963 को अपने नाम पर मुकदमे की भूमि खरीदने के समय कोई कानूनी अक्षमता या अयोग्यता नहीं थी। साथ ही वादी के पास भी 04.06.1968 को एक्सट.पी1/सी - बिक्री विलेख के निष्पादन के समय एक हस्तान्तरित व्यक्ति के रूप में कोई कानूनी अक्षमता या अयोग्यता नहीं थी। यह किसी का मामला नहीं है कि एक्सट.पी1/सी के निष्पादन के समय सीताराम वयस्क नहीं हुआ था।
न्यायालय ने प्रतिवादी/अपीलकर्ताओं के बेनामी लेनदेन के निर्विवाद तर्क पर भी विचार किया और कहा कि बेनामी लेनदेन अधिनियम, 1988 की धारा 4 के अनुसार हाईकोर्ट का यह मानना उचित था कि "किसी बेनामी संपत्ति के संबंध में अधिकार लागू करने के लिए कोई भी मुकदमा, दावा या कार्रवाई उस व्यक्ति के खिलाफ नहीं होगी जिसके नाम पर संपत्ति रखी गई है या किसी अन्य व्यक्ति के खिलाफ ऐसी संपत्ति का वास्तविक स्वामी होने का दावा करने वाले व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से नहीं होगी, क्योंकि इसकी प्रकृति निषेधात्मक है।"
अंततः, न्यायालय ने माना कि 04.06.1968 को निष्पादित सेल डीड के माध्यम से सीताराम द्वारा मुकदमे की संपत्ति के हस्तांतरण को अपीलकर्ताओं/प्रतिवादियों द्वारा इस आधार पर विवादित नहीं किया जा सकता कि सीताराम के पास मुकदमे की संपत्ति पर अच्छा स्वामित्व नहीं है।
अपील खारिज कर दी गई।
केस टाइटल: नीलम गुप्ता एवं अन्य बनाम राजेंद्र कुमार गुप्ता एवं अन्य, सिविल अपील संख्या 3159-3160/2019