नगर निगम द्वारा होर्डिंग/विज्ञापन लगाने के लिए लगाई गई 'रॉयल्टी' को 'टैक्स' नहीं कहा जा सकता : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2024-10-17 04:21 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नगर निगम द्वारा होर्डिंग/विज्ञापन लगाने के लिए विज्ञापन कंपनियों पर लगाई गई 'रॉयल्टी' को 'टैक्स' नहीं कहा जा सकता।

जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने पटना हाईकोर्ट की खंडपीठ का फैसला खारिज किया, जिसमें पटना नगर निगम को विज्ञापन कंपनियों से वसूली गई 'रॉयल्टी' वापस करने का निर्देश दिया गया। खंडपीठ ने कहा कि निगम के पास संविधान के अनुच्छेद 265 के तहत 'रॉयल्टी' लगाने और वसूलने का कोई विधायी अधिकार नहीं है।

कोर्ट ने कहा कि नगर निगम द्वारा 'रॉयल्टी' लगाने को 'टैक्स' कहने के लिए 'अनिवार्य वसूली' नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने हाल ही में मिनरल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया में नौ जजों की पीठ के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि रॉयल्टी कर नहीं है।

जस्टिस अमानुल्लाह द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया,

"इस न्यायालय द्वारा यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट किया गया कि रॉयल्टी और टैक्स एक ही नहीं हैं। इस प्रकार, रॉयल्टी वसूलने की निगम की शक्ति में इस आधार पर हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता कि यह अधिनियम या संबंधित विनियमों में उपलब्ध नहीं है, क्योंकि उक्त 'रॉयल्टी' के कर होने का कोई सवाल ही नहीं है... जैसा कि पहले कहा गया, रॉयल्टी और कर को समान नहीं माना जा सकता - कानून में इन नामों का परस्पर उपयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों के अर्थ और अर्थ बिल्कुल अलग-अलग हैं। उपरोक्त कारणों से हम इस तर्क को तर्कसंगत नहीं बना पा रहे हैं कि निगम द्वारा की गई मांग एक अनिवार्य वसूली थी। इसी तरह हम यह कहने में भी असमर्थ हैं कि मांग कर के लक्षण हैं।"

न्यायालय के अनुसार, पक्षों का आचरण और 'रॉयल्टी' का भुगतान करने की सहमति किसी पक्ष को पलटने और स्वीकृत निर्णय पर आपत्ति करने से रोकती है, सिवाय इसके कि जहां अधिकार क्षेत्र की अंतर्निहित कमी है, या अधिकार का प्रयोग कानून या तथ्य में विकृत या दुर्भावनापूर्ण है।

वर्तमान मामले में चूंकि विज्ञापन कंपनी/प्रतिवादी नंबर 1 'रॉयल्टी' के भुगतान के लिए सहमत है। इसलिए प्रतिवादी नंबर 1 के लिए रॉयल्टी लगाने पर आपत्ति करना अनुमेय नहीं होगा। न्यायालय ने तर्क दिया कि यह ऐसा मामला नहीं है, जहां अपीलकर्ता/निगम के पास रॉयल्टी लगाने और एकत्र करने का अधिकार क्षेत्र नहीं है और रॉयल्टी को कर के रूप में लेबल करना अनुचित होगा।

न्यायालय ने टिप्पणी की,

“हम यह मानने में भी समान रूप से संकोच नहीं करते हैं कि अधिनियम की धारा 431 (पटना नगर निगम अधिनियम, 1951) के तहत कथित शक्ति के प्रयोग में बढ़ी हुई रॉयल्टी वसूलने का संकल्प गलत था, क्योंकि रॉयल्टी कर नहीं है। इस न्यायालय द्वारा यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट किया गया कि रॉयल्टी और कर एक ही नहीं हैं। इस प्रकार, रॉयल्टी वसूलने की निगम की शक्ति में इस आधार पर हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता कि यह अधिनियम या संबंधित विनियमों में उपलब्ध नहीं है, क्योंकि उक्त 'रॉयल्टी' के कर होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। इसलिए अधिनियम की धारा 431 रॉयल्टी के मामले में लागू नहीं होगी, वह भी किसी समझौते/समझौते के तहत।"

तदनुसार, न्यायालय ने निगम की अपील स्वीकार की और निम्न प्रकार से आदेश दिया:

"इक्विटी को संतुलित करने के लिए न्यायालय यह संकेत देगा कि निगम के संकल्प के अनुसार संबंधित प्रतिवादी नंबर 1/विज्ञापन कंपनियों और अन्य समान स्थिति वाले व्यक्तियों द्वारा 10 रुपये प्रति वर्ग फुट की बढ़ी हुई दर उस तिथि से देय होगी, जिस तिथि को इसे संबंधित पक्षों को सार्वजनिक/संप्रेषित किया गया, जो भी बाद में हो, 6% प्रति वर्ष की दर से साधारण ब्याज के साथ। निगम को निर्देश दिया जाता है कि वह संबंधित पक्षों को देय राशियों की गणना 4 सप्ताह के भीतर प्रस्तुत करे। संबंधित पक्षों द्वारा इसके बाद 16 सप्ताह के भीतर भुगतान किया जाना चाहिए, ऐसा न करने पर उन पर 10% प्रति वर्ष की दर से ब्याज लगेगा तथा बिहार एवं उड़ीसा लोक मांग वसूली अधिनियम, 1914 के तहत बकाया के रूप में वसूली योग्य होगी। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि यदि कोई राशि, प्रश्नगत अवधि के लिए 1 रुपये प्रति वर्ग फुट से अधिक भुगतान की गई तो उसे निगम द्वारा संबंधित प्रतिवादी नंबर 1 तथा अन्य सभी समान स्थिति वाले व्यक्तियों के संबंध में निर्धारित की जाने वाली अंतिम देयता में समायोजित किया जाएगा।”

केस टाइटल: पटना नगर निगम एवं अन्य बनाम मेसर्स ट्राइब्रो एडी ब्यूरो एवं अन्य, सिविल अपील नंबर 11117/2024

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