'किराया मुआवज़ा पाने के लिए संपत्ति से पूरी तरह वंचित होना ज़रूरी:' सुप्रीम कोर्ट ने नासिक निगम के ख़िलाफ़ ₹238 करोड़ का दावा ख़ारिज किया

Update: 2025-10-15 17:04 GMT

यह देखते हुए कि भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही में 'किराया मुआवज़ा' तभी दिया जाता है, जब मालिक अपनी संपत्ति के उपयोग से पूरी तरह वंचित हो जाता है, सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (15 अक्टूबर) को नासिक नगर निगम के ख़िलाफ़ 45 वर्षों से एक भूखंड के कथित अनधिकृत उपयोग के लिए किए गए ₹238 करोड़ के "किराया मुआवज़े" के भारी भरकम दावा ख़ारिज कर दिया।

भूमि मालिक को किराया मुआवज़ा तब दिया जाता है, जब अधिग्रहण करने वाला प्राधिकारी (अधिग्रहण से पहले) अधिग्रहीत संपत्ति का अनधिकृत तरीके से उपयोग करता है, जिससे भूमि मालिक को कब्ज़े के लाभ से वंचित होना पड़ता है।

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की खंडपीठ ने 1972 से जुड़े इस मामले की सुनवाई की, जब नासिक नगर निगम ने सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए भूमि आरक्षित करने का प्रस्ताव लिया और अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू किए बिना ही इसके एक हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। हालांकि ज़मीन का एक हिस्सा 1978 में औपचारिक रूप से अधिग्रहित कर लिया गया। हालांकि, विवादित 3,700 वर्ग मीटर ज़मीन को छोड़ दिया गया, फिर भी निगम ने उसका इस्तेमाल जारी रखा।

मूल मालिक ने दशकों तक निगम के ख़िलाफ़ मुक़दमा लड़ा और अदालतें लगातार उसके मालिकाना हक़ को बरकरार रखती रहीं। इन फ़ैसलों के आधार पर अपीलकर्ता ने 2011 में ₹1.17 करोड़ में ज़मीन ख़रीद ली। इसके बाद उसे अवमानना ​​की कार्यवाही सहित एक नया मुक़दमा शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा ताकि निगम अंततः 2017 में ज़मीन का अधिग्रहण कर सके।

अधिग्रहण के बाद अपीलकर्ता ने मुआवज़े को चुनौती दी। बता दें, प्राधिकरण ने आश्चर्यजनक रूप से ज़मीन का बाज़ार मूल्य लगभग ₹20.20 करोड़ कर दिया। हालांकि, 1972 से 2017 तक निगम द्वारा अवैध उपयोग के लिए "किराये के मुआवज़े" के रूप में ₹238 करोड़ अतिरिक्त भी दिए। बाद में हाईकोर्ट ने दोनों वृद्धियों को रद्द कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई।

अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए जस्टिस मसीह द्वारा लिखित निर्णय ने ₹20.20 करोड़ के बढ़े हुए बाजार मूल्य को बहाल कर दिया। कोर्ट ने कहा कि प्राधिकरण ने मूल्यांकन के लिए वैधानिक पद्धति का सही ढंग से पालन किया। हालांकि, कोर्ट ने "किराया मुआवज़ा" के रूप में अतिरिक्त ₹238 करोड़ को अलग रखने के हाईकोर्ट के निर्णय में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।

आर.एल. जैन बनाम डीडीए, (2004) 4 एससीसी 79 में अपने निर्णय का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि किराया मुआवज़ा केवल तभी दिया जाता है, जब स्वामी संपत्ति के उपयोग से पूरी तरह वंचित हो, जो यहां मामला नहीं था।

कोर्ट ने कहा,

"दस्तावेजों से स्पष्ट रूप से पता चलता है... कि संपत्ति प्रतिवादी - निगम के अनन्य कब्जे में नहीं थी।"

कोर्ट ने इस साक्ष्य की ओर इशारा करते हुए कहा कि मूल स्वामी ने संपत्ति को गिरवी रखा था, किरायेदारी की कार्यवाही शुरू की और अन्यथा स्वामित्व अधिकारों का प्रयोग किया था।

अदालत ने कहा,

"अतः, उपरोक्त दस्तावेजों से यह स्थापित होता है कि मूल स्वामी को विचाराधीन संपत्ति के कब्जे या उपयोग के लाभ से पूरी तरह वंचित नहीं किया गया, जिसका दावा वास्तव में अपीलकर्ता द्वारा किया गया। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया, दस्तावेजों से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि संपत्ति प्रतिवादी-निगम के अनन्य कब्जे में नहीं थी, बल्कि विषय-संपत्ति का वास्तविक भौतिक कब्जा मूल स्वामी के पास था और ऋण या किराए के रूप में उक्त संपत्ति के स्वामित्व का लाभ लेने सहित सभी उद्देश्यों के लिए इसका उपयोग स्वीकार किया गया और सिद्ध है। अपीलकर्ता द्वारा प्रस्तुत किराये के मुआवजे का दावा विशेष रूप से खरीद तिथि 29.07.2011 से पहले की अवधि के लिए कानून में स्थापित स्थिति के मद्देनजर असमर्थनीय है, जो किराये के मुआवजे के अनुदान को गैरकानूनी और अनधिकृत कब्जे से जुड़े मामलों तक सीमित करता है।"

अदालत ने आगे कहा,

"जहां तक ​​अपीलकर्ता के किराये के मुआवजे के दावे का सवाल है, 1972 के बाद की अवधि के लिए हाईकोर्ट का विवादित फैसला बरकरार रखते हुए इसे अस्वीकार किया जाता है।"

Cause Title: PRADYUMNA MUKUND KOKIL VERSUS NASHIK MUNICIPAL CORPORATION AND OTHERS

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