सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी कर्मचारी को बहाल करने का निर्देश दिया, जिसकी बर्खास्तगी जांच रिपोर्ट पर आधारित थी। उक्त जांच में आरोपों को पर्याप्त रूप से साबित किए बिना बड़ा दंड लगाया गया था। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में साक्ष्य दर्ज करना अनिवार्य है, जिसमें एक बड़े दंड के आरोप प्रस्तावित किए गए।
न्यायालय ने दोहराया,
"इस न्यायालय ने कई निर्णयों में माना है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में साक्ष्य दर्ज करना अनिवार्य है, जिसमें एक बड़े दंड के आरोप प्रस्तावित किए गए।"
जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने कहा कि जब अनुशासनात्मक कार्यवाही में ऐसे आरोप शामिल होते हैं, जिनमें एक बड़ा दंड लगाया जाना चाहिए तो जांच अधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह सरकारी कर्मचारी के खिलाफ लगाए गए आरोपों का समर्थन करने के लिए ठोस साक्ष्य दर्ज करे। ऐसे साक्ष्य के बिना कार्यवाही महत्वपूर्ण दंड लगाने के लिए आवश्यक प्रक्रियात्मक मानकों को पूरा करने में विफल हो जाती है।
न्यायालय ने कहा,
“इस प्रकार, एकपक्षीय जांच में भी आरोपों को साबित करने के लिए गवाहों के साक्ष्य दर्ज करना अनिवार्य है। 1999 के नियमों की कसौटी पर मामले के तथ्यों का परीक्षण करने तथा रूप सिंह नेगी और निर्मला जे. झाला के मामलों में इस न्यायालय द्वारा प्रतिपादित कानून के अनुसार, हमारा दृढ़ मत है कि अपीलकर्ता के विरुद्ध बड़े दंड से दंडनीय आरोपों से संबंधित जांच कार्यवाही पूरी तरह से दोषपूर्ण और कानून की दृष्टि में अनुचित थी, क्योंकि आरोपों के समर्थन में विभाग द्वारा कोई भी मौखिक साक्ष्य दर्ज नहीं किया गया।"
अपीलकर्ता, जो कि वाणिज्य कर का सहायक आयुक्त है, उसको अनियमितताओं के आरोपों के आधार पर अनुशासनात्मक कार्यवाही का सामना करना पड़ा। 5 मार्च, 2012 को आरोप पत्र जारी किया गया तथा जांच अधिकारी ने 29 नवंबर, 2012 को रिपोर्ट प्रस्तुत की। अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने दंड लगाया, जिसमें निंदा प्रविष्टि तथा संचयी प्रभाव से दो ग्रेड वेतन वृद्धि को रोकना शामिल है।
उत्तर प्रदेश राज्य लोक सेवा अधिकरण ने उचित साक्ष्यों की कमी तथा जांच अधिकारी द्वारा तर्कहीन निष्कर्षों का हवाला देते हुए दंड आदेश रद्द कर दिया।
हालांकि, हाईकोर्ट ने न्यायाधिकरण के निर्णय को पलटते हुए अनुशासनात्मक प्राधिकारी के आदेश को बहाल कर दिया। इसके बाद अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि जांच के दौरान कोई मौखिक साक्ष्य या गवाह प्रस्तुत नहीं किए गए, जिससे कार्यवाही गैरकानूनी हो गई और निष्कर्ष तर्कहीन हो गए तथा उत्तर प्रदेश सरकारी कर्मचारी (अनुशासन और अपील) नियम, 1999 के नियम 7(3) के तहत प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का उल्लंघन हुआ, जिसमें सरकारी कर्मचारी के खिलाफ आरोपों के समर्थन में मौखिक साक्ष्य दर्ज करने का आदेश दिया गया, जब जांच में बड़ी सजा लगाने का प्रस्ताव हो।
हाईकोर्ट के निर्णय को दरकिनार करते हुए जस्टिस मेहता द्वारा रूप सिंह नेगी बनाम पंजाब नेशनल बैंक और अन्य (2009) और निर्मला जे. झाला बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2013) के उदाहरणों का हवाला देते हुए लिखे गए निर्णय में कहा गया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में साक्ष्य दर्ज करना अनिवार्य आवश्यकता है, जहां बड़ी सजा प्रस्तावित की जा रही हो।
चूंकि अपीलकर्ता के खिलाफ आरोपों के समर्थन में विभाग द्वारा कोई मौखिक साक्ष्य दर्ज नहीं किया गया, इसलिए अदालत ने पूरी कार्यवाही को कानून की नजर में अवैध करार दिया।
अदालत ने कहा,
"इसके परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए सुविचारित निर्णय में हस्तक्षेप करते हुए गंभीर कानूनी त्रुटि की, जिसके तहत न्यायाधिकरण ने अपीलकर्ता पर जुर्माना लगाने का आदेश रद्द कर दिया था।"
तदनुसार, अपील को अनुमति दी गई और यूपी लोक सेवा न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए आदेश को बहाल किया गया।
केस टाइटल: सत्येंद्र सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य।