वसीयत के निष्पादन में मुख्य भूमिका निभाने वाले और पर्याप्त लाभ प्राप्त करने वाले प्रस्तावक संदेह पैदा करते हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि वसीयत से पर्याप्त लाभ प्राप्त करने वाले और इसके निष्पादन में भाग लेने वाले प्रस्तावक संदेह पैदा करते हैं, जिन्हें स्पष्ट साक्ष्य के साथ दूर किया जाना चाहिए। प्रस्तावक से उचित निष्पादन, सत्यापन करने वाले गवाहों की उपस्थिति और अन्य प्रमुख विवरणों के बारे में गवाही देने की अपेक्षा की जाती है।
कोर्ट ने आगे कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 68 के तहत सत्यापन करने वाले गवाह को पेश करना निष्पादन को साबित करने के लिए अपर्याप्त है, जब तक कि वे अन्य सत्यापन करने वाले गवाहों की उपस्थिति और कार्यों की पुष्टि न करें।
न्यायालय ने कहा,
“हमें लगता है कि केवल मिस्टर नीलमोहन सरकार जो सत्यापन करने वाले गवाहों में से एक हैं, उन्होंने DW-3 के रूप में अपना साक्ष्य दिया। उक्त साक्ष्य को पढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अपनी मुख्य परीक्षा में यह उल्लेख नहीं किया कि उक्त वसीयत के अन्य सत्यापनकर्ता गवाह कौन थे, क्या वे उस समय मौजूद थे, जब उन्होंने वसीयत को सत्यापित किया या यह उनकी अनुपस्थिति में किया गया। वसीयत के सत्यापन के संबंध में कोई अन्य विवरण उक्त गवाह ने अपनी चीफ एग्जामनर के दौरान उल्लेख नहीं किया है। अपनी क्रॉस एक्जामिनेशन में भी उन्होंने वसीयत के निष्पादन की तारीख, उसके प्रारूपण के स्थान और ऐसे अन्य महत्वपूर्ण विवरणों के बारे में अपनी अज्ञानता प्रदर्शित की है। हालांकि, उन्होंने इस बात से इनकार किया कि प्रतिवादी नंबर 1 और वकील के क्लर्क के बीच मिलीभगत थी और वसीयत को पूर्वव्यापी तारीख देते हुए तैयार किया गया।''
जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की खंडपीठ पैतृक और स्व-अर्जित संपत्तियों के विभाजन पर विवाद से संबंधित मामले की सुनवाई कर रही थी। इसमें शामिल संपत्तियां राज्य सरकार द्वारा परिवार को आवंटित की गईं और बाद में पक्षों को विरासत में मिली थीं।
वादी/अपीलकर्ता ने मुकदमे की संपत्ति के विभाजन की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया, जिसका प्रतिवादी ने यह तर्क देते हुए विरोध किया कि कनकी बाला घोष के स्वामित्व वाली मुकदमे की संपत्ति का हिस्सा उन्हें एक अनधिकृत वसीयत के माध्यम से दिया गया, इसलिए वसीयत को मान्यता न देने और वादी को मुकदमे की संपत्ति में 1/6वाँ हिस्सा देने का ट्रायल कोर्ट का निर्णय गलत था।
हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को पलट दिया और संपत्ति में प्रतिवादी के पूर्ण अधिकार को मान्यता देते हुए वसीयत की वैधता बरकरार रखी।
हाईकोर्ट के निर्णय को चुनौती देते हुए वादी/अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने वसीयत को मान्य करने में गलती की, क्योंकि वसीयत हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63 और साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 के अनुसार साबित नहीं हुई।
अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि यद्यपि सत्यापनकर्ता गवाह (डीडब्लू-3) ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 के तहत वसीयत के बारे में अदालत में गवाही दी, लेकिन गवाह अन्य सत्यापनकर्ता गवाहों की पहचान करने, सत्यापन के दौरान उनकी उपस्थिति की पुष्टि करने या सत्यापन प्रक्रिया का विवरण प्रदान करने में विफल रहा। इसके अलावा, वसीयत के प्रस्तावक (DW-2) ने यह दावा किया कि उसने सत्यापनकर्ता गवाहों को वसीयत पर हस्ताक्षर करते देखा है, वह भी वसीयत और वसीयत पर हस्ताक्षर करने वाले गवाहों के विवरण को साबित करने में विफल रहा।
हाईकोर्ट का निर्णय पलटते हुए न्यायालय ने अपीलकर्ता के तर्क को बरकरार रखा कि यद्यपि एक सत्यापनकर्ता गवाह ने गवाही दी, लेकिन उनकी गवाही ने सत्यापन के दौरान अन्य गवाहों की उपस्थिति या हस्ताक्षर की पुष्टि नहीं की।
न्यायालय ने यह भी देखा कि जब वसीयत के प्रस्तावक (DW-1) ने अपनी चीफ एक्जामिनेशन के दौरान यह दावा किया कि उसने सत्यापनकर्ता गवाहों को वसीयत पर हस्ताक्षर करते देखा है तो उससे उन गवाहों की पहचान निर्दिष्ट करने की अपेक्षा की गई। हालांकि, DW-1 यह साबित करने के लिए कोई विवरण देने में विफल रहा कि कम से कम दो सत्यापनकर्ता गवाह थे, जिन्होंने वसीयत को सत्यापित किया था।
अदालत ने टिप्पणी की,
"भले ही मामले में साक्ष्य देने के लिए केवल सत्यापनकर्ता गवाह को बुलाया गया, लेकिन कम से कम वसीयत के प्रस्तावक को वसीयत के उचित निष्पादन के संबंध में गवाही देनी चाहिए थी, क्योंकि वसीयत के निष्पादन के समय सत्यापनकर्ता गवाहों की उपस्थिति और अन्य महत्वपूर्ण विवरणों के बारे में विवरण उनकी अनुपस्थिति से स्पष्ट हैं। परिस्थितियों में हम पाते हैं कि वसीयत के प्रस्तावक द्वारा दिए गए साक्ष्य में भौतिक विवरणों की कमी है, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि वसीयत का सबूत है।"
एच. वेंकटचला अयंगर बनाम बी.एन. थिम्माजम्मा (1959) के मामले का संदर्भ दिया गया, जहां अदालत ने गजेंद्रगडकर जे. के माध्यम से बोलते हुए वसीयत को साबित करने के लिए कठोर मानकों को रेखांकित किया। न्यायालय ने कहा कि संदिग्ध परिस्थितियों, जैसे कि जब प्रस्तावक को वसीयत से पर्याप्त लाभ मिलता है, उसको स्पष्ट और ठोस साक्ष्य प्रस्तुत करके सुलझाया जाना चाहिए।
एच. वेंकटचला अयंगर मामले में न्यायालय ने टिप्पणी की,
"जिन संदिग्ध परिस्थितियों का हमने अभी उल्लेख किया, उनके अलावा, कुछ मामलों में प्रस्तावित वसीयतें अन्य दोष को उजागर करती हैं। प्रस्तावक स्वयं वसीयत के निष्पादन में प्रमुख भूमिका निभाते हैं, जिससे उन्हें पर्याप्त लाभ प्राप्त होता है। यदि यह दर्शाया जाता है कि प्रस्तावक ने वसीयत के निष्पादन में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। इसके तहत पर्याप्त लाभ प्राप्त किया तो इसे आम तौर पर वसीयत के निष्पादन में एक संदिग्ध परिस्थिति के रूप में माना जाता है। प्रस्तावक को स्पष्ट और संतोषजनक साक्ष्य द्वारा उक्त संदेह को दूर करने की आवश्यकता होती है।"
न्यायालय ने माना,
"इन परिस्थितियों में हम मानते हैं कि वसीयत (एक्सट.सी) को उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63 तथा साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 के अनुसार सिद्ध नहीं किया गया। इसके अलावा, वसीयत (एक्सट.सी) के तथाकथित लेखक DW-2 के साक्ष्य को पढ़ने पर हम पहले ही देख चुके हैं कि यह किसी भी तरह का भरोसा नहीं जगाता। इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। वसीयत के प्रस्तावक/प्रतिवादी के समर्थन में साक्ष्य में ऐसी कोई सामग्री नहीं है, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि वसीयत कानून के अनुसार है। इसलिए हम पाते हैं कि वसीयत का निष्पादन संदिग्ध परिस्थितियों से घिरा हुआ है, जिन्हें वसीयत के प्रस्तावक DW-1 द्वारा मिटाया नहीं गया। इसलिए हमारे विचार में हाईकोर्ट का यह मानना सही नहीं था कि वसीयत कानून के अनुसार सिद्ध की गई। इस प्रकार ट्रायल कोर्ट के निर्णय तथा डिक्री को संशोधित किया गया, जिसने वास्तव में वसीयत (एक्सट.सी) खारिज की।"
तदनुसार, अपील स्वीकार की गई।
केस टाइटल: चीनू रानी घोष बनाम सुभाष घोष और अन्य।