PMLA | क्या अभियुक्त को ऐसे दस्तावेज प्राप्त करने का अधिकार है, जिन पर अभियोजन पक्ष ट्रायल में भरोसा नहीं कर रहा? सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा

Update: 2024-09-04 11:32 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (4 सितंबर) को धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA Act) के तहत अभियुक्त को जब्त दस्तावेज प्राप्त करने के अधिकार के मुद्दे पर फैसला सुरक्षित रखा, जिन पर अभियोजन पक्ष मुकदमे की शुरुआत से पहले भरोसा नहीं करता।

यह मुद्दा दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील में सामने आया, जिसमें कहा गया कि अभियोजन पक्ष को मुकदमे से पहले ऐसे दस्तावेज उपलब्ध कराने की बाध्यता नहीं है।

सुनवाई के दौरान, जस्टिस अभय एस ओक, जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने सवाल किया कि क्या अभियुक्त के पक्ष में "निर्णायक" दस्तावेज रोकना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार का उल्लंघन होगा।

पीठ ने सवाल किया,

“हमें जो बात परेशान करती है, वह यह है कि जब कोई निर्णायक दस्तावेज हो सकता है, जो कि बहुत ही मौजूद है, और केवल प्रक्रियात्मक कोणों के कारण अभियुक्त को वह दस्तावेज नहीं मिल पाता है। क्या यह अनुच्छेद 21 को प्रभावित नहीं करता? अब कानून आगे बढ़ चुका है, संविधान की व्याख्या आगे बढ़ चुकी है। क्या आज की दुनिया में हम कह सकते हैं कि कोई दस्तावेज मौजूद है, लेकिन कुछ तकनीकी बातों पर भरोसा करने पर आपको वह नहीं मिलेगा?”

अपीलकर्ता की ओर से सीनियर एडवोकेट आर बसंत और गोपाल शंकरनारायणन तथा प्रवर्तन निदेशालय (ED) की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू की दलीलें सुनने के बाद न्यायालय ने फैसला सुरक्षित रख लिया।

अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि PMLA के आरोपी को जल्द से जल्द भरोसेमंद और गैर-भरोसेमंद दोनों तरह के दस्तावेज प्राप्त करने का अधिकार है। ED ने तर्क दिया कि आरोपी को आरोप तय होने के बाद ही भरोसेमंद और गैर-भरोसेमंद दोनों तरह के दस्तावेज प्राप्त करने का अधिकार है। ट्रायल शुरू होने तक आरोपी को केवल दस्तावेजों की सूची ही प्राप्त करने का अधिकार है।

ट्रायल में देरी के बारे में एएसजी राजू की दलील का जवाब देते हुए पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि आधुनिक समय में सॉफ्ट कॉपी उपलब्ध हैं। बड़े-बड़े दस्तावेजों को भी स्कैन करके उपलब्ध कराना आसान है।

राजू ने तर्क दिया कि दस्तावेजों को सौंपने से जांच में बाधा आ सकती है, क्योंकि भले ही किसी विशेष आरोपी से संबंधित जांच पूरी हो गई हो, लेकिन यह अभी भी अन्य आरोपियों के संबंध में जारी हो सकती है। संबंधित दस्तावेज उस जांच के लिए प्रासंगिक हो सकते हैं।

उन्होंने आगे तर्क दिया कि आरोपी को उन दस्तावेजों की जांच करने का अधिकार नहीं है, जिन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है, जो पूरी तरह से अप्रासंगिक हैं। उन्होंने आगे जोर दिया कि इस मामले में आरोपी के पास पहले से ही जब्त दस्तावेजों की एक सूची है। यदि आवश्यक हो तो वह अदालत से विशिष्ट दस्तावेजों का अनुरोध कर सकता है।

जस्टिस ओक ने बताया कि यदि किसी आरोपी को जमानत के लिए आवेदन करने या उचित बचाव का प्रदर्शन करने के लिए दस्तावेजों की आवश्यकता होती है तो उनकी पहुंच पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए।

जस्टिस ओक ने टिप्पणी की,

“जमानत कार्यवाही के दौरान अदालत द्वारा आरोपी के उचित बचाव पर विचार करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। यदि वह उन दस्तावेजों पर भरोसा करना चाहता है, जो उसके पास नहीं हैं, तो उसे वे दस्तावेज प्राप्त करने का अधिकार है। आप यह नहीं कह सकते कि वह केवल अपनी जेब में रखे दस्तावेजों को ही पेश कर सकता है। अन्यथा यह मनमाना है। क्या दस्तावेज उत्कृष्ट गुणवत्ता के हैं, यह अदालत को तय करना है।”

एएसजी राजू ने कहा कि अभियुक्त को इन दस्तावेजों को प्राप्त करने का अधिकार नहीं है, लेकिन वह अदालत से दस्तावेजों को देखने के लिए कह सकता है। उन्होंने तर्क दिया कि यदि अभियुक्त दावा करता है कि कोई विशिष्ट दस्तावेज उसे दोषमुक्त कर देगा तो यह अलग बात है।

राजू ने जोर देकर कहा कि अभियुक्त को सभी दस्तावेजों की "घूमने वाली जांच" करने की अनुमति देने से मुकदमे में अनावश्यक देरी हो सकती है।

एएसजी ने जोर दिया,

"लेकिन वह उन दस्तावेजों के लिए घूमने वाली जांच नहीं कर सकता है, जिन पर भरोसा नहीं किया गया, कह सकता है कि मैं उन सभी को देखूंगा, पता लगाऊंगा कि क्या कोई ऐसा दस्तावेज है जो मुझे प्रभावित करता है, जो मुझे दोषमुक्त करता है, और फिर मैं आवेदन करूंगा। 500 दस्तावेजों की सूची में से वे कह सकते हैं, 1 से 10 महत्वपूर्ण हैं, जिनका मैं निरीक्षण चाहता हूं। 10 से 20 महत्वपूर्ण हो सकते हैं, जिनका मैं अभी भी निरीक्षण चाहता हूं, शेष मैं नहीं चाहता। लेकिन वे जो कर रहे हैं, वह सब कुछ निरीक्षण करने के लिए कह रहा है। मुकदमा अव्यवस्थित है, आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?"

एएसजी राजू ने इस बात पर जोर दिया कि प्रथम दृष्टया यह साबित होना चाहिए कि दस्तावेज प्रासंगिक है और अदालत को दस्तावेजों की प्रासंगिकता पर फैसला करना चाहिए।

उन्होंने कहा,

“यदि दस्तावेज मांगे जाते हैं तो ट्रायल कोर्ट को बचाव के अधिकार के संदर्भ में प्रासंगिकता की जांच करनी चाहिए। यदि यह प्रासंगिक है तो उसे कॉपी दी जानी चाहिए। मैं जो प्रस्ताव दे रहा हूं वह यह है कि मैं उसे एक सूची दूंगा। आरोपी सूची को देखे और निरीक्षण करने पर उसे यह साबित करना चाहिए कि यह प्रासंगिक है, फिर हम प्रस्तुत करेंगे। किसी भी मामले में हम वे सभी दस्तावेज पेश करेंगे जो अदालत देखना चाहती है। लेकिन मुकदमे में देरी नहीं होनी चाहिए।”

सीनियर एडवोकेट आर बसंत ने तर्क दिया कि सीआरपीसी की धारा 207 और 208 के तहत सभी दस्तावेज, चाहे उन पर भरोसा किया जाए या नहीं, मुकदमा शुरू होने से पहले आरोपी को उपलब्ध कराए जाने चाहिए।

बसंत ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 207 ट्रायल चरण से पहले जांच के बाद लागू होती है और यह बहुत स्पष्ट करती है कि दस्तावेजों की प्रतियां प्रस्तुत की जानी चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि घुमंतू जांच का मुद्दा भ्रामक है, क्योंकि एक बार जब अभियुक्त न्यायालय में दस्तावेजों पर भरोसा न करने की मांग करते हुए आवेदन करता है तो न्यायालय उसे अस्वीकार कर सकता है यदि न्यायालय को वह प्रासंगिक न लगे।

अपीलकर्ताओं ने मनोज कुमार बनाम मध्य प्रदेश राज्य पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया कि सभी आपराधिक मामलों में अभियोजन पक्ष को उन बयानों, दस्तावेजों, भौतिक वस्तुओं और प्रदर्शनों की सूची प्रस्तुत करनी चाहिए, जिन पर जांच अधिकारी ने भरोसा नहीं किया। अपीलकर्ताओं ने पोन्नुस्वामी बनाम तमिलनाडु राज्य के फैसले पर भी भरोसा किया, जिसमें कहा गया कि अभियुक्त को अभियोजन पक्ष के कब्जे में सामग्री प्राप्त करने का अधिकार है, भले ही मसौदा आपराधिक नियमों को अपनाया न गया हो।

पीठ ने पहले पोन्नुस्वामी फैसले के पैराग्राफ 17 (ए) पर प्रकाश डाला, जिसमें कहा गया कि आरोप तय होने के बाद ट्रायल चरण में प्रकटीकरण की आवश्यकता लागू होती है। सवाल किया कि क्या वह पोन्नुस्वामी में समन्वय पीठ के फैसले के आलोक में अपीलकर्ताओं द्वारा जोर दिए गए दृष्टिकोण को अपना सकता है।

सुनवाई के दौरान जस्टिस ओक ने कहा कि पीठ इस बात पर विचार कर रही है कि उसे इस मामले में कानून बनाना चाहिए या इसे बड़ी पीठ को सौंपना चाहिए।

सीनियर एडवोकेट शंकरनारायणन ने इस बात पर प्रकाश डाला कि विजय मदनलाल चौधरी मामले में दिए गए फैसले में कहा गया कि आरोपी को शिकायत दर्ज करने के चरण में ही सभी दस्तावेज मिल जाते हैं, यहां तक ​​कि मुकदमे और आरोप तय होने से भी पहले। शंकरनारायणन ने तर्क दिया कि विजय मदनलाल मामले के बाद पारित पोन्नुस्वामी मामले में इस बात को ध्यान में नहीं रखा गया। उन्होंने तर्क दिया कि पोन्नुस्वामी मामला पीएमएलए से संबंधित मामलों के लिए नहीं था।

शंकरनारायणन ने जोर देकर कहा कि सामान्य आपराधिक मामलों के विपरीत PMLA मामलों में आरोपी पर जमानत आदि जैसे हर चरण में साक्ष्य पेश करने का दायित्व होता है। इसलिए उसे मुकदमे की शुरुआत से पहले ही दस्तावेजों तक पहुंच मिलनी चाहिए।

केस टाइटल- सरला गुप्ता और अन्य बनाम प्रवर्तन निदेशालय

Tags:    

Similar News