'NIA को स्पष्टीकरण देना चाहिए': सुप्रीम कोर्ट ने आरोपपत्र में वर्णित गवाह के बयान और वास्तविक बयान के बीच विसंगति को चिन्हित किया

Update: 2024-08-14 04:48 GMT

प्रतिबंधित संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) से कथित संलिप्तता के लिए गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) द्वारा दायर आरोपपत्र में संरक्षित गवाह के बयान को "पूरी तरह से विकृत" बताया।

जस्टिस अभय ओक और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने पाया कि आरोपपत्र में दिया गया बयान मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए गए वास्तविक बयान से अलग है।

आरोपपत्र में संरक्षित गवाह जेड का एक बयान शामिल था, जिसमें आरोप लगाया गया कि 29 मई, 2022 को अपीलकर्ता ने अहमद पैलेस में बैठक-सह-प्रशिक्षण सत्र में भाग लिया था। इस बैठक के दौरान, PFI के विस्तार, इसके सदस्यों के प्रशिक्षण और मुस्लिम सशक्तिकरण पर चर्चा की गई, जिसमें इस्लाम के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने वाले व्यक्तियों पर हमला करने के निर्देश दिए गए।

न्यायालय ने पाया कि गवाह ने कथित PFI बैठक में भागीदार के रूप में अपीलकर्ता का नाम नहीं बताया था तथा गवाह के बयान में दर्ज चर्चाओं की विषय-वस्तु में आरोप-पत्र में आरोपित हमलों के लिए कोई विशिष्ट निर्देश शामिल नहीं थे।

न्यायालय ने कहा,

“यह कहना पर्याप्त है कि पैराग्राफ 17.16 में जो पुनरुत्पादित किया गया, वह सही नहीं है। गवाह जेड के वास्तविक बयान के भौतिक भाग को आरोप-पत्र के पैराग्राफ 17.16 में पूरी तरह से विकृत कर दिया गया। कई बातें जो संरक्षित गवाह जेड ने नहीं बताईं, उन्हें पैराग्राफ 17.16 में शामिल कर लिया गया। पैराग्राफ 17.16 संरक्षित गवाह जेड के कुछ बयानों को जिम्मेदार ठहराता है, जो उसने नहीं दिए। NIA को इसके लिए स्पष्टीकरण देना चाहिए। जांच तंत्र को निष्पक्ष होना चाहिए। लेकिन इस मामले में पैराग्राफ 17.16 इसके विपरीत संकेत देता है।”

जमानत देते हुए न्यायालय ने आगे कहा कि हाईकोर्ट और निचली अदालत ने आरोप-पत्र पर निष्पक्ष रूप से विचार नहीं किया।

न्यायालय ने कहा,

“हमें यहां उल्लेख करना चाहिए कि विशेष न्यायालय और हाईकोर्ट ने आरोप-पत्र में दी गई सामग्री पर निष्पक्ष रूप से विचार नहीं किया। शायद PFI की गतिविधियों पर अधिक ध्यान दिया गया था। इसलिए अपीलकर्ता के मामले को ठीक से नहीं समझा जा सका।”

आरोप

अपीलकर्ता पर आईपीसी की धारा 121, 121ए, और 122 और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA Act) की धारा 13, 18, 18ए और धारा 20 के तहत अपराधों के लिए मुकदमा चलाया जा रहा है।

7 जनवरी, 2023 को आरोप पत्र दाखिल किया गया। अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि अपीलकर्ता की पत्नी के पास पटना में अहमद पैलेस नामक इमारत है, जहां पहली मंजिल पर स्थित परिसर को मामले में सह-आरोपी अतहर परवेज़ नामक व्यक्ति को किराए पर दिया गया था। अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि परिसर का उपयोग PFI से जुड़ी आपत्तिजनक गतिविधियों के लिए किया गया। चर्चा में कथित तौर पर PFI के विस्तार, इसके सदस्यों के प्रशिक्षण, मुस्लिम सशक्तिकरण और इस्लाम के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने वाले व्यक्तियों को निशाना बनाने की योजना शामिल थी।

अपीलकर्ता ने पहले UAPA के तहत विशेष अदालत से जमानत मांगी थी, जिसे अस्वीकार कर दिया गया। हाईकोर्ट ने भी सह-आरोपी को जमानत देते हुए उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी थी।

तर्क-वितर्क

अपीलकर्ता की ओर से सीनियर वकील मुक्ता गुप्ता ने तर्क दिया कि UAPA के तहत कथित अपराधों से उसे जोड़ने वाला कोई ठोस सबूत नहीं है। उन्होंने दावा किया कि अपीलकर्ता के खिलाफ सबसे बड़ा आरोप यह है कि उसकी पत्नी इमारत की मालिक है। उसने इसे परवेज़ को किराए पर दिया, जबकि अपीलकर्ता और PFI की गतिविधियों के बीच कोई सिद्ध संबंध नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि यदि अपीलकर्ता पीएफआई की गतिविधियों में शामिल होता, तो वह सीसीटीवी कैमरे नहीं लगाता।

उन्होंने तर्क दिया कि अपीलकर्ता के खिलाफ मामला UAPA की धारा 43डी(5) द्वारा निर्धारित मानकों को पूरा नहीं करता है, जिसके लिए आरोपों को प्रथम दृष्टया सत्य मानने के लिए उचित आधार की आवश्यकता होती है।

अभियोजन पक्ष की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने संरक्षित गवाहों वी, वाई और जेड के बयानों के साथ-साथ जांच एजेंसी द्वारा जब्त किए गए सीसीटीवी फुटेज का हवाला दिया। उन्होंने तर्क दिया कि फुटेज में अपीलकर्ता और परवेज को 6 और 7 जुलाई, 2022 को पहली मंजिल के परिसर से कुछ सामान ले जाते हुए दिखाया गया। उन्होंने कहा कि जब पुलिस ने 11 जुलाई, 2022 को छापा मारा, तो सामान नहीं मिला, जिससे पता चलता है कि अपीलकर्ता ने सबूतों के साथ छेड़छाड़ की थी। इसके अलावा, आरोप पत्र में एक फरार आरोपी से अपीलकर्ता के बेटे के अकाउंट में 25,000 रुपये की राशि ट्रांसफर किए जाने का उल्लेख किया गया, जिसके बारे में अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि यह पीएफआई गतिविधियों से जुड़ा।

एएसजी ने आगे तर्क दिया कि पहली मंजिल के परिसर के लिए किराए का समझौता पुलिस को गुमराह करने के लिए गढ़ा गया और अपीलकर्ता को PFI की गतिविधियों के बारे में पता था, जब उसने परिसर का उपयोग करने की अनुमति दी थी।

फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता रिटायर्ड पुलिस कांस्टेबल है, उसको 12 जुलाई, 2022 को गिरफ्तार किया गया और मुकदमा अभी आगे नहीं बढ़ा। कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता से सीधे तौर पर किसी भी तरह की आपत्तिजनक सामग्री बरामद होने का कोई सबूत नहीं है।

पुलिस की छापेमारी से पहले अपीलकर्ता द्वारा पहली मंजिल के परिसर से कथित तौर पर सामान हटाने की बात अभियोजन पक्ष द्वारा उजागर की गई, लेकिन कोर्ट ने बताया कि इन वस्तुओं की प्रकृति चार्जशीट में निर्दिष्ट नहीं की गई।

अपीलकर्ता के बेटे के अकाउंट में ट्रांसफर 25,000 रुपये की राशि के संबंध में कोर्ट ने अपीलकर्ता के इस स्पष्टीकरण पर ध्यान दिया कि यह परिसर के लिए अग्रिम किराए के भुगतान का हिस्सा था।

कोर्ट ने चार्जशीट में उद्धृत संरक्षित गवाह जेड के बयान और पटना के अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए गए वास्तविक बयान के बीच विसंगतियां पाईं।

सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप और कुछ सामग्री तो थी, लेकिन UAPA के तहत लगाए गए अपराधों में उसकी संलिप्तता के लिए एक मजबूत प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं थे। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि यह मानने के लिए उचित आधार की आवश्यकता है कि आरोप प्रथम दृष्टया सत्य हैं, जैसा कि UAPA की धारा 43डी(5) के तहत अपेक्षित है।

न्यायालय ने अभियोजन पक्ष की दलीलों को खारिज कर दिया और अपीलकर्ता को जमानत दे दी, यह स्पष्ट करते हुए कि उसकी टिप्पणियां प्रथम दृष्टया सत्य हैं और उनका मुकदमे पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

केस टाइटल- जलालुद्दीन खान बनाम भारत संघ

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