Medical Negligence | 'WBCE Act के तहत कमीशन मरीज़ों की सेवा में कमी पर फैसला कर सकता है': सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि वेस्ट बंगाल क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट (WBCE Act), 2017 के तहत स्थापित कमीशन 'मरीज़ों की देखभाल सेवा में कमी' पर फैसला करने और मुआवज़ा देने का हकदार है।
कोर्ट ने कहा,
"धारा 38 में साफ तौर पर कहा गया कि मेडिकल लापरवाही की शिकायतों से राज्य मेडिकल काउंसिल निपटेगी। डिवीजन बेंच ने कहा कि कमीशन इस संबंध में कोई फैसला देने का हकदार नहीं था। कमीशन ने अपने फैसले में साफ तौर पर कहा कि वे लापरवाही के सवाल पर विचार नहीं कर रहे हैं। हमने पाया कि कमीशन ने सच में ऐसा नहीं किया। उसने जो किया वह मरीज़ों की देखभाल सेवा में कमी की शिकायत पर विचार करना है और यह पता लगाने के लिए कि कमी है या नहीं, सेवा देने वाले व्यक्तियों की योग्यताओं की जांच की। इसकी अनुमति इस धारा द्वारा साफ तौर पर दी गई।"
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने इस दलील को खारिज कर दिया कि 'मेडिकल लापरवाही' और 'मरीज़ों की देखभाल सेवा में कमी' के मुद्दे इतने आपस में जुड़े हुए हैं कि कमीशन 'सेवा में कमी' पर फैसला नहीं कर सकता और केवल राज्य मेडिकल काउंसिल ही 'लापरवाही' पर फैसला दे सकती है।
उन्होंने कहा कि WBCE Act की धारा 36, जो कमीशन की स्थापना का प्रावधान करती है, उसमें 'पर्यवेक्षण' शब्द शामिल है। 'पर्यवेक्षण' में यह सुनिश्चित करना शामिल होगा कि क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट के सभी कर्मचारी अपनी शिक्षा और सर्टिफिकेशन के आधार पर वहां काम करने के हकदार हैं।
कोर्ट एक कौशिक पाल के मामले की सुनवाई कर रहा था, जिनकी मां 5 दिनों के लिए प्रतिवादी-अस्पताल में भर्ती थीं। प्राइमरी कंसल्टेंट की सलाह पर याचिकाकर्ता की मां को दूसरे अस्पताल में रेफर किया गया। दूसरे डॉक्टर द्वारा तैयार की गई उनकी डिस्चार्ज समरी में दर्ज था कि उनकी हालत 'स्थिर' है। लेकिन ट्रांसफर के कुछ ही घंटों बाद याचिकाकर्ता की मां का निधन हो गया। इसके बाद याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी-अस्पताल के खिलाफ लापरवाही और गलत निदान का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज की।
2018 में WBCE एक्ट के तहत स्थापित कमीशन ने कहा कि याचिकाकर्ता की मां की हालत को 'स्थिर' बताना गलत था। उसने आगे पाया कि अस्पताल के दो डॉक्टर (जो याचिकाकर्ता की मां से संबंधित थे) उन पदों पर रहने के लिए अयोग्य हैं, यानी हेड, नॉन-इनवेसिव डिपार्टमेंट और ECG टेक्नीशियन, और उन्होंने जो मेडिकल कोर्स किए, वे संबंधित मेडिकल काउंसिल द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हैं। इसे मरीज़ की देखभाल सेवा में कमी और अनैतिक व्यापार प्रथा माना गया। कमीशन ने 20 लाख रुपये का मुआवज़ा देने का निर्देश दिया।
कमीशन ने उस डॉक्टर के व्यवहार पर भी ध्यान दिया, जिसने याचिकाकर्ता की माँ को ट्रांसफर के लिए 'स्थिर' घोषित किया, लेकिन मेडिकल लापरवाही के मुद्दे पर विचार नहीं किया (क्योंकि यह WBMC के दायरे में आता था)।
प्रतिवादी-अस्पताल की अपील पर हाईकोर्ट के एक सिंगल जज ने कमीशन के निष्कर्षों को सही ठहराया और कहा कि अस्पताल द्वारा नियुक्त डॉक्टरों की शैक्षिक योग्यता के सवाल पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र उसके पास है। बाद में एक डिवीजन बेंच ने कमीशन और सिंगल जज के निष्कर्षों को यह कहते हुए पलट दिया कि सबूतों से अस्पताल के व्यवहार और याचिकाकर्ता की माँ की मौत के बीच कोई संबंध नहीं दिखता है।
डिवीजन बेंच ने यह भी कहा कि खुद को विशेषज्ञ बताने वाले डॉक्टर के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई केवल पश्चिम बंगाल मेडिकल काउंसिल ही कर सकती है। कमीशन यह नहीं कह सकता था कि डॉक्टर वे काम करने के लिए योग्य नहीं है, जो उन्होंने किए। यह भी कहा गया कि मेडिकल लापरवाही और मरीज़ की देखभाल "इतने गहराई से जुड़े हुए हैं" कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है, क्योंकि लापरवाही का मुद्दा केवल एक विशेष संस्था ही उठा सकती है, इसलिए कमीशन इस मुद्दे पर फैसला नहीं कर सकता।
दुखी होकर याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
दोनों पक्षों को सुनने और सामग्री की जांच करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने डिवीजन बेंच के विचार से असहमति जताई।
कोर्ट ने कहा,
"इस मामले में ऊपर बताए गए शब्द यह संकेत देते हैं कि कमीशन के पास अपने अधिकार क्षेत्र में यह सुनिश्चित करने की शक्ति होगी कि क्लिनिकल संस्थानों द्वारा नियुक्त कर्मचारी निर्धारित आवश्यकताओं के अनुसार हों, जिससे बेंचमार्क का पालन हो।"
इसने आगे कहा,
"यह कहना कि अपीलकर्ता की माँ को गलती से 'स्थिर' बताया गया, संबंधित डॉक्टर को ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं कर सकता और न ही करना चाहिए।"
कोर्ट ने यह भी कहा कि WBCE Act की धारा 38(1)(x) के अनुसार, यह कमीशन का काम है कि वह यह सुनिश्चित करे कि नियुक्त व्यक्ति योग्य हों। इसलिए कमीशन द्वारा इन दो व्यक्तियों की योग्यता पर फैसला देना कानून के अनुसार है। कोर्ट ने एक्ट के तहत बताई गई सज़ाओं से यह भी देखा कि इसे बनाने के पीछे विधायिका का इरादा था कि मरीज़ की पूरी तरह से सुरक्षा की जाए।
डिवीजन बेंच का फैसला रद्द करते हुए और कमीशन का फैसला बहाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा,
"हाईकोर्ट ने स्टेट मेडिकल काउंसिल को बहुत ज़्यादा छूट दी, जिससे कमीशन के काम करने के लिए लगभग कोई जगह नहीं बची। इस एक्ट के तहत मुआवज़ा देने की शक्ति, किसी पेशेवर की ओर से मेडिकल लापरवाही की मौजूदगी या गैर-मौजूदगी की जांच करने की स्टेट मेडिकल काउंसिल की शक्ति से अलग और विशिष्ट है। यह मेडिकल लापरवाही की शिकायतों पर फैसला सुनाने की स्टेट मेडिकल काउंसिल की शक्ति में कहीं भी हस्तक्षेप नहीं करती है। यदि डिवीजन बेंच के निष्कर्षों को स्वीकार कर लिया जाता है कि मरीज़ की देखभाल सेवा में कमी और मेडिकल लापरवाही, कुछ मामलों में एक-दूसरे में इतनी उलझी हुई हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता, तो कई मामलों में कमीशन की कार्यप्रणाली असंभव हो जाएगी, जिससे इस एक्ट के पीछे विधायिका का इरादा विफल हो जाएगा।"
Case Title: KOUSIK PAL VERSUS B.M. BIRLA HEART RESEARCH CENTRE & ORS., SLP(C)No.8365/2024