ट्रायल कोर्ट का दृष्टिकोण विकृत या असंभव न होने पर हाईकोर्ट का बरी करने के फैसले में हस्तक्षेप करना अस्वीकार्य: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2024-04-03 04:53 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (2 अप्रैल) को दोहराया कि दो विचारों की संभावना की स्थिति में, यदि ट्रायल कोर्ट आरोपी को बरी कर देता है तो हाईकोर्ट के लिए ट्रायल कोर्ट के बरी करने के आदेश में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं होगी, जब तक कि ट्रायल कोर्ट द्वारा लिया गया दृष्टिकोण विकृत नहीं होता।

जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने कहा,

"किसी भी मामले में भले ही दो दृष्टिकोण संभव हों और ट्रायल जज ने दूसरे दृष्टिकोण को अधिक संभावित पाया हो, हाईकोर्ट द्वारा हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होगी, जब तक कि ट्रायल जज द्वारा लिया गया दृष्टिकोण विकृत या असंभव न हो।”

हाईकोर्ट के निष्कर्षों को उलटते हुए जस्टिस बीआर गवई द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया कि हाईकोर्ट के लिए आरोपियों को बरी करने के ट्रायल कोर्ट के फैसले में हस्तक्षेप करना तभी स्वीकार्य होगा, जब वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि ट्रायल जज के निष्कर्ष सही साबित होंगे।

अदालत ने कहा,

“हम यह कहने के लिए मजबूर हैं कि हाईकोर्ट के निष्कर्ष पूरी तरह से अनुमानों पर आधारित हैं। हालांकि हाईकोर्ट ने दोषमुक्ति के खिलाफ अपील में हस्तक्षेप के दायरे के संबंध में इस न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून का उल्लेख किया, हाईकोर्ट ने इसे पूरी तरह से गलत तरीके से लागू किया और साक्ष्य की सही सराहना के आधार पर बहुत ही तर्कसंगत निर्णय दिया। ट्रायल कोर्ट को हाईकोर्ट ने केवल अनुमानों और अनुमानों के आधार पर उलट दिया।''

सुप्रीम कोर्ट की उक्त टिप्पणी हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ आरोपी द्वारा दायर आपराधिक अपील पर फैसला करते समय आई, जिसने निचली अदालत का दोषमुक्ति आदेश पलट दिया था।

अभियोजन पक्ष द्वारा रिकॉर्ड पर रखे गए सबूतों में पाई गई भौतिक विसंगतियों के आधार पर ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को बरी कर दिया। ट्रायल कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे आरोपी/अपीलकर्ता के अपराध को साबित करने में विफल रहा।

सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमे में सबूतों के टुकड़ों का जिक्र करते हुए कहा कि ट्रायल जज के निष्कर्ष रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री की सही सराहना पर आधारित हैं, और “अभियोजन पक्ष किसी भी आपत्तिजनक परिस्थितियों को उचित संदेह से परे साबित करने में विफल रहा है।” किसी भी मामले में परिस्थितियों की श्रृंखला, जो एक-दूसरे से इस तरह जुड़ी हुई है, कि आरोपी व्यक्तियों के अपराध के अलावा कोई अन्य निष्कर्ष नहीं निकलता।

यह पाते हुए कि अभियोजन का मामला पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है, अदालत ने शरद बिरधीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य का जिक्र करते हुए कहा,

“साक्ष्यों की श्रृंखला इतनी संपूर्ण होनी चाहिए कि निष्कर्ष के लिए कोई उचित आधार न छूटे। अभियुक्त की बेगुनाही के साथ और यह दिखाना होगा कि सभी मानवीय संभावनाओं में यह कार्य अभियुक्त द्वारा किया गया होगा।''

अदालत ने आगे कहा,

“यह स्थापित कानून है कि संदेह, चाहे वह कितना भी मजबूत क्यों न हो, उचित संदेह से परे सबूत की जगह नहीं ले सकता। किसी आरोपी को संदेह के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता, चाहे वह कितना भी मजबूत क्यों न हो। एक आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक कि वह उचित संदेह से परे दोषी साबित न हो जाए।''

उपरोक्त आधार पर ट्रायल जज द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण में कोई विकृति या असंभवता नहीं पाए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का फैसला पलटते हुए आरोपी को बरी कर दिया।

केस टाइटल: बल्लू @ बलराम @ बालमुकुंद और दूसरा बनाम मध्य प्रदेश राज्य

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