हाईकोर्ट बेंच तीन महीने में फैसला नहीं सुनाती तो रजिस्ट्रार जनरल को चीफ जस्टिस के समक्ष मामला रखना होगा: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि हाईकोर्ट द्वारा लंबे समय तक फैसले न सुनाए जाने के कारण वादी को उचित उपाय खोजने का अवसर नहीं मिल पा रहा है। न्यायालय ने अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2002) मामले में पारित दिशा-निर्देशों को दोहराया, जिसमें न्यायालय ने निर्देश दिया कि यदि फैसला सुरक्षित रखे जाने के छह महीने के भीतर नहीं सुनाया जाता है तो पक्षकार हाईकोर्ट चीफ जस्टिस के समक्ष मामला वापस लेने और किसी अन्य बेंच को सौंपे जाने के लिए आवेदन करने के लिए स्वतंत्र हैं और उनका उचित रूप से पालन किया जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा,
"यह बेहद चौंकाने वाला और आश्चर्यजनक है कि अपील की सुनवाई की तारीख से लगभग एक साल तक फैसला नहीं सुनाया गया। इस न्यायालय को बार-बार ऐसे ही मामलों का सामना करना पड़ता है, जिनमें हाईकोर्ट में कार्यवाही तीन महीने से ज़्यादा समय तक लंबित रहती है, कुछ मामलों में छह महीने या वर्षों से भी ज़्यादा समय तक, जहां मामले की सुनवाई के बाद भी फैसला नहीं सुनाया जाता। ज़्यादातर हाईकोर्ट में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जहां वादी संबंधित बेंच या चीफ जस्टिस से संपर्क कर फैसला सुनाए जाने में देरी की जानकारी दे सके। ऐसी स्थिति में वादी न्यायिक प्रक्रिया में अपना विश्वास खो देता है और न्याय के उद्देश्यों को विफल कर देता है।"
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने अनिल राय मामले में निर्धारित सिद्धांतों का पालन करने की आवश्यकता पर टिप्पणी करते हुए कहा:
"हम निर्देशों को दोहराते हैं और प्रत्येक हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को निर्देश देते हैं कि वह हाईकोर्ट चीफ जस्टिस को उन मामलों की सूची प्रस्तुत करें, जिनमें आरक्षित निर्णय उस महीने की शेष अवधि के भीतर नहीं सुनाया गया और इसे तीन महीने तक दोहराते रहें। यदि तीन महीने के भीतर निर्णय नहीं सुनाया जाता है तो रजिस्ट्रार जनरल आदेश के लिए मामले को चीफ जस्टिस के समक्ष प्रस्तुत करेंगे और चीफ जस्टिस दो सप्ताह के भीतर आदेश सुनाने के लिए संबंधित बेंच के संज्ञान में लाएंगे, अन्यथा मामले को किसी अन्य पीठ को सौंप दिया जाएगा।"
न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि कई हाईकोर्ट ने बिना किसी तर्क के अंतिम आदेश सुनाने की प्रथा अपना ली, जो काफी लंबे समय तक नहीं सुनाया जाता। इसने कहा कि इससे पीड़ित पक्ष को आगे न्यायिक समाधान प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलता है। रतिलाल झावेरभाई परमार एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2024) सहित कई निर्णयों में इसकी निंदा की गई।
न्यायालय इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा क्रमशः 2023 और 2024 के दो अंतरिम आदेशों के विरुद्ध दायर विशेष अनुमति याचिका पर विचार कर रहा था। विशेष अनुमति याचिका में अपीलकर्ता ने दावा किया कि उसकी अपील 2008 से लंबित है। उसने अपील की शीघ्र सुनवाई, सुनवाई और निपटारे के लिए नौ अलग-अलग मौकों पर हाईकोर्ट का रुख किया।
15 अप्रैल के एक आदेश द्वारा न्यायालय ने हाईकोर्ट से अनुरोध किया कि वह अपीलों का शीघ्रता से अधिमानतः तीन महीने के भीतर निपटारा करे। हालांकि, न्यायालय को सूचित किया गया कि हाईकोर्ट की खंडपीठ ने पहले 2021 में निर्णय सुरक्षित रख लिया, लेकिन आदेश नहीं सुनाया।
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को निर्देश दिया कि वह इसे तुरंत चीफ जस्टिस के संज्ञान में लाएं और किए गए कथनों में सुधार के लिए रिपोर्ट भी प्रस्तुत करें। प्रस्तुत रिपोर्ट में बताया गया कि 24 दिसंबर, 2021 को फैसला सुरक्षित रख लिया गया। मगर फैसला न सुनाए जाने के कारण चीफ जस्टिस ने मामले को नियमित पीठ के समक्ष सूचीबद्ध कर दिया। इसे पुनः चीफ जस्टिस के समक्ष रखा गया, जिन्होंने रोस्टर के अनुसार मामले को 9 जनवरी, 2023 के लिए सूचीबद्ध कर दिया। मगर कोई भी उपस्थित न होने के कारण मामले की सुनवाई स्थगित कर दी गई और अंततः सुनवाई नहीं हो पाई।
Case Details: RAVINDRA PRATAP SHAHI Vs STATE OF U.P.|SLP(Crl) No. 4509-4510/2025