'जेंडर-न्यूट्रल' को अक्सर 'जेंडर समानता' समझ लिया जाता है: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में भारतीय सेना की जज एडवोकेट जनरल (JAG) शाखा में पुरुष उम्मीदवारों के लिए सीटें आरक्षित करने की नीति रद्द की।
यह आदेश देते हुए कि नियुक्तियां योग्यता-आधारित होनी चाहिए, न्यायालय ने कहा कि "जेंडर-न्यूट्रल" शब्द को अक्सर "जेंडर समानता" के साथ गलत तरीके से जोड़ दिया जाता है।
न्यायालय एक ऐसे मामले पर फैसला सुना रहा था, जिसमें महिला उम्मीदवारों ने सेना की उस नीति को चुनौती दी थी। इसमें महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग मेरिट सूची जारी करने और पुरुषों के लिए आरक्षित रिक्तियों (6) की तुलना में महिलाओं के लिए कम रिक्तियां (3) निर्धारित करने की बात कही गई।
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की खंडपीठ ने कहा कि यदि JAG भर्ती नीति वास्तव में जेंडर-न्यूट्रल है और जेंडर की परवाह किए बिना केवल योग्यता पर आधारित है तो महिला उम्मीदवारों पर सीमा लगाना अनुचित है। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यह नीति समानता के अधिकार का उल्लंघन करती है। न्यायालय ने कहा कि सेना ने प्रक्रिया को जेंडर-न्यूट्रल बताते हुए निष्पक्षता को समानता के बराबर मान लिया, जिससे महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित हो गया।
“सामान्य बोलचाल में 'जेंडर-न्यूट्रल' का अर्थ है कि किसी व्यक्ति के जेंडर के आधार पर उम्मीदवारों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। 'जेंडर-न्यूट्रल' शब्द को आमतौर पर गलत समझा जाता है और अक्सर इसे 'लिंग-समानता' का पर्यायवाची मान लिया जाता है।”
'जेंडर-न्यूट्रल' और 'जेंडर-समानता' शब्दों के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए न्यायालय ने कहा:
“इस अंतर को समझने के लिए एक सरल उदाहरण यह होगा कि जब कोई नियोक्ता समान संख्या में पुरुषों और महिलाओं को नियुक्त करता है तो उसे 'जेंडर-समानता' की नीति का पालन करने वाला माना जाएगा; दूसरी ओर, यदि नियोक्ता जेंडर की परवाह किए बिना नौकरी के लिए सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार को नियुक्त करता है तो उसे 'जेंडर-न्यूट्रिलिटी' की नीति का पालन करने वाला माना जाएगा।”
न्यायालय ने स्पष्ट किया,
"जेंडर-न्यूट्रल की अवधारणा न केवल लिंग-आधारित वर्गीकरण पर रोक लगाती है, बल्कि यह सुनिश्चित करती है कि नौकरी के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार का चयन किया जाए।"
महिला उम्मीदवारों के लिए सीटें निर्धारित करने के विरोध में टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने आगे कहा,
"इसके अलावा, सेवा में 'जेंडर-न्यूट्रल' का सिद्धांत किसी भी परिचालन क्षेत्र या भूमिका में तैनाती को रोकता या सीमित नहीं करता है।"
न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि कम योग्य पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में अधिक योग्य महिला उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। साथ ही कहा कि उच्च योग्यता के बावजूद महिलाओं के पदों की सीमा तय करना समानता की अवधारणा को कमजोर करता है और कानून के तहत अस्वीकार्य है।
गोपिका नायर एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2023) के हालिया मामले का संदर्भ दिया गया, जहां तीन महिला उम्मीदवारों को, कुछ पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में अधिक योग्य होने के बावजूद, जेंडर-न्यूट्रल पॉलिसी के अस्तित्व के बावजूद, 27 चयनित उम्मीदवारों की पहली सूची से शुरू में बाहर रखा गया। इस बहिष्कार को चुनौती देते हुए महिलाओं ने तर्क दिया कि उन्हें शामिल न करना अनुचित था। तीन जजों की पीठ ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि उन्हें योग्यता के आधार पर 27 उम्मीदवारों की पहली सूची में शामिल किया जाना चाहिए। भले ही अनुच्छेद 15 के तहत महिलाओं के लिए विशेष व्यवस्था के तहत उन 27 सीटों के अलावा महिला उम्मीदवारों के लिए कोई अलग सीट आरक्षित हो।
अदालत ने कहा,
"प्रथम दृष्टया, हम पाते हैं कि इन तीन अत्यधिक मेधावी महिला उम्मीदवारों को चयन प्रक्रिया में भाग लेने से वंचित करना समय को उलटने जैसा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत महिलाओं को वरीयता देने की बात तो दूर, प्रतिवादी-भारत संघ का रुख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, क्योंकि यह मेधावी महिला को प्रतिस्पर्धा करने से वंचित करता है और बहुत कम मेधावी पुरुषों को चयन प्रक्रिया में भाग लेने की अनुमति देता है।"
Case Details: ARSHNOOR KAUR v UNION OF INDIA|W.P.(C) No. 772/2023