'धोखाधड़ी सब कुछ उजागर कर देती है': सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में धोखाधड़ी से प्राप्त अपना आदेश वापस लिया

Update: 2025-07-23 13:06 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि धोखाधड़ी से प्राप्त कोई भी निर्णय या आदेश अमान्य है। उसे अपील, पुनर्विचार या रिट कार्यवाही में चुनौती दिए बिना, संपार्श्विक कार्यवाही में भी चुनौती दी जा सकती है।

जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस उज्जल भुयान की बेंच ने रेड्डी वीराना बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) में दिया गया अपना ही 2022 का फैसला रद्द करने के लिए इसी सिद्धांत को लागू किया और कहा कि यह फैसला धोखाधड़ी से प्राप्त किया गया था और इसलिए अमान्य है।

अदालत ने कहा,

"उल्लेखनीय है कि "धोखाधड़ी सब कुछ उजागर कर देती है" का सिद्धांत केवल निचली अदालतों द्वारा दिए गए निर्णयों की जांच तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें इस न्यायालय के निर्णयों को उजागर करना भी शामिल हो सकता है, यदि हमारे सामने मामले का न्याय ऐसा मांगता है। इस फैसले के पूर्व भाग में हमने चर्चा की है कि रेड्डी ने अदालतों के साथ धोखाधड़ी करने में दंड से मुक्ति पाई। इसलिए इस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को दी गई उनकी चुनौती विफल होनी चाहिए।"

न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि उसके अपने अंतिम फैसले या आदेश के खिलाफ कोई अपील नहीं हो सकती।

इसके बजाय, इसने ए.वी. पपय्या शास्त्री बनाम आंध्र प्रदेश सरकार, (2007) में स्थापित मिसाल पर भरोसा किया, जहां यह माना गया:

“न्यायालय, न्यायाधिकरण या प्राधिकरण के साथ धोखाधड़ी करके प्राप्त किया गया कोई भी निर्णय, डिक्री या आदेश कानून की दृष्टि में अमान्य और अवास्तविक है। ऐसा निर्णय, डिक्री या आदेश - चाहे प्रथम न्यायालय द्वारा हो या अंतिम न्यायालय द्वारा - प्रत्येक न्यायालय, चाहे वह सुप्रीम कोर्ट हो या हाईकोर्ट, द्वारा अमान्य माना जाना चाहिए। इसे किसी भी न्यायालय में किसी भी समय अपील, पुनर्विचार, रिट या यहाँ तक कि संपार्श्विक कार्यवाही में भी चुनौती दी जा सकती है।”

यह मामला 1997 में विष्णु वर्धन, रेड्डी वीराना और टी. सुधाकर नामक तीन व्यक्तियों द्वारा संयुक्त रूप से की गई भूमि खरीद से उत्पन्न हुआ था। हालांकि, नोएडा द्वारा 2005 में भूमि अधिग्रहण के बाद विष्णु ने आरोप लगाया कि सह-स्वामी रेड्डी ने न्यायिक प्रक्रियाओं के माध्यम से धोखाधड़ी करके खुद को एकमात्र वास्तविक स्वामी घोषित कर दिया, जिससे विष्णु और सुधाकर को वितरित मुआवजे से वंचित कर दिया गया।

अपने कपटपूर्ण कार्यों के माध्यम से रेड्डी ने तथ्यों को भौतिक रूप से छिपाया और हाईकोर्ट के समक्ष गलत बयानी की, जिससे मामले के गुण-दोष प्रभावित हुए। इसके परिणामस्वरूप, उन्हें 2021 में हाईकोर्ट से अनुकूल आदेश प्राप्त हुआ, जिसे बाद में 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा।

रेड्डी के पक्ष में पारित विवादित निर्णय अपीलकर्ता-विष्णु को प्रभावित किए बिना दिए गए।

रेड्डी ने तर्क दिया कि विलय के सिद्धांत के अनुप्रयोग के कारण, जिसके तहत हाईकोर्ट का आदेश सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में विलीन हो जाता है, सुप्रीम कोर्ट के अपने निर्णय के विरुद्ध कोई दीवानी अपील नहीं की जा सकती। उन्होंने तर्क दिया कि एक बार मामले का अंतिम निर्णय हो जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती, खासकर तब जब न्यायालय के पास अपने निर्णय को चुनौती देने के लिए लेटर्स पेटेंट अपील (LPA) जैसी कोई शक्ति नहीं है या वह इसका प्रयोग नहीं करता।

रेड्डी की दलील को खारिज करते हुए जस्टिस दत्ता द्वारा लिखित फैसले में कहा गया कि न्यायालय का 2022 का फैसला अमान्य है, क्योंकि यह धोखाधड़ी से प्राप्त किया गया और हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील दायर करके इसे चुनौती दी जा सकती है। न्यायालय ने कहा कि धोखाधड़ी विलय के सिद्धांत का एक अपवाद है।

इसने रेड्डी की दलील को खारिज कर दिया और इस बात पर ज़ोर दिया कि मुकदमे में विष्णु जैसा कोई तीसरा पक्ष या अजनबी भी धोखाधड़ी से प्राप्त फैसले को चुनौती दे सकता है, बशर्ते वह प्रथम दृष्टया यह मामला प्रस्तुत करे कि वह परिणाम से प्रभावित था।

न्यायालय ने कहा कि विलय के सिद्धांत के संबंध में रेड्डी का तर्क कानूनी रूप से इस हद तक सही है कि एक बार जब सुप्रीम कोर्ट किसी हाईकोर्ट के आदेश की पुष्टि कर देता है तो हाईकोर्ट का आदेश हाईकोर्ट में विलीन हो जाता है, जिससे सुप्रीम कोर्ट का आदेश बाध्यकारी और लागू करने योग्य हो जाता है। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस सिद्धांत को कठोरता से लागू करने से उस व्यक्ति के प्रति अनुचित रूप से पूर्वाग्रह पैदा होगा, जिसे हाईकोर्ट के समक्ष पक्षकार नहीं बनाया गया था। यदि इस तरह के आदेश को बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुष्टि कर दी जाती है तो प्रभावित व्यक्ति हाईकोर्ट के समक्ष पुनर्विचार याचिका दायर करने का अवसर खो देता है तथा उसके पास केवल सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उपचारात्मक याचिका दायर करने का विकल्प बचता है, जो कि एक नियमित अपील की तुलना में काफी सीमित उपाय है।

न्यायालय ने टिप्पणी की,

"अब यदि हाईकोर्ट का आदेश किसी तीसरे पक्ष को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है या उस पक्ष को बाध्य करने का प्रभाव भी डालता है, लेकिन ऐसे पक्ष को जानबूझकर प्रतिवादियों की सूची में शामिल नहीं किया गया और वास्तव में यह साबित हो जाता है कि वह हाईकोर्ट या इस न्यायालय के समक्ष कार्यवाही से अनभिज्ञ था तो ऐसे प्रभावित पक्ष के पास इस न्यायालय की अनुमति से हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध अपील करने का उपाय उपलब्ध नहीं होगा, जब भी उसे इसकी जानकारी प्राप्त होगी, यदि रेड्डी की ओर से विलय के सिद्धांत के आधार पर उठाया गया तर्क स्वीकार कर लिया जाता है। इस प्रकार, प्रभावित पक्ष कुन्हयाम्मद (सुप्रा) के अनुसार हाईकोर्ट के समक्ष पुनर्विचार के लिए आवेदन करने से वंचित हो जाएगा, क्योंकि उसका आदेश इस न्यायालय के आदेश में विलय हो गया है। निस्संदेह, सुप्रीम कोर्ट नियम, 2013 के तहत इस न्यायालय के समक्ष पुनर्विचार के बाद उपचारात्मक याचिका के माध्यम से उपचार उपलब्ध कराया गया है, लेकिन यह अपील के उपचार जितना व्यापक नहीं है।"

यह देखते हुए कि अपीलकर्ता विष्णु को पिछली कार्यवाही में पक्षकार नहीं बनाया गया। उसने प्रथम दृष्टया यह मामला स्थापित कर दिया कि रेड्डी ने धोखाधड़ी करके हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों से अनुकूल आदेश प्राप्त किए, न्यायालय ने उसे हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध अपील दायर करने की अनुमति दी।

न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध पुनर्विचार या उपचारात्मक याचिका दायर करने में विष्णु के समक्ष आने वाली सीमाओं पर ध्यान दिया। न्यायालय ने आगे कहा कि चूंकि हाईकोर्ट का निर्णय गुण-दोष के आधार पर नहीं दिया गया। इसमें महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी की गई, इसलिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा बाद में की गई पुष्टि विलय के सिद्धांत के अनुप्रयोग को गति प्रदान नहीं करती, जिससे विष्णु को हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध अपील दायर करने की अनुमति मिल गई।

अदालत ने कहा,

"यदि कोई अजनबी, किसी निर्णय/आदेश से असंतुष्ट होकर प्रथम दृष्टया यह मान भी लेता है कि वह ऐसे निर्णय/आदेश से बंधा हुआ है। उससे व्यथित है या उस पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है तो अनुमति देने से इनकार करने का कोई कारण नहीं बनता। इस संबंध में हम जतन कुमार गोलचा बनाम गोलचा प्रॉपर्टीज़ (प्रा.) लिमिटेड और पंजाब राज्य बनाम अमर सिंह के निर्णयों का संदर्भ दे सकते हैं। इसी कारण से दो जजों की पीठ (जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस दीपांकर दत्ता) ने विष्णु को विवादित आदेश के विरुद्ध अपील करने की अनुमति दी।"

संक्षेप में मामला

अदालत ने कहा कि धोखाधड़ी विलय सहित सभी न्यायिक कृत्यों को दूषित करती है। यदि आवश्यक पक्षों को छोड़कर या तथ्यों को छिपाकर कोई निर्णय प्राप्त किया जाता है तो विलय का सिद्धांत उसे सुरक्षित नहीं रख सकता।

इस प्रकार, न्यायालय ने हाईकोर्ट के आदेश और रेड्डी वीराना (2022) में अपना पहले का फैसला रद्द कर दिया और सभी प्रभावित पक्षकारों (विष्णु और सुधाकर) को पक्षकार बनाते हुए मामले को हाईकोर्ट के समक्ष नए सिरे से निर्णय के लिए बहाल कर दिया।

Cause Title: VISHNU VARDHAN @ VISHNU PRADHAN VS. THE STATE OF UTTAR PRADESH & ORS. (& Connected Cases)

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