जिस व्यक्ति को मौद्रिक मुआवजा के लिए चुना गया हो, लेकिन उसे मिला न हो, निर्धन के रूप में अपील दायर कर सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने दिया जवाब

Update: 2024-05-30 06:46 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले (27 मई) में इस सवाल का जवाब दिया कि क्या कोई व्यक्ति, जिसे मौद्रिक मुआवजा दिया गया है, लेकिन उसे प्राप्त नहीं हुआ है, वह निर्धन के रूप में बढ़े हुए मुआवजे की मांग करते हुए अपील दायर नहीं कर सकता। निर्धन व्यक्ति वह होता है, जिसके पास कोर्ट फीस का भुगतान करने और दायर किए गए मुकदमे को आगे बढ़ाने के लिए वित्तीय साधन नहीं होते हैं।

जस्टिस जे.के. माहेश्वरी और जस्टिस संजय करोल की बेंच ने सीपीसी, 1908 के आदेश XXXIII (निर्धन व्यक्तियों द्वारा मुकदमा) और आदेश XLIV (निर्धन व्यक्तियों द्वारा अपील) का हवाला दिया और कहा कि ये प्रावधान "इस पोषित सिद्धांत का उदाहरण देते हैं कि मौद्रिक क्षमता की कमी किसी व्यक्ति को अपने अधिकारों की पुष्टि के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाने से नहीं रोकती है।"

इसके बाद बेंच ने यह भी देखा कि भले ही मूल दावेदार/अपीलकर्ता को धन दिया गया, लेकिन उसे कोई पैसा नहीं दिया गया। इस प्रकार, उसकी निर्धनता समाप्त नहीं हुई।

वर्तमान मामले का तथ्यात्मक सार यह है कि अपीलकर्ता दुर्घटना में घायल हो गई। उसके बाद उसने मुआवजे के लिए मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण का दरवाजा खटखटाया। यह तर्क देते हुए कि वह स्थायी रूप से विकलांग हो गई है, उसने 10 लाख रुपये का दावा दायर किया। हालांकि, न्यायाधिकरण ने उसे लगभग 2 लाख रुपये का मुआवजा दिया।

इससे व्यथित होकर उसने हाईकोर्ट में अपील दायर की। साथ ही निर्धन व्यक्ति के रूप में अपील दायर करने की अनुमति मांगी। हालांकि, न्यायालय ने यह देखते हुए कि दावेदार को उपरोक्त मुआवजा दिया जा चुका है, उस पर विचार करने से इनकार कर दिया। महत्वपूर्ण बात यह है कि साथ ही न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी स्वीकार किया कि उसे अभी तक कोई राशि नहीं मिली है। इस पृष्ठभूमि में मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आया।

न्यायालय ने यूनियन बैंक ऑफ इंडिया बनाम खादर इंटरनेशनल कंस्ट्रक्शन एवं अन्य (2001) 5 एससीसी 22 सहित कई उदाहरणों का हवाला दिया। इसमें यह उल्लेख किया गया कि यदि वादी के पक्ष में मुकदमा चलाया जाता है तो कोर्ट फीस की गणना इस प्रकार की जाएगी मानो वादी ने मूल रूप से निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर नहीं किया हो।

न्यायालय ने कहा,

"इसलिए कोर्ट फीस के विलंबित भुगतान का ही प्रावधान है और इस परोपकारी प्रावधान का उद्देश्य उन गरीब वादियों की सहायता करना है, जो अपनी गरीबी के कारण मुकदमा दायर करने के लिए अपेक्षित कोर्ट फीस का भुगतान करने में असमर्थ हैं।"

इससे संकेत लेते हुए पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट ने यह दर्ज करने के बाद भी कि उसे मुआवजा नहीं मिला, उपर्युक्त आवेदन खारिज करके गलत किया।

न्यायालय ने कहा,

"इसलिए भले ही उसे राशि प्रदान की गई, लेकिन इससे उसकी निर्धनता समाप्त नहीं हुई। किसी भी तरह से हमारे विचार से विविध आवेदन खारिज करके हाईकोर्ट गलत था।"

इसके अलावा, न्यायालय ने आदेश XLIV नियम 3(2) का भी हवाला दिया। हालांकि, न्यायालय ने पाया कि कोई जांच नहीं की गई, जबकि इसकी आवश्यकता थी, यह देखते हुए कि दावेदार ने शुरू में निर्धन व्यक्ति के रूप में न्यायाधिकरण से संपर्क नहीं किया था।

इस संबंध में न्यायालय ने कहा,

“दोनों ही मामलों में, एक उसे अभी तक पैसा नहीं मिला। इसलिए अपील दायर करने के समय वह यकीनन निर्धन थी; और दूसरा, सी.पी.सी. के तहत वैधानिक आवश्यकता, जैसा कि ऊपर वर्णित है, पूरी नहीं हुई थी - एकल न्यायाधीश का आदेश रद्द किया जाना चाहिए।”

हालांकि, मामला वापस हाईकोर्ट में भेजने के बजाय न्यायालय ने अपीलकर्ता को निर्धन व्यक्ति के रूप में अपील दायर करने की अनुमति दी। यह इस तथ्य के मद्देनजर था कि काफी समय बीत चुका है। न्यायालय ने हाईकोर्ट से छह महीने की अवधि के भीतर अपील का फैसला करने का भी अनुरोध किया।

केस टाइटल: अलिफिया हुसैनभाई केशरिया बनाम सिद्दीक इस्माइल सिंधी और अन्य,

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