क्या मेडिकल कॉलेज के विभागाध्यक्षों की नियुक्तियां NMC विनियमों द्वारा शासित होती हैं? सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल मेडिकल कमीशन से राय मांगी
मेडिकल कॉलेजों में विभागाध्यक्षों (HOD) की नियुक्ति के संबंध में कानून से संबंधित याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने मामले में नेशनल मेडिकल कमीशन (NMC) को आवश्यक पक्षकार के रूप में शामिल करने का आदेश दिया।
जस्टिस जेके माहेश्वरी और जस्टिस राजेश बिंदल की खंडपीठ कर्नाटक हाईकोर्ट के उस निर्णय के विरुद्ध याचिका पर विचार कर रही थी, जिसमें कहा गया कि विभागाध्यक्ष कोई प्रशासनिक पद नहीं है। प्रशासनिक पदों पर एनएमसी विनियमन द्वारा शासित नहीं है।
न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील पर ध्यान दिया कि इस मुद्दे का अखिल भारतीय प्रभाव हो सकता है।
न्यायालय ने कहा,
“तथ्यों में पक्षकारों के वकीलों ने प्रस्तुत किया कि NMC आवश्यक पक्षकार है, क्योंकि इस मुद्दे का अखिल भारत पर प्रभाव हो सकता है। 2. NMC को पक्षकार के रूप में शामिल किया जाए। प्रतीक भाटिया, सरकारी वकील, जो आमतौर पर NMC के लिए पेश होते हैं, का नाम वाद सूची में दर्शाया जाए। वे निर्देश मांग सकते हैं। सूचीबद्ध होने की अगली तिथि पर पेश हो सकते हैं।”
न्यायालय ने मामले की अगली सुनवाई 4 दिसंबर, 2024 को तय की।
याचिकाकर्ता कर्नाटक आयुर्विज्ञान संस्थान, हुबली (KIMS) में सीनियर प्रोफेसर है, जो क्रमशः फार्माकोलॉजी और जनरल सर्जरी विभागों में विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत थे। उन्हें इन पदों पर नेशनल मेडिकल कमीशन एक्ट, 2019 के तहत तैयार किए गए मेडिकल संस्थानों में शिक्षक पात्रता योग्यता विनियमन, 2022 के विनियमन 3.10 के अनुसार, पारस्परिक सीनियरिटी के आधार पर नियुक्त किया गया था।
विनियमन 3.10 में प्रावधान है कि सरकारी संस्थानों में प्रशासनिक पदों को ऊर्ध्वाधर वरिष्ठता के आधार पर भरा जाना चाहिए। KIMS ने 22 दिसंबर, 2023 को नए उपनियमों को अपनाया, जिसमें हर तीन साल में प्रोफेसरों के बीच विभागाध्यक्ष पदों को घुमाने के लिए एक खंड पेश किया गया। इस परिवर्तन के बाद याचिकाकर्ताओं को अपने विभागाध्यक्ष पदों को त्यागने का निर्देश दिया गया, जिसे उन्होंने वैधानिक विनियमों के विपरीत बताया।
याचिकाकर्ताओं ने शुरू में कर्नाटक हाईकोर्ट (धारवाड़ पीठ) के समक्ष रिट याचिकाएं दायर कीं, जिन्हें 23 फरवरी, 2024 को एकल न्यायाधीश ने अनुमति दी।
न्यायालय ने माना:
विभागाध्यक्ष का पद प्रशासनिक पद है, जिसके लिए विनियमन 3.10 के तहत वरिष्ठता-आधारित नियुक्तियों का पालन करना आवश्यक है।
KIMS द्वारा अपनाए गए उपनियम वैधानिक विनियमों को दरकिनार नहीं कर सकते।
हालांकि, कर्नाटक हाईकोर्ट की खंडपीठ ने 21 मार्च, 2024 को एकल न्यायाधीश के आदेश को खारिज कर दिया, यह निष्कर्ष निकालते हुए कि विभागाध्यक्ष का पद प्रशासनिक पद नहीं है। विनियमन 3.10 विभागाध्यक्ष की नियुक्तियों पर लागू नहीं होता है। अस्पताल ने तर्क दिया कि विचारों की विविधता, नए नवाचारों को बढ़ावा देने के लिए एक रोटेशन नीति अपनाई गई, जो एक ही विभाग के विभिन्न प्रोफेसरों के पास हो सकती है। हाईकोर्ट की खंडपीठ ने माना कि विभागाध्यक्ष की नियुक्ति विनियमन 3.9 (विभागाध्यक्ष के पद के लिए आवश्यक योग्यता) द्वारा शासित है। KIMS उपनियमों द्वारा शुरू की गई रोटेशन नीति बरकरार रखी। इसे सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुद्दे
याचिका में निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए:
1. क्या हाईकोर्ट ने विभागाध्यक्ष के पदों को गैर-प्रशासनिक के रूप में वर्गीकृत करने में गलती की।
2. क्या सीनियरिटी-आधारित नियुक्तियों को अनिवार्य करने वाला वैधानिक विनियमन 3.10, KIMS उप-नियमों पर वरीयता लेता है।
3. क्या नए उप-नियमों की पूर्वव्यापी प्रयोज्यता याचिकाकर्ताओं के कार्यकाल को प्रभावित करती है।
याचिकाकर्ताओं की दलीलें
याचिकाकर्ताओं ने दलील दी है कि विभागाध्यक्ष पूरे विभाग के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार है, जिसमें भर्ती, पाठ्यक्रम नियोजन, व्यावहारिक प्रशिक्षण, सेमिनार आयोजित करना, प्रवेश और बाह्य रोगी कार्य की निगरानी करना, दवाओं की खरीद, शिकायतों का समाधान करना और अन्य डॉक्टरों को कर्तव्य सौंपना जैसे प्रशासनिक कार्य शामिल हैं। ये कर्तव्य स्पष्ट रूप से शिक्षण से परे हैं और विभागाध्यक्ष की प्रशासनिक भूमिका को स्थापित करते हैं।
याचिका में कहा गया,
"यह कहना कि विभागाध्यक्ष कोई प्रशासनिक पद नहीं है, यह कहने के समान है कि भारत के माननीय चीफ जस्टिस प्रशासनिक क्षमता में कोई कार्य नहीं करते हैं। हाईकोर्ट ने विवादित निर्णय के पैरा 17 में कहा कि विभागाध्यक्ष को सौंपा गया कार्य मुख्य शिक्षण कार्य से संबंधित है। हाईकोर्ट के तर्क के अनुसार, इसका अर्थ यह होगा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश मुख्य रूप से न्यायिक कार्य करते हैं और यहां तक कि जजों की नियुक्ति भी प्रशासनिक क्षमता में किया जाने वाला कार्य नहीं है, बल्कि यह मुख्य न्यायिक कार्य से संबंधित है! किसी भी तरह से हाईकोर्ट द्वारा दी गई उक्त व्याख्या कानून के तहत किसी भी जांच का सामना नहीं कर सकती है।"
याचिका में कहा गया कि रोटेशन नीति वैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करती है। कुशल विभागीय प्रबंधन के लिए आवश्यक पदानुक्रम को कमजोर करती है।
याचिका में आगे कहा गया,
"यहां तक कि NMC विनियमों के मसौदे में भी विभागाध्यक्षों को रोटेशन पर नियुक्त करने का यही प्रावधान था, लेकिन हितधारकों से नकारात्मक प्रतिक्रिया और टिप्पणियों के कारण उक्त प्रावधान को हटा दिया गया।"
इसके अलावा, याचिका में कहा गया कि याचिकाकर्ताओं को उनके पदों से हटाने के लिए उपनियमों का पूर्वव्यापी आवेदन मनमाना और कानूनी रूप से अस्थिर है।
केस टाइटल- डॉ. आंचे नारायण राव दत्तात्री एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य।