'उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ' को समाप्त करना प्रथम दृष्टया मनमाना नहीं: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2025-09-15 07:15 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (15 सितंबर) को वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 के उस प्रावधान पर रोक लगाने से इनकार किया, जिसमें 'उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ' की अवधारणा को समाप्त कर दिया गया था।

"उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ" एक ऐसी अवधारणा है, जो किसी संपत्ति को औपचारिक समर्पण विलेख के माध्यम से नहीं, बल्कि धार्मिक या धार्मिक उद्देश्य के लिए संपत्ति के दीर्घकालिक, निरंतर सार्वजनिक उपयोग के माध्यम से वक्फ के रूप में मान्यता देती है।

2025 के संशोधन ने मूल वक्फ अधिनियम 1995 की धारा 3(r)(i) को हटा दिया, जिसमें "उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ" की अवधारणा को मान्यता दी गई। संशोधन को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि इस प्रावधान को हटाने से कई पुरानी वक्फ संपत्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जिनका कोई औपचारिक रजिस्ट्रेशन डीड नहीं है।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वक्फ अधिनियम, 1923 से ही वक्फों के रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता है। इसलिए यदि वक्फ 102 वर्षों से पंजीकृत नहीं हैं तो वे अब कोई शिकायत नहीं कर सकते।

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की खंडपीठ ने पारित निर्णय में कहा:

"इसलिए हमारा विचार है कि यदि मुतवल्ली 102 वर्षों की अवधि तक वक्फ का रजिस्ट्रेशन नहीं करा पाए, जैसा कि पहले के प्रावधानों के तहत आवश्यक था, तो वे यह दावा नहीं कर सकते कि रजिस्टर्ड न होने पर भी उन्हें वक्फ जारी रखने की अनुमति दी जाए।"

याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए इस तर्क के संबंध में कि कई पुराने वक्फों के पास अब कोई विलेख उपलब्ध नहीं होगा, न्यायालय ने कहा कि मूल वक्फ अधिनियम के तहत रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन दायर करने हेतु वक्फ डीड की प्रति अनिवार्य नहीं थी। यदि कोई मूल डीड उपलब्ध नहीं है तो आवेदक को वक्फ की उत्पत्ति, प्रकृति और उद्देश्यों के संबंध में, जहां तक उन्हें ज्ञात हो, पूर्ण विवरण देकर आवेदन किया जा सकता है।

अतः, हमारा विचार है कि यदि मुतवल्लियों ने 30 वर्षों तक रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन न करने का निर्णय लिया है तो उन्हें यह कहते हुए नहीं सुना जा सकता कि अब आवेदन के साथ वक्फ विलेख की एक प्रति संलग्न करने का प्रावधान मनमाना है। इसके अतिरिक्त, यदि वक्फ संपत्तियों के दुरुपयोग को देखते हुए विधानमंडल यह पाता है कि विवादित अधिनियम के अधिनियमित होने के बाद ऐसे सभी आवेदनों के साथ वक्फ डीड की एक प्रति संलग्न की जानी चाहिए तो इसे मनमाना नहीं कहा जा सकता।"

अदालत ने आगे कहा,

"यदि 2025 में विधानमंडल को यह पता चलता है कि "उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ" की अवधारणा के कारण बड़ी संख्या में सरकारी संपत्तियों पर अतिक्रमण किया गया और इस खतरे को रोकने के लिए वह उक्त प्रावधान को हटाने के लिए कदम उठाता है तो उक्त संशोधन को प्रथम दृष्टया मनमाना नहीं कहा जा सकता।"

उल्लेख किया गया कि आंध्र प्रदेश राज्य बनाम आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड मामले में राज्य वक्फ बोर्ड द्वारा सरकारी भूमि को वक्फ के रूप में अधिसूचित करने वाली अधिसूचना को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था।

चीफ जस्टिस गवई द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया,

"दुरुपयोग के ऐसे उदाहरणों को देखते हुए यदि विधायिका को लगता है कि "उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ" की अवधारणा को समाप्त किया जाना चाहिए, और वह भी भविष्य में तो हमारे विचार से इसे प्रथम दृष्टया मनमाना नहीं कहा जा सकता। किसी भी स्थिति में जैसा कि सॉलिसिटर जनरल ने प्रस्तुत किया, मूल वक्फ अधिनियम की धारा 3(आर) के खंड (i) का विलोपन उस तिथि से प्रभावी होगा, जिस दिन से विवादित अधिनियम प्रभावी हुआ है। इसलिए उक्त प्रावधान पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं होगा। इसलिए याचिकाकर्ताओं का यह तर्क कि वक्फ में निहित भूमि सरकार द्वारा हड़प ली जाएगी, प्रथम दृष्टया बेबुनियाद है।"

रजिस्ट्रेशन अधिदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं

अदालत ने मूल अधिनियम की धारा 36 में संशोधनों पर रोक लगाने से भी इनकार किया, जो प्रत्येक वक्फ के रजिस्ट्रेशन को अनिवार्य बनाता है। साथ ही यह निर्धारित करता है कि 2025 के संशोधन के लागू होने के बाद वक्फ डीड के निष्पादन के बिना कोई वक्फ नहीं बनाया जाएगा।

अदालत ने कहा,

"रजिस्ट्रेशन की अनिवार्यता 2025 में पहली बार नहीं आई। 1923 से ही वक्फ संपत्तियों से संबंधित सभी अधिनियमों में यह अनिवार्यता लगातार पाई जाती रही है।"

अदालत ने यह भी कहा कि रजिस्ट्रेशन के लिए छह महीने का पर्याप्त समय दिया गया।

संशोधित वक्फ अधिनियम की धारा 36 की उपधारा (10) में ही उक्त अधिनियम के लागू होने से 6 महीने की अवधि का प्रावधान है। अतः हमारा विचार है कि जो वक्फ रजिस्टर्ड नहीं हैं, उन्हें रजिस्ट्रेशन कराने के लिए पर्याप्त समय दिया गया।

इसके अलावा, संशोधित वक्फ अधिनियम की धारा 36 की उपधारा (10) के परंतुक में यह प्रावधान है कि यदि आवेदक पर्याप्त कारण बताता है तो उक्त उपधारा के तहत निर्दिष्ट 6 महीने की अवधि के बाद भी अदालत द्वारा ऐसे वाद आदि के माध्यम से आवेदन पर विचार किया जा सकता है। अतः हमारा प्रथम दृष्टया यह मत है कि ऐसे प्रावधान को मनमाना या भेदभावपूर्ण नहीं माना जा सकता।

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