तलाक की अर्जी खारिज करते हुए पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि साधारण वैवाहिक मतभेद, छोटी-मोटी नोकझोंक या रोज़मर्रा की तकरारें हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत "क्रूरता (Cruelty)" नहीं मानी जा सकतीं।
जस्टिस गुरविंदर सिंह गिल और जस्टिस दीपिंदर सिंह नलवा ने कहा, “धारा 13 के तहत क्रूरता वही मानी जाएगी, जो पीड़ित जीवनसाथी के मन में यह उचित आशंका पैदा करे कि साथ रहना उसके लिए हानिकारक या खतरनाक है। सामान्य झगड़े या छोटी-छोटी बातें क्रूरता के दायरे में नहीं आतीं। इस मामले में पति की ओर से ऐसा कोई आचरण साबित नहीं हुआ जिससे मानसिक या शारीरिक क्रूरता सिद्ध हो।”
जस्टिस नलवा ने आगे कहा कि धारा 23(1)(a) में यह प्रावधान है कि अधिनियम के तहत कोई भी राहत तभी दी जाएगी जब कोर्ट को यह विश्वास हो कि पत्नी या पति खुद अपने गलत आचरण या कमी का फायदा उठाकर राहत नहीं मांग रहा है। कोर्ट ने कहा कि इसका उद्देश्य केवल उन लोगों को राहत देना है जो ईमानदारी से कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाते हैं और जिन्होंने विवाह टूटने में स्वयं योगदान नहीं दिया हो।
बेंच उस पत्नी की अपील सुन रही थी, जिसने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसके तलाक के दावे को मानसिक और शारीरिक क्रूरता के आधार पर खारिज कर दिया गया था।
फैमिली कोर्ट ने साक्ष्यों को देखते हुए कहा था कि पति पर दहेज की मांग (कार आदि) के आरोप झूठे और गढ़े हुए हैं। चोट पहुँचाने के आरोप पर भी पत्नी ने अपनी जिरह में स्वीकार किया था कि उसे बचपन से आंखों में तिरछापन (squint) और बाईं आंख की कमजोरी थी। मेडिकल रिकॉर्ड से भी साबित हुआ कि पत्नी का इलाज एम्स, दिल्ली में पति ने ही करवाया था।
पत्नी ने यह भी आरोप लगाया था कि उसे बुरी तरह पीटा गया, जिससे नाक की हड्डी टूट गई और होंठों पर चोट आई तथा उसका इलाज सिविल हॉस्पिटल, पानीपत में हुआ, लेकिन वह इसका कोई चिकित्सीय सबूत पेश नहीं कर पाई।
दलीलें सुनने के बाद बेंच ने कहा,“यह स्थापित कानूनी सिद्धांत है कि किसी आचरण को क्रूरता सिद्ध करने के लिए आरोप लगाने वाले को यह स्पष्ट दिखाना होगा कि दूसरे पक्ष का बर्ताव ऐसा है कि साथ रहना अब संभव नहीं है।”
कोर्ट ने कहा कि जिन कृत्यों की शिकायत की गई है, वे इतने गंभीर होने चाहिए कि उनसे यह तर्कसंगत निष्कर्ष निकले कि पति-पत्नी के बीच सुलह असंभव है।
“क्रूरता शारीरिक भी हो सकती है और मानसिक भी। इसका कोई तय पैमाना नहीं है, बल्कि हर मामले को अलग-अलग तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर परखा जाता है।”
बेंच ने यह भी कहा कि धारा 23(1)(a) का उद्देश्य केवल उन्हीं लोगों को राहत देना है जो निष्कलंक होकर कोर्ट में आते हैं और विवाह टूटने में स्वयं ज़िम्मेदार नहीं हैं।
इस मामले में कोर्ट ने पाया कि पत्नी स्वयं निर्दोष नहीं है और रिकॉर्ड से यह स्पष्ट है कि उसने क्रूरता का कोई वास्तविक और सही मामला साबित नहीं किया।
कोर्ट ने कहा,“कोई भी पक्ष तलाक मांगते समय अपने ही गलत आचरण से लाभ नहीं उठा सकता।” और पत्नी की याचिका खारिज कर दी।