पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने डीवाई पाटिल यूनिवर्सिटी के खिलाफ MBBS एडमिशन धोखाधड़ी मामला रद्द किया

Update: 2025-12-24 11:33 GMT

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कथित MBBS एडमिशन के संबंध में धोखाधड़ी और आपराधिक विश्वासघात के आरोप वाली लगभग दो दशक पुरानी आपराधिक शिकायत रद्द की। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ताओं पर सिर्फ इसलिए आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि किसी तीसरे पक्ष ने कथित तौर पर उनके नाम और दस्तावेजों का गलत इस्तेमाल करके शिकायतकर्ता के साथ धोखाधड़ी की थी।

जस्टिस विनोद एस. भारद्वाज ने कहा,

"शिकायतकर्ता के साथ सचिन शाह द्वारा किए गए गलत बयानी के आधार पर पैसे की धोखाधड़ी की गई। यह गलत बयानी याचिकाकर्ता नंबर 1-यूनिवर्सिटी से संबंधित उसके द्वारा दिखाए गए दस्तावेजों के आधार पर की गई। हालांकि यह कोर्ट इस बात से वाकिफ है कि प्रतिवादी नंबर 2-शिकायतकर्ता को याचिकाकर्ता नंबर 1-यूनिवर्सिटी के नाम पर पैसे देकर वित्तीय नुकसान हुआ होगा, लेकिन यह नुकसान अपने आप में याचिकाकर्ताओं पर आपराधिक मुकदमा चलाने के लिए कानूनी रूप से टिकाऊ आधार नहीं बन सकता। सिर्फ पैसे का भुगतान, जिसके साथ याचिकाकर्ताओं की कथित प्रलोभन या धोखे के कृत्यों में शामिल होने या उनसे जुड़े होने का कोई सबूत न हो, उन्हें आपराधिक रूप से जिम्मेदार ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता।"

कोर्ट ने आगे कहा,

कानून में यह तय है कि किसी भी व्यक्ति पर आपराधिक अपराध के लिए मुकदमा चलाने के लिए उस अपराध को करने में उसकी सीधी भागीदारी का सबूत होना चाहिए। IPC की धारा 420 के तहत अपराध के आवश्यक तत्वों को तब तक लागू नहीं किया जा सकता, जब तक कि आरोपी द्वारा खुद किए गए धोखे का कोई स्पष्ट कार्य न हो। सचिन शाह द्वारा पेश किए गए जाली दस्तावेजों के आधार पर याचिकाकर्ता द्वारा बनाए गए इंप्रेशन याचिकाकर्ता पर ऐसी आपराधिक जिम्मेदारी डालने का कारण नहीं हो सकते।

यह मामला IPC की धारा 406, 420 और 120-B के तहत दर्ज शिकायत से संबंधित है, जो न्यायिक मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास, बटाला के समक्ष लंबित है।

शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि एक सचिन शाह ने खुद को यूनिवर्सिटी का अधिकृत प्रतिनिधि बताकर उसे मैनेजमेंट कोटे में अपनी भतीजी के लिए MBBS सीट दिलाने के लिए ₹7.75 लाख का भुगतान करने के लिए प्रेरित किया। यह पैसा यूनिवर्सिटी के नाम पर जारी किए गए डिमांड ड्राफ्ट के जरिए दिया गया और कथित तौर पर कैश भी करा लिया गया। शिकायतकर्ता ने आवंटन और पुष्टि पत्रों पर भी भरोसा किया। जब आखिरकार एडमिशन नहीं मिला और पैसे वापस नहीं किए गए तो न सिर्फ सचिन शाह बल्कि यूनिवर्सिटी और उसके ऑफिस वालों, जिसमें पूर्व गवर्नर भी शामिल थे, उनके खिलाफ क्रिमिनल कार्रवाई शुरू की गई।

पिछली कार्यवाही

मैजिस्ट्रेट ने शुरू में 2007 में याचिकाकर्ताओं को समन भेजा था। हाईकोर्ट ने 2012 में CrPC की धारा 202 का पालन न करने के कारण समन ऑर्डर रद्द कर दिया और मामला वापस भेज दिया।

30.09.2015 को एक नया समन ऑर्डर पास किया गया, जो CrPC की धारा 482 के तहत इस याचिका का विषय बना। इसके साथ ही शिकायतकर्ता ने उसी रकम की रिकवरी के लिए सिविल मुकदमा भी दायर किया।

सिविल कोर्ट ने पूरी सुनवाई के बाद साफ तौर पर कहा कि यूनिवर्सिटी/याचिकाकर्ताओं और सचिन शाह के बीच कोई प्रिंसिपल-एजेंट का रिश्ता नहीं है। शिकायतकर्ता यह साबित करने में नाकाम रहा कि उसने कभी याचिकाकर्ताओं से बात की थी या उनसे कोई आश्वासन मिला था। कथित अलॉटमेंट और कन्फर्मेशन लेटर जाली दस्तावेज़ थे, जो यूनिवर्सिटी द्वारा जारी नहीं किए गए।

कोर्ट ने कहा कि जिस बैंक अकाउंट में पैसे जमा किए गए, वह यूनिवर्सिटी के नाम का गलत इस्तेमाल करके जाली दस्तावेज़ों पर खोला गया था, जबकि मुकदमा सचिन शाह और एक अन्य आरोपी के खिलाफ तय किया गया, इसे मौजूदा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ खारिज कर दिया गया। 2017 में अपील में फैसले को बरकरार रखा गया और यह फाइनल हो गया।

याचिका स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि एक फाइनल सिविल फैसला, जो समान तथ्यों पर फाइनल हो चुका है, क्रिमिनल शिकायत में सिर्फ आरोपों से ज़्यादा अहमियत रखता है।

जस्टिस भारद्वाज ने राय दी कि एक बार जब यह न्यायिक रूप से तय हो गया कि कोई संबंध, जुड़ाव या एजेंसी का रिश्ता नहीं है तो आपराधिक ज़िम्मेदारी किसी और पर नहीं डाली जा सकती और किसी व्यक्ति पर सिर्फ़ इसलिए आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि कोई तीसरा पक्ष उसके नाम का गलत इस्तेमाल करके किसी को धोखा देता है।

बेंच ने कहा,

"सचिन शाह और याचिकाकर्ता के बीच एजेंट और प्रिंसिपल के रूप में शुरुआती रिश्ता स्थापित करना ज़रूरी था, इससे पहले कि याचिकाकर्ताओं को अपराध करने में शामिल माना जाए। अगर कोई धारणा बनी भी थी, तो वह एकतरफ़ा थी। एकतरफ़ा गलती के नतीजे सिर्फ़ उसी व्यक्ति को भुगतने पड़ते हैं, जो ऐसी धारणा रखता है। ऐसी एकतरफ़ा गलतियों के नतीजे उस व्यक्ति पर नहीं पड़ सकते जिसके बारे में ऐसी धारणाएं बनाई गईं।"

कोर्ट ने कहा कि मजिस्ट्रेट सिविल कोर्ट के बाध्यकारी निष्कर्षों पर विचार करने में विफल रहे और उन्होंने बिना सोचे-समझे समन जारी कर दिया। शिकायत को सीधे तौर पर स्वीकार करने पर भी, लगाए गए आरोप सिर्फ़ शक पैदा करते हैं, कानूनी रूप से मान्य सबूत नहीं।

सुप्रीम कोर्ट के फैसलों, जिनमें दिल्ली रेस क्लब, जेएम लैबोरेटरीज, महमूद अली और बी.एस. जोशी शामिल हैं, पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने दोहराया कि आरोपी को समन करना गंभीर मामला है और आपराधिक कानून को बिना सोचे-समझे लागू नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने रिवीजन के वैकल्पिक उपाय की उपलब्धता के संबंध में आपत्ति को भी यह मानते हए खारिज कर दिया कि CrPC की धारा 482 की शक्तियां स्वाभाविक हैं और प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए इनका इस्तेमाल किया जा सकता है।

बेंच ने कहा,

"इस याचिका को दायर किए हुए 10 साल बीत चुके हैं। प्रतिवादी द्वारा उठाई गई आपत्ति, ज़्यादा से ज़्यादा, शुरुआती प्रकृति की है। इस कोर्ट के सामने लगभग एक दशक तक मामला लंबित रहना अपने आप में सेशंस कोर्ट के सामने रिवीजन के माध्यम से एक वैकल्पिक प्रभावी उपाय की उपलब्धता के बारे में इस तरह की तकनीकी दलील को नज़रअंदाज़ करने के लिए पर्याप्त है।"

उपरोक्त के आलोक में कोर्ट ने याचिका स्वीकार की और आपराधिक शिकायत रद्द कर दी।

TITLE: D.Y PATIL VIDYAPEETH AND OTHERS V. STATE OF PUNJAB AND ANOTHER

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