डिजिटल अर्थव्यवस्था जन-विश्वास पर आधारित, साइबर धोखाधड़ी के अपराध केवल समझौते के आधार पर रद्द नहीं किए जा सकते: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि साइबर धोखाधड़ी जन-विश्वास और डिजिटल अर्थव्यवस्था के विरुद्ध एक प्रणालीगत अपराध है। इसलिए ऐसे मामलों को केवल शिकायतकर्ता और अभियुक्त के बीच समझौते या सुलह के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता।
जस्टिस सुमीत गोयल ने कहा,
"साइबर धोखाधड़ी का समकालीन अपराध एक विशिष्ट उल्लंघन प्रस्तुत करता है, जो केवल शिकायतकर्ता/पीड़ित और अभियुक्त के बीच हुए समझौते/सुलह के आधार पर आपराधिक कार्यवाही रद्द करने के न्यायिक अधिकार क्षेत्र से इसे स्पष्ट रूप से बाहर रखता है। डिजिटल अर्थव्यवस्था आधुनिक वाणिज्य का अजेय केंद्र है, जो पूरी तरह से जन-विश्वास की नींव पर टिका है।"
साइबर धोखाधड़ी एकनाशकारी विद्रोह के रूप में कार्य करती है, जो न केवल एक अलग-थलग आर्थिक नुकसान पहुंचाती है, बल्कि सार्वजनिक वित्तीय खजाने को एक गंभीर प्रणालीगत क्षति पहुंचाती है, जिससे गहरा अपूरणीय नुकसान होता है। जज ने आगे कहा कि गुमनामी, सीमा पार विस्तार और भारी प्रतिकूल प्रभाव डालने की प्रवृत्ति के कारण अदालत निजी समझौते से आगे देखने के लिए बाध्य है, कहीं ऐसा न हो कि यह किसी चल रहे प्रणालीगत खतरे को न्यायिक स्वीकृति प्रदान करने के समान हो।
अदालत ने आगे कहा,
"जब ऐसा अपराधी केवल कार्योत्तर क्षतिपूर्ति की पेशकश करके अभियोजन से बच जाता है तो दंडात्मक उपाय स्वतः ही लाभ और जोखिम के मात्र गणित में परिवर्तित हो जाता है। ऐसे संगठित अपराध का अपराधी समझौते/समझौते को एक पूर्वानुमानित व्यय के रूप में देखने का दुस्साहस करता है, जिससे कानून में एक हानिकारक कमी पैदा होती है। आपराधिक न्याय प्रणाली की पवित्रता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।"
ये टिप्पणियां BNSS की धारा 528 के तहत दायर याचिका खारिज करते हुए की गईं, जिसमें हरियाणा के सोनीपत स्थित साइबर पुलिस स्टेशन में BNS की धारा 318(4), 336(3), 338, 340, 61 के तहत दर्ज FIR इस आधार पर रद्द करने की मांग की गई कि मामला दोनों पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया गया।
एक निजी संस्थान में अकाउंटेंट दिव्या द्वारा दर्ज कराई गई FIR में आरोप लगाया गया कि उसकी सहमति के बिना उसके HDFC Bank खाते से ₹14.83 लाख के अनधिकृत ऑनलाइन लेनदेन किए गए। शिकायतकर्ता को अपने नेट बैंकिंग खाते में लॉग इन करने पर धोखाधड़ी से हुई निकासी का पता चला और उसने साइबर अपराध की शिकायत दर्ज कराई, जिसके बाद FIR दर्ज की गई।
याचिकाकर्ताओं ने एक समझौता विलेख के आधार पर FIR रद्द करने की मांग की, जिसमें दावा किया गया कि मामला सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया गया। शिकायतकर्ता ने एक हलफनामा भी दायर किया, जिसमें कहा गया कि उसे FIR रद्द करने पर कोई आपत्ति नहीं है।
हालांकि, राज्य ने इस दलील का विरोध करते हुए कहा कि साइबर धोखाधड़ी के मामले न केवल शिकायतकर्ता को प्रभावित करते हैं, बल्कि डिजिटल वित्तीय प्रणाली में जनता के विश्वास को भी कमज़ोर करते हैं और इन्हें केवल निजी विवाद नहीं माना जा सकता।
बयानों पर सुनवाई के बाद न्यायालय ने BNSS की धारा 528 (CrPC की धारा 482 के अनुरूप) के तहत हाईकोर्ट की अंतर्निहित शक्तियों के दायरे की विस्तृत जांच की और दोहराया कि ऐसी शक्तियों का प्रयोग संयम से और केवल न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिए किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि साइबर धोखाधड़ी एक "संक्षारक विद्रोह" है, जो न केवल एकांतिक आर्थिक नुकसान पहुंचाता है, बल्कि सार्वजनिक वित्तीय खजाने को एक गंभीर प्रणालीगत क्षति पहुंचाता है, जिससे गहरा क्षतिपूर्ति नुकसान होता है। फैसले में कहा गया कि अपराधियों को बाद में मुआवज़ा देकर अभियोजन से बचने की अनुमति देना सज़ा को "लाभ और जोखिम के गणित" में बदल देगा, जिससे अपराधियों का हौसला बढ़ेगा और न्याय प्रणाली की अखंडता कमज़ोर होगी।
कोर्ट ने कहा,
"जब ऐसा अपराधी केवल कार्योत्तर क्षतिपूर्ति की पेशकश करके अभियोजन से बच निकलता है तो दंडात्मक उपाय स्वतः ही लाभ और जोखिम के मात्र गणित में परिवर्तित हो जाता है। ऐसे संगठित अपराध का अपराधी समझौते/समझौते को एक पूर्वानुमानित व्यय मानने का दुस्साहस करता है, जिससे कानून में एक हानिकारक कमी पैदा होती है और आपराधिक न्याय प्रणाली की पवित्रता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।"
हालांकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में जहां साइबर धोखाधड़ी के आरोपों को किसी निजी आर्थिक विवाद को तूल देने के लिए कृत्रिम रूप से आरोपित किया जाता है, हाईकोर्ट न्याय के हित में समझौते की अनुमति देने का विवेकाधिकार रखता है।
वर्तमान मामले के तथ्यों को देखते हुए कोर्ट ने पाया कि FIR "केवल साइबर धोखाधड़ी" का मामला है, न कि पक्षों के बीच कोई निजी आर्थिक विवाद। तदनुसार, समझौते के आधार पर FIR रद्द करने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी गई।
Title: Badri Mandal & others v. State of Haryana and another