वेतन निर्धारण में प्रशासनिक गलती के कारण रिटायरमेंट के बाद ब्याज सहित वसूली नहीं हो सकती: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट
जस्टिस सुश्रुत अरविंद धर्माधिकारी की एकल पीठ ने रिटायर सूबेदार से ब्याज सहित अतिरिक्त भुगतान की मांग करने वाले वसूली आदेश रद्द किया।
न्यायालय ने माना कि रिटायर सरकारी कर्मचारियों से अतिरिक्त भुगतान की वसूली खासकर जब कोई गलत बयानी या धोखाधड़ी न हो, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के नियम 9(4) सिविल सेवा पेंशन नियम 1976 के तहत रिटायरमेंट के चार साल बाद अस्वीकार्य है।
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि मूल राशि की पुनर्गणना की जा सकती है लेकिन प्रशासनिक गलतियों के कारण किए गए अतिरिक्त भुगतान पर ब्याज लगाना खासकर कम आय वाले रिटायर लोगों के लिए कठोर और अनुचित है
मामले की पृष्ठभूमि
पार्वती वर्मा को शुरू में 19 मई 1981 को मध्य प्रदेश के गृह विभाग में नियुक्त किया गया। वह 31 मई 2016 को सूबेदार (मंत्रिस्तरीय संवर्ग) के पद से रिटायर हुईं। उनकी रिटायरमेंट पर उनकी पेंशन की गणना की गई और वेतनमान को आदेश के तहत संशोधित किया गया, जिसने उनके कर्तव्यों में समानता के कारण कार्यकारी और मंत्रिस्तरीय कर्मचारियों दोनों को समान वेतनमान दिया। वहीं जनवरी 2022 में, 8वीं बटालियन, SAF छिंदवाड़ा के कमांडेंट ने उनसे 29,66,982 रुपये वसूलने का आदेश जारी किया, जिसमें 13,01,635 अतिरिक्त वेतन के रूप में और 16,65,347 रूपए ब्याज के रूप में शामिल थे।
वर्मा ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत इस वसूली आदेश को चुनौती दी, जिसमें कहा गया कि यह मप्र सिविल सेवा पेंशन नियम, 1976 के नियम 9(4) का उल्लंघन करता है। उन्होंने दावा किया कि राज्य के पास उनकी रिटायरमेंट के चार साल बाद राशि वसूलने का कोई अधिकार नहीं है। वसूली आदेश जारी करने से पहले उन्हें सुनवाई का मौका नहीं दिया गया।
इसके अलावा उन्होंने तर्क दिया कि वेतनमान को अधिकारियों द्वारा बिना किसी गलत बयानी या धोखाधड़ी के संशोधित किया गया था।
तर्क
वर्मा ने तर्क दिया कि वसूली आदेश ने मध्य प्रदेश सिविल सेवा पेंशन नियम, 1976 के नियम 9(4) का उल्लंघन किया। यह प्रावधान रिटायरमेंट के चार वर्ष से अधिक की वसूली को प्रतिबंधित करता है, जब तक कि राज्यपाल द्वारा अधिकृत न किया जाए, जो कि यहां मामला नहीं था। वकील ने जोर देकर कहा कि वसूली बिना किसी नोटिस या सुनवाई के अवसर के शुरू की गई, जिससे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ।
आगे यह तर्क दिया गया कि कर्तव्यों में समानता के कारण वेतन संशोधन कार्यकारी और मंत्रिस्तरीय दोनों संवर्गों तक बढ़ा दिया गया> वर्मा के साथ अलग-अलग व्यवहार करना भेदभाव के बराबर है। इसके अतिरिक्त वकील ने पिछले निर्णयों का संदर्भ दिया, जिसमें कहा गया कि जब कर्मचारी की ओर से कोई धोखाधड़ी या गलत बयानी नहीं हुई तो अतिरिक्त भुगतान की वसूली नहीं की जा सकती।
प्रवीण नामदेव द्वारा प्रस्तुत मध्य प्रदेश राज्य ने यह तर्क देकर वसूली का बचाव किया कि वर्मा का वेतन 3,050- 4,590 रुपए के बजाय गलत तरीके से 4,000- 6,000 रुपए निर्धारित किया गया। इस गलत गणना के कारण अधिक भुगतान हुआ। संयुक्त निदेशक, कोषागार एवं लेखा ने उनके वेतन की समीक्षा की और अधिक भुगतान की पहचान की जिसने वसूली को उचित ठहराया।
राज्य ने तर्क दिया कि वित्तीय मामलों में यदि कोई स्पष्ट गलती पाई जाती है तो कारण बताओ नोटिस की आवश्यकता नहीं होती। वसूली की जा सकती है। इसके अलावा, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट बनाम जगदेव सिंह जैसे मामलों में जहां कर्मचारियों ने वेतन निर्धारण के समय वचन दिया था वसूली को वैध माना गया।
न्यायालय का तर्क
सबसे पहले न्यायालय ने पाया कि इस मामले में वर्मा द्वारा कोई कदाचार या गलत बयानी नहीं की गई, जो अन्य मामलों से एक महत्वपूर्ण अंतर था, जहां वसूली की अनुमति दी गई। अतिरिक्त भुगतान वेतन निर्धारण में प्रशासनिक गलतियों के कारण हुआ, न कि याचिकाकर्ता द्वारा किसी धोखाधड़ीपूर्ण कार्रवाई के कारण।
न्यायालय ने उल्लेख किया कि पंजाब राज्य बनाम रफीक मसीह 2015 एआईआर SCW 401 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से उन परिस्थितियों को निर्धारित किया, जिनके तहत वसूली नहीं की जा सकती थी। खासकर कम आय वाले सेवानिवृत्त लोगों या गलत बयानी के बिना।
न्यायालय ने निर्धारित किया कि राज्य की कार्रवाई ने इन सिद्धांतों का उल्लंघन किया।
दूसरे न्यायालय ने ब्याज घटक को संबोधित किया।
मध्य प्रदेश राज्य और अन्य बनाम राजेंद्र भावसार पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने माना कि मूल राशि वसूली योग्य हो सकती है लेकिन अतिरिक्त भुगतान पर ब्याज लगाना कठोर और अनुचित था। ब्याज घटक केवल याचिकाकर्ता के बोझ को बढ़ाएगा खासकर जब उसकी ओर से कोई गलती नहीं थी।
तीसरा, न्यायालय ने राज्य के इस तर्क को खारिज कर दिया कि नियम 9(4) लागू नहीं होता। इसने फैसला सुनाया कि यह प्रावधान वर्तमान मामले के लिए प्रासंगिक है। राज्यपाल द्वारा विशिष्ट प्राधिकार दिए जाने तक रिटायरमेंट के चार वर्ष बाद ऐसी वसूली कार्रवाई पर रोक लगाता है।
राज्य इस प्रक्रिया का पालन करने में विफल रहा, जिससे वसूली आदेश और भी अधिक अमान्य हो गया।
अंत में न्यायालय ने पाया कि वर्मा ने अपने वेतन निर्धारण के समय वचन दिया, लेकिन यह ब्याज वसूली तक विस्तारित नहीं था। राज्य के दावों को सही ठहराने के लिए कोई गलत बयानी साबित नहीं हुई। इस प्रकार, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि केवल मूल राशि की पुनर्गणना की जा सकती है। ब्याज की वसूली की अनुमति नहीं दी जाएगी।
इस प्रकार न्यायालय ने पार्वती वर्मा के खिलाफ वसूली आदेश रद्द कर दिया।