Partnership Act के अनुसार पार्टनर कौन है?

Update: 2025-09-17 04:30 GMT

भारतीय भागीदारी अधिनियम 1932 इस संबंध में उल्लेख कर रहा है कि भागीदारी क्या होती है तथा भागीदारी किस प्रकार संचालित की जाती है। इस अधिनियम के अंतर्गत किसी कारोबार में व्यक्तियों का कोई दल या व्यक्ति भागीदार है या नहीं यहां भी उल्लेखित किया गया। अधिनियम की धारा 6 उल्लेखित करती है कि यह अवधारणा करने के लिए की व्यक्तियों का कोई समूह फर्म है या नहीं या कोई व्यक्ति फर्म का भागीदार है या नहीं पक्षकारों के बीच वास्तविक संबंध को ध्यान में रखा जाएगा जो शख्स व्यक्तियों को एक साथ लेने में दर्शित होता है।

भारतीय साझेदारी अधिनियम की धारा 4 में दी गई भागीदारी की परिभाषा के तत्व अनुबंध कारोबार लाभों में अंश पाना और पारस्परिक अभिकरण इन सबके होने के बाद ही कोई व्यक्ति किसी साझेदारी में साझेदार हो पाता है।

उपरोक्त तत्व किसी भी साझेदारी को परिभाषित करने के लिए पर्याप्त हैं परंतु धारा 6 के स्पष्टीकरण से यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि लाभों के अंश प्राप्त करने का तत्व किसी भी भागीदारी की अवधारणा में निश्चित नहीं होता अर्थात कुछ परिस्थितियां ऐसी भी हो सकती हैं जब व्यक्ति लाभ का अंश तो प्राप्त करता है परंतु वह भागीदार नहीं होता है। फॉक्स बनाम हिकमैन 1807 एचसीसी 268 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया है कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य साझेदारी का संबंध निर्धारित करने के लिए पक्षों के मध्य वास्तविक संबंधों को देखा जाना चाहिए।

किसी भी व्यापार का उद्देश्य लाभ प्राप्त करना होता है सभी व्यापारिक गतिविधियां लाभांश प्राप्त करने के उद्देश्य से संचालित की जा रही है। कोई भी व्यापार,उद्योग, वाणिज्य, पेशा लगभग लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से संचालित किया जाता है। भागीदारी का यह सर्वाधिक आवश्यक तत्व है कि भागीदारी द्वारा लाभों में अंश प्राप्त किया जाना चाहिए। व्यापार वाणिज्य से जो भी लाभ प्राप्त हो रहा है उस लाभ में भागीदारों का कोई न कोई अंश होना चाहिए। व्यापार को प्राप्त होने वाले लाभ में जब भागीदार कोई अंश प्राप्त करते हैं तो इसे लाभ का संयोजन कहा जाता है। लाभ को आपस में बांटना कहा जाता है।

भागीदारी अधिनियम के अंतर्गत यह उल्लेखित नहीं किया गया है कि लाभ कितने कितने हिस्से में लिया जाएगा, लाभ लेने का अनुपात क्या होगा परंतु यह जरूर उल्लेख किया गया है कि लाभांश प्राप्त किया जाएगा। भागीदार उसको किसी भी अनुपात में और किसी भी समय प्राप्त कर सकते हैं। पूर्व के समय में इस आवश्यक तत्व को इतना अधिक महत्व दिया जाता था कि किसी कारोबार चलाने के संबंध में दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य लाभों के अंश को आपस में विभाजित करना होने पर भागीदारी को निर्णायक मान लिया जाता था परंतु आज परिवर्तन हुआ है और कहा जाता है कि मात्र लाभों में भाग लेना या प्राप्त करने के अधिकार से ही किसी व्यक्ति को भागीदार नहीं माना जा सकता।

पारस्परिक अभिकर्ता

साझेदारी अधिनियम के अंतर्गत किसी भी भागीदारी के अंतर्गत एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण या तत्व साझेदारों का आपस में अभिकर्ता होना है। भागीदारी के अस्तित्व में लाने के लिए साझेदारों का आपस में अभिकर्ता होना आवश्यक है। साझेदारी के अंतर्गत सभी भागीदार एक दूसरे के प्रति अभिकर्ता होते हैं।

कारोबार के साधारण प्रयोजन के लिए प्रत्येक भागीदार अन्य भागीदारों का अभिकर्ता होता है। यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति करार करते हैं कि वह कारोबार करेंगे तथा लाभ प्राप्त करेंगे तो प्रत्येक मालिक होता है प्रत्येक दूसरे का एजेंट होता है तथा अन्य द्वारा कारोबार चलाने हेतु की गई संविदा में उसी भांति होता है जैसे एक मालिक किसी एजेंट के कृत्य से होता है जो पूर्ण लाभ अपने मालिक को देता है।

प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार एआईआर 1985 एसी 628 के प्रकरण में कहा गया है कि पत्नी तथा पति के मध्य संबंधों में भागीदारी की संकल्पना स्त्री धन के नियुक्त होने के लिए नहीं की जा सकती है। जब तक की पत्नी के द्वारा किसी स्पष्ट विधिक कार्य से अनिवार्यता यह इंगित न किया गया हो की पत्नी को सुपुर्द किया गया स्त्रीधन किसी भागीदारी व्यापार के लिए प्रयुक्त किया जाना है।

यह किसी व्यापार, वाणिज्य, पेशा को भागीदारी के अंतर्गत संचालित करने के आवश्यक तत्व है। कोई भी व्यापार, वाणिज्य या कारोबार में जब यह तत्व पाए जाते हैं तब साझेदारी व्यापार, वाणिज्य, कारोबार हो जाता है तथा भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 के अंतर्गत दिए गए प्रावधानों से इस प्रकार के व्यापार वाणिज्य पेशे को नियंत्रित करते हैं।

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