एक सिविल केस केस में बहुत सारे स्टेज होते हैं। कोई भी मुकदमा अलग अलग स्टेज से होकर गुजरता है तब किसी केस में फाइनल जजमेंट आता है। इसलिए भी सिविल केस काफी लंबे समय तक चल जाते हैं। इंडियन लॉ में सिविल केस के लिए सिविल प्रोसीजर कोड 1908 लागू है जो किसी भी सिविल केस से रिलेटेड सभी रेगुलेशन क्लियर करती है।
प्लेंट और केस की पार्टीज (ऑर्डर 1)
सीपीसी में केस की शुरुआत प्लेंट से होती है। एक वाद,वाद के पक्षकार से प्रारंभ होता है। किसी भी वाद में दो से अधिक पक्षकार हो सकते हैं। कोई भी वाद एक पक्षीय नहीं होता है। ऐसा ना हो कि कोई पक्ष न्याय से वंचित रह जाए अथवा निर्दोष व्यक्ति अनावश्यक ही अन्याय का अधिकारी हो जाए। वाद संस्थित करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि वाद में वादी प्रतिवादी के रूप में उन सभी व्यक्तियों को सम्मानित कर दिया जाए जो न्याय के लिए आवश्यक है। यह दूसरी तरफ उन व्यक्तियों को वाद में सम्मिलित कर आवश्यक रूप से परेशान नहीं किया जाए जिनको सम्मिलित किया जाना आवश्यक नहीं है।
वाद पत्र में सबसे पहले वादियों का उल्लेख किया जाता है। वाद में मुख्यतः दो पक्षकार होते हैं वादी एवं प्रतिवादी। वादी वह होता है जो वादपत्र प्रस्तुत कर न्यायालय से अनुतोष की मांग करता है। प्रतिवादी वह है जो वादपत्र का अपने लिखित कथन द्वारा उत्तर देकर प्रतिरक्षा प्रस्तुत करता है। पक्षकारों का चयन सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए तथा जो आवश्यक पक्षकार है उन्हें वाद पत्र में नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
सूट की रचना (ऑर्डर 2)
सिविल केस में वाद की रचना महत्वपूर्ण होती है। इसका उल्लेख आदेश 2 में मिलता है। जहां वाद का संयोजन एवं कुसंयोजन बताया गया है। यह कहा गया है कि किसी भी हेतु के लिए एक समय में वाद लगा लेना चाहिए तथा बार-बार वाद लगाने से बचना चाहिए। यह आदेश यह स्पष्ट करना चाहता है कि किसी वाद में वाद का संयोजन करना चाहिए।
सभी हेतु उस एक ही वाद में आ जाए तथा अलग-अलग हेतु के लिए अलग-अलग वाद लगाने की समस्या से बचा जा सके। वाद की बहुलता से बचा जा सकें,न्यायालय वाद की बाहुल्यता से बच सकें,राज्य के ऊपर अधिक मुकदमे होंगे अधिक समय मुकदमे में देना होगा। जनता को सरल न्याय नहीं मिल पाएगा इसलिए इस आदेश के अंतर्गत बताए गए नियमों में वाद की बाहुल्यता को रोकने के प्रयास किए गए है। वाद का संयोजन इस प्रकार करने को कहा गया है कि वाद के सारे प्रमुख कारण इस एक ही वाद में आ जाए।
प्लेंट (ऑर्डर 7)
प्लेंट वादी द्वारा कोर्ट में पेश किया गया एक पत्र होता है,जिसमें वह उन तथ्यों का अभिकथन करता है जिसके आधार पर कि वह न्यायालय से अनुतोष की मांग करता है।
न्यायालय की प्रत्येक न्यायिक प्रक्रिया का आरंभ वादपत्र के दायर किए जाने से होता है। इस वादपत्र में वादी अपना अभिकथन करता है तथा न्यायालय से इन्हीं बिंदुओं पर अनुतोष मांगता है।
प्लीडिंग्स (ऑर्डर 6)
जब वादी द्वारा कोई वाद पत्र प्रस्तुत किया जाता है तथा अनुतोष मांगा जाता है तो प्रतिवादी द्वारा अपना लिखित अभिवचन पेश किया जाता है,जिसे अभिवचन कहते है। यह प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 6 में डाला गया है।
अभिवचन ऐसे कथन होते हैं जो किसी मामले में पक्षकार द्वारा लिखे हो तैयार किए जाते है, इसमें उन सब बातों का उल्लेख देता है जिनके आधार पर वाद निर्मित किया जाएगा तथा प्रतिवादी अपना लिखित कथन प्रस्तुत करेगा।
अभिवचन शब्द वादपत्र एवं प्रतिवादी के लिखित कथन दोनों को शामिल किया गया है।
लिखित कथन प्रतिवादी का अभिवचन होता है जिसमें वह वादी के कथनों का उत्तर देता है। आमतौर पर वह अपने लिखित कथन में तो वादों के तथ्यों को अस्वीकार करता है या फिर स्वीकार करता है, यह कभी-कभी विशेष कथन प्रस्तुत कर अपनी प्रतिरक्षा करता है। जिन तथ्यों को अस्वीकार करता है वह विवाधक तथ्य बन जाते है।
वाद का पेश किया जाना-
वाद को किस अदालत में पेश करना है, किसी भी न्यायिक कार्यवाही का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है। जब वाद रचना हो जाती है,वाद पत्र तैयार कर लिया जाता है तो वाद किस न्यायालय में पेश किया जाएगा यह तय करना सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत धारा 15 से लेकर 20 तक बताया गया है। वाद को पेश करने के लिए सर्वप्रथम तो यह नियम है कि कोई भी वाद सबसे निम्न स्तर की अदालत में विचारण के लिए पेश किया जाएगा। विचारण की प्रक्रिया से ऊपरी अदालतों के भार को कम करने हेतु इस प्रकार का नियम रखा गया है। वाद को पेश करने के लिए इन धाराओं के अंतर्गत मूल्य के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर, कुछ अन्य आधार भी संहिता के अंतर्गत बताए गए है।
वाद का संस्थित होना-
सिविल प्रकिया संहिता की धारा 26 आदेश 4 के अंतर्गत वाद के संस्थित होने के संदर्भ में बताया गया है। जब क्षेत्राधिकार रखने वाले न्यायालय में पेश किया जाता है तो वह या तो वाद को खारिज कर देती है या वाद को संस्थित कर लेती है और वाद का नम्बर अपने रजिस्टर में अंकित कर वाद क्रमांक पेश कर दिया जाता है। वाद संस्थित हो गया इसका अर्थ है न्यायालय वाद में आगे की कार्यवाही करेगा।
समन-
धारा 27 आदेश 5 के अंतर्गत प्रतिवादी को समन किए जाते है। समन न्यायिक प्रक्रिया की महत्वपूर्ण कड़ी है,जब न्यायालय किसी मामले को सुनने के लिए आश्वस्त हो जाता है तो वह मामले में बनाए गए प्रतिवादियो को समन जारी करता है।
धारा 27 में समन का उल्लेख किया गया है। आदेश 5 में इस समन की तामील के संबंध में उल्लेख किया गया है।
मामले के संस्थित होने के बाद सबसे पहली कार्यवाही समन की होती है। जिस न्यायालय में मामला संस्थित किया जाता है उस न्यायालय द्वारा सर्वप्रथम समन निकाला जाता है। यह समन सब प्रतिवादियों को होता है।
उपस्थिति व अनुपस्थिति के प्रभाव (ऑर्डर 19)
इस आदेश के माध्यम से यह जाना जाता है कि यदि समन हो जाने के बाद समन पर बुलाया गया प्रतिवादी उपस्थित नहीं होता है तो क्या कार्यवाही होगी,प्रतिवादी उपस्थित होता है तब क्या कार्यवाही होगी। उपस्थित होने पर कार्यवाही आगे बढ़ायी जाती है और अनुपस्थिति में समन की तामील की प्रक्रिया में परिवर्तन इत्यादि किया जाता है अंत में एकपक्षीय भी किया जा सकता है।
डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स-
आदेश 11 में तथ्य को जाना जाता है तथा विवाधक तथ्यों को पहचान कर उन्हें इंगित किया जाता है। जब डिस्कवरी ऑफ फैक्ट होता है तब किसी विवाद में न्यायिक कार्यवाही ठीक अर्थों में आरंभ होता है। यहाँ से विवाधक तथ्यों को साबित नासाबित किये जाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। विचारण भी यहीं से आरंभ होता है।
डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स के अंतर्गत सभी तथ्यों को प्रकट करना होता है जिनसे मामले का गठन होता है।
एडमिशन-
विवाद के निपटारे में एडमिशन का एक महत्वपूर्ण स्थान है। सिविल प्रकिया के अंतर्गत एक पक्षकार दूसरे पक्षकार के मामले को स्वीकार करता है और ऐसे स्वीकार किए गए मामले के संबंध में पक्षकारों के बीच कोई विवाद नहीं रह जाता है। परिणामस्वरूप ऐसे मामलों को साक्षी द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है, और न्यायालय एडमिशन के आधार पर अपना निर्णय सुनाने के लिए अग्रसर हो सकता है। इस प्रकार एडमिशन वाद के निपटारे को सुलभ कर देता है। संहिता के आदेश 12 में ऐसे एडमिशन के बारे में प्रावधान किया गया है।
दस्तावेजों का प्रस्तुतीकरण-
आदेश 13 के अंतर्गत दस्तावेजों की मूल प्रतियां प्रस्तुत की जाती है तथा इन दस्तावेजों को प्रकरण का साक्ष्य कहा जाता है। साक्ष्य को प्रकरण इस चरण पर आने के बाद ही प्रस्तुत किया जाता है। वाद पत्र के साथ दस्तावेजों की छायाप्रति लगा सकते है परंतु एडमिशन होने या नहीं होने के उपरांत जिन मूल दस्तावेज पर विचारण चलेगा तथा विवाधक तथ्यों के संबंध में दस्तावेजों का प्रकटीकरण किया जाता है।
वाद पदों का निश्चय किया जाना-
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 14 के अंतर्गत फ्रेमिंग ऑफ इश्यू अर्थात वाद पदों का निश्चय किया जाता है। किन तथ्यों पर विवाद है यह तय किया जाता है जिससे आगे मामले का विचार किया जा सकें।
साक्षियों सूची-
संहिता के आदेश 16 के अंतर्गत साक्षियों की सूची प्रस्तुत की जाती है तथा इस सूची में साक्षियों की संख्या होती है, तथा उनके नाम होते हैं जो किसी विवादित तथ्य को साबित नासाबित करने के लिए पेश किए जाते है।
साक्ष्य लेखन-
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 18 के अंतर्गत साक्ष्यों को लिखा जाता है,साक्ष्य का लेखबद्ध किया जाना अत्यंत आवश्यक होता है।
सिविल प्रक्रिया संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा साक्ष्य को लेखबद्ध किए जाने की प्रक्रिया में संशोधन भी किए गए है तथा प्रत्येक साक्षी शपथ पत्र पर माना गया है। न्यायालय साक्ष्य को लेखबद्ध कराने की प्रक्रिया पूरी करता है।
निर्णय व डिक्री-
अधिनियम के आदेश 20 व धारा 35 के अंतर्गत मामले में अंतिम निर्णय लिया जाता है या डिक्री दी जाती है। डिक्री एवं निर्णय में कुछ अंतर होते है।