प्रॉपर्टी एक लंबे समय से जटिल विषय रहा है। प्रॉपर्टी किसे माना जाए तथा किसे नहीं माना जाए इस विषय पर समय-समय पर समाज में नित नए परिवर्तन होते रहे हैं। ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट भी प्रॉपर्टी के अंतरण के संबंध में विधि निर्माण करता है। यदि प्रॉपर्टी स्वामी ने अपने जीवन काल में प्रॉपर्टी के हस्तांतरण के संबंध में कोई व्यवस्था नहीं की थी और उसकी मृत्यु हो जाती है तो प्रॉपर्टी का उसकी मृत्यु के पश्चात हस्तांतरण उत्तराधिकार के माध्यम से होगा।
यदि प्रॉपर्टी स्वामी ने कोई व्यवस्था कर रखी थी कि उसकी मृत्यु के पश्चात उसकी प्रॉपर्टी का हस्तांतरण किस प्रकार होगा तो इस व्यवस्था के माध्यम से ही प्रॉपर्टी का हस्तांतरण होगा। इस व्यवस्था को वसीयत कहा जाता है। उत्तराधिकार द्वारा प्रॉपर्टी का अंतरण स्थानीय भू विधियों और पर्सनल लॉ से अंतरण भिन्न भिन्न प्रांतों के कृषि अधिनियम के माध्यम से होता है तथा आभूषण, घर के सामान आदि का अंतरण हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और मुस्लिम विधि के अनुसार होता है।
यदि प्रॉपर्टी के स्वामी ने अपने जीवन काल में ही प्रॉपर्टी के अंतरण के संबंध में व्यवस्था कर दी थी तो इस व्यवस्था का निरूपण भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 में वर्णित प्रावधानों के अनुसार होगा। यदि प्रॉपर्टी का स्वामी उसका धारक अपने जीवन काल में ही प्रॉपर्टी का अंतरण किसी अन्य जीवित व्यक्ति के पक्ष में करता है तो ऐसे अंतरण को जीवित व्यक्तियों के बीच अंतरण के नाम से जाना जाता है। यह संव्यवहार ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट, 1882 द्वारा विनियमित होता है। इस अधिनियम के प्रारंभ से पूर्व प्रॉपर्टीयों का अंतरण विशेषकर अचल प्रॉपर्टीयों का अंतरण साम्य के सिद्धांत के अनुसार विनियमित होता था फिर उसके बाद तत्कालीन भारत सरकार ने ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट, 1882 का सृजन कर दिया।
किसी व्यक्ति के पास कुछ प्रॉपर्टी है जिसमे कृषि भूमि, भवन, आभूषण और शामिल है। अब यह प्रॉपर्टी का यदि इस प्रॉपर्टी के संबंध में कोई व्यवस्था नहीं करता है और मर जाता है तो ऐसी प्रॉपर्टी का अंतरण उसके पर्सनल लॉ से होगा जैसे हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 या मुस्लिम लॉ।
अगर यह व्यक्ति अपने जीवनकाल में कोई वसीयत अपनी प्रॉपर्टी के संबंध में कर देता है तो प्रॉपर्टी का अंतरण भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के अंतर्गत होगा और वे ही अधिनियम इस मामले लागू होगा।
अगर वह व्यक्ति अपने जीवित रहते ही अगर वसीयत भी नहीं करता है और कोई व्यवस्था किए बगैर भी नहीं मरता है तो यह अधिनियम लागू होगा। अर्थात यदि वह अपनी प्रॉपर्टी का हस्तांतरण जीवित रहते कर देता है तो यह अधिनियम लागू होगा।
समय-समय पर इस अधिनियम में परिवर्तन होते रहे हैं यह अधिनियम की आवश्यकता पर निर्भर करता था। जब-जब आवश्यकता हुई इस अधिनियम में संशोधन कर दिए गए सबसे व्यापक एवं महत्वपूर्ण संशोधन सन 1929 में किया गया था।
ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट, 1882 अचल प्रॉपर्टीयों के अंतरण के संबंध में महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित करता है। सेक्शन5 से सेक्शनसे 38 तक में उल्लेखित सिद्धांत चल एवं अचल दोनों ही प्रकार की प्रॉपर्टीयों के अंतरण से संबंध है जबकि सेक्शन38 से लेकर सेक्शन53 क तक के प्रावधान केवल अचल या स्थावर प्रॉपर्टीयों के अंतरण से संबंध है।
यदि केवल चल प्रॉपर्टी का अंतरण किया जा रहा हो तो ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट, 1882 के प्रावधान प्रभावी नहीं होंगे। चल प्रॉपर्टी का अंतरण माल विक्रय अधिनियम 1930 द्वारा विनियमित होता है यह अधिनियम अचल प्रॉपर्टी के विक्रय, बंधक, पट्टा, विनियम या दान के संबंध में प्रावधान प्रस्तुत करता है। इसके साथ ही अनुयोज्य दावों के अंतरण के संबंध में भी प्रावधान प्रस्तुत करता है। विनियम एवं दान के प्रकरण में अचल प्रॉपर्टी के साथ चल प्रॉपर्टी का भी अंतरण हो सकेगा किंतु यदि अंतरण की मुख्य वस्तु चल प्रॉपर्टी है और उसके साथ अचल प्रॉपर्टी दी जा रही है तो यह अंतरण इस अधिनियम के अंतर्गत वैध नहीं होगा केवल धन का विनियम अधिनियम की सेक्शन121 के अंतर्गत मान्य है।
मूर्त प्रॉपर्टी का विकास जंगम अथवा स्थावर प्रॉपर्टी के रूप में हुआ तथा प्रधान रूप में इन्हीं के अंतरण के संबंध में नियम भी बने परंतु आज तो अमूर्त प्रॉपर्टीयां भी विकसित हो चुकी हैं। ऐसी अमूर्त प्रॉपर्टीया जिनका भौतिक अस्तित्व नहीं होता है जिनको स्पर्श कर अनुभव नहीं किया जा सकता जैसे की बौद्धिक संपदा भी एक अमूर्त प्रॉपर्टी है इसके लिए पृथक से विधान भारत में बनाए गए हैं उन प्रॉपर्टीयों पर ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट लागू नहीं होता है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट दो जीवित व्यक्तियों के बीच में प्रॉपर्टी का हस्तांतरण होने पर लागू होता है।
यदि किसी व्यक्ति ने अपनी प्रॉपर्टी को वसीयत किया है तो ऐसी प्रॉपर्टी का निपटारा भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के अनुसार होगा और यदि उस व्यक्ति ने अपनी प्रॉपर्टी के संबंध में कोई वसीयत नहीं लिखी है ऐसी स्थिति में उसकी प्रॉपर्टी का निपटारा या हस्तांतरण उस व्यक्ति के धर्म की व्यक्तिगत विधियो के अनुसार होगा जैसे कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और मुस्लिम पर्सनल लॉ परंतु कोई व्यक्ति अपने जीवित रहते ही अपनी प्रॉपर्टी का हस्तांतरण कर रहा है ऐसी स्थिति में हस्तांतरण ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट 1882 के अनुसार होगा।
प्रॉपर्टी के अंतरण के संबंध में नियमों के निर्माण को प्रभावी बनाने हेतु यह सुनिश्चित करना आवश्यक था कि प्रॉपर्टी का अंतरण स्वयं प्रॉपर्टी का स्वामी कर रहा है या उसकी सहमति से कोई अन्य व्यक्ति कर रहा है। यदि प्रॉपर्टी का अंतरण एक जीवित व्यक्ति द्वारा अपने जीवन काल में किया जा रहा हो तो इस स्थिति में स्थिति भिन्न होगी परंतु यदि प्रॉपर्टी स्वामी की मृत्यु हो चुकी है और उसने प्रॉपर्टी के संबंध में अपने जीवन काल में कोई निर्देश नहीं दिया था तो स्थिति भिन्न होगी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट, 1882 केवल दो जीवित व्यक्तियों के बीच ही लागू होता है और जीवन काल के निर्णय पर ही लागू होता है।
ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट को तत्कालीन भारत सरकार की नीति की भारत की सिविल विधि को एक संपूर्ण सिविल संहिता के रूप में संहिताबद्ध किया जाए के अंतर्गत अधिनियमित किया गया था। इस संबंध में गठित राय कमेटी ने इसका प्रारूप तैयार किया था इसके प्रारूप का अध्ययन करने तथा इसे निश्चित स्वरूप प्रदान करने के उद्देश्य से एक प्रवर समिति का गठन किया गया किंतु प्रवर समिति अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकी इसके बाद इसे दूसरे विधि आयोग को सौंपा गया तथा अनेक विचार विमर्श और बदलाव के बाद वर्तमान रूप में इस अधिनियम को अधिनियमित किया गया।
इस अधिनियम की सेक्शन4 से स्पष्ट है इसके वह सभी अध्याय तथा धाराएं जो संविदा से संबंध हैं संविदा अधिनियम 1872 के अंश माने जाएंगे तथा सेक्शन54 पैरा 2 और सेक्शनतीन सेक्शन59, 107 तथा 123 पंजीकरण अधिनियम 1908 के अंग माने जाएंगे। इस प्रकार तैयार स्वीकृत विधायक को 17 फरवरी 1882 को गवर्नर जनरल की स्वीकृति प्राप्त हुई 1 जुलाई 2882 को यह अधिनियम लागू हुआ। सन 1882 में अधिनियमित होने के पश्चात इसमें अनेक बार संशोधन हुए तथा इसके क्षेत्राधिकार को विस्तृत किया गया। अधिनियम संख्या 2 सन 1900 द्वारा अनुयोज्य दावा में संशोधन किया गया। सबसे महत्वपूर्ण संशोधन 1929 में किया गया इस संशोधन द्वारा लगभग 50 धाराओं में परिवर्तन किया गया तथा अनेक नई धाराएं भी जोड़ी गई।
अंत में इतना कह दिया जाना चाहिए कि इस अधिनियम के उपबंध कुल क्रय विक्रय, बंधक, पट्टा, विनियम तथा दान के मामलों में ही लागू होते हैं पर यह आवश्यक है कि अन्तरिती और अंतरणकर्ता दोनों ही जीवित व्यक्ति हो। वसीयत द्वारा इसके अंतरण इसके क्षेत्राधिकार से परे हैं। जीवित व्यक्तियों से तात्पर्य केवल मानव जाति से ही नहीं है। इसके अंतर्गत वैधानिक संस्थाएं संवाद, समवाय और निकाय चाहे पंजीकृत हो या न हो सम्मिलित हैं।
यह अधिनियम भारत में जुलाई 1882 के पहले दिन से प्रवृत्त हुआ है। इसका विस्तार संपूर्ण भारत पर है, यह एक महत्वपूर्ण सिविल अधिनियम है, सिविल विधि में इसका ऐसा ही महत्व है जैसा महत्व आपराधिक विधि में भारतीय दंड सहिंता का है। यह एक प्रक्रिया विधि नहीं है अपितु अधिकार उत्पन्न करने वाली विधि है।