पुनर्विलोकन (Review) से संबंधित कानून क्या है ?

Update: 2021-09-17 05:28 GMT

पुनर्विलोकन से सम्बंधित प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 114 एवं आदेश 47 के अंतर्गत मौजूद है। पुनर्विलोकन यानी दुबारा अवलोकन संहिता के अंतर्गत दी गयी एक व्यवस्था है जिसके अंतर्गत परिस्थिति विशेष में अदालत द्वारा पारित निर्णय एवं इसके तथ्यों की जांच की जाती है।

लैटिन सिद्धांत 'फ़ंक्टस ऑफ़िसियो' कानून की उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए किसी भी अदालत द्वारा पारित निर्णय के संबंध में लागू होता है। सिद्धांत का अर्थ है कि यदि मामले में उचित और निष्पक्ष सुनवाई और परीक्षण के बाद फैसला सुनाया गया है तो मामला फिर से नहीं खोला जा सकता है।

दूसरे शब्दों में, अदालत का अधिकार क्षेत्र एक बार समाप्त हो जाता है जब वह अपने कार्यों को पूरा कर लेता है जिसके लिए उसे नियुक्त किया गया / चुना गया था। निर्णय के पुनर्विलोकन को दाखिल करने का अधिकार फंक्शनस ऑफिसियो की लैटिन अवधारणा का अपवाद है।

पुनर्विलोकन निम्नलिखित के खिलाफ दाखिल किया जा सकता है:

(1) किसी आदेश अथवा डिक्री के खिलाफ जिसके लिए सिविल प्रक्रिया संहिता में अपील का प्रावधान हो, किन्तु अपील नहीं की गयी हो।

(2) किसी आदेश अथवा डिक्री के खिलाफ जिसके लिए सिविल प्रक्रिया संहिता में अपील का प्रावधान नहीं हो।

(3) लघुवाद न्यायालय के निर्देश पर पारित विनिश्चय।

यह जानना जरूरी है कि पुनर्विलोकन सम्बंधित आवेदन केवल उसी अदालत में दाखिल किया जा सकता है जिस अदालत द्वारा अपेक्षित आदेश पारित किया गया हो।

किसी आदेश का पुनर्विलोकन निम्नलिखित आधार पर ही मंज़ूर किया जा सकता है:

(1) नए साक्ष्य और साक्ष्य के महत्वपूर्ण मामले की खोज, जो उचित परिश्रम के अभ्यास के बाद, आवेदक के ज्ञान में नहीं था या उसके द्वारा उस समय पेश नहीं किया जा सकता था जब डिक्री पारित की गई थी या आदेश दिया गया था।

(2) किसी भूल या गलती के कारण जो अभिलेख /रिकॉर्ड के देखने मात्र से ही प्रकट होती है।

(3) किसी अन्य पर्याप्त कारण के लिए (जिसे ऊपर निर्दिष्ट अन्य कारणों के अनुरूप समझा जा सके)।

क्या पुनर्विलोकन अदालत की अन्तर्निहित शक्ति है अथवा यह कानून द्वारा प्रदत्त है? इस सम्बन्ध में विभिन्न उच्च न्यायालयों ने अपने अपने मत पारित किये है। कुछ उच्च न्यायालयों का मानना है कि पुनर्विलोकन अदालत की अन्तर्निहित शक्ति है।

घोर अन्याय को रोकने के लिए या गंभीर और स्पष्ट त्रुटियों को ठीक करने के लिए पूर्ण अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत प्रत्येक न्यायालय में पुनर्विलोकन की शक्ति निहित है। उच्च न्यायालय पूर्ण क्षेत्राधिकार का न्यायालय है और इसलिए अपने आदेश के पुनर्विलोकन करने की शक्ति रखता है। (टी. कृष्णप्पा बनाम एच. लिंगप्पा, AIR 1982 Karn. 58)

किन्तु अन्य मत में यह कहा गया कि धारा 114 और आदेश 47 नियम 1 स्पष्ट रूप से सिविल न्यायालय को पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करते हैं। इसलिए अदालत इस शक्ति का प्रयोग केवल इन प्रावधानों के तहत कर सकती है।

यह धारा 114 के तहत ऐसा नहीं किया जा सकता है, भले ही पुनर्विलोकन आवेदन इस धारा के तहत होने का दावा करता हो। यह अच्छी तरह से तय है कि पुनर्विलोकन की शक्ति एक अंतर्निहित शक्ति नहीं है। इसे कानून द्वारा विशेष रूप से या आवश्यक निहितार्थ द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए। (कुमारन वैद्यर बनाम के.एस. वेंकटेश्वरन, AIR 1992 Ker. 26)

हालांकि धारा 141 के मद्देनजर, आदेश 47 सिविल रिट याचिका पर लागू नहीं होता है, लेकिन उसके अनुरूप प्रावधान लागू होंगे। (प्युरवेल & एसोसिएट्स बनाम पंजाब नेशनल बैंक, AIR 1992 Him. Pra. 26 (D.B.)) आदेश 47 नियम 1, धारा 141 की व्याख्या के कारण संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत कार्यवाही पर सीधे लागू नहीं होता है।

हालांकि, उक्त स्पष्टीकरण उच्च न्यायालय की संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत पारित अपने स्वयं के आदेशों के पुनर्विलोकन की अंतर्निहित शक्ति को प्रभावित नहीं करता है। जो अन्याय को रोकने या उसके द्वारा की गई घोर और स्पष्ट त्रुटि को ठीक करने के लिए पूर्ण क्षेत्राधिकार के प्रत्येक न्यायालय में निहित है। (दिल्ली अरबन हाउस वेलफेयर एसोसिएशन बनाम भारत संघ, (1998 - 1) 118 Punj. L.R. (Del.) 85)

सुप्रीम कोर्ट ने श्रीराम साहू बनाम विनोद कुमार रावत, [सिविल अपील सं. 2020/3601], के मामले में स्थिति साफ़ करते हुए कहा कि धारा 114 सीपीसी के सीधे पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि धारा 114 सीपीसी के तहत पुनर्विलोकन की उक्त मूल शक्ति ने पुनर्विलोकन की शक्ति के प्रयोग में पूर्ववर्ती शर्त के रूप में कोई शर्त निर्धारित नहीं की है और न ही उक्त धारा ने अपने निर्णय के पुनर्विलोकन करने की शक्ति प्रयोग करने के लिए न्यायालय पर कोई प्रतिबंध लगाया है।

हालांकि, आदेश 47 नियम 1 सीपीसी में उल्लिखित निर्धारित आधारों पर ही न्यायालय द्वारा किसी आदेश का पुनर्विलोकन किया जा सकता है। पुनर्विलोकन के लिए एक आवेदन अपील की तुलना में अधिक प्रतिबंधित है और पुनर्विलोकन न्यायालय के पास सीमित क्षेत्राधिकार है जो आदेश 47 नियम 1 सीपीसी में उल्लिखित निश्चित सीमा तक ही सीमित है।

पुनर्विलोकन की शक्तियों को एक अंतर्निहित शक्ति के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है और न ही समीक्षा की शक्ति की आड़ में अपीलीय शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है।

धारा 114 और आदेश 47 के नियम 1 के संयुक्त पठन से, यह स्पष्ट है कि जिस डिक्री या आदेश से अपील की अनुमति दी जाती है, लेकिन जिससे कोई अपील दायर नहीं की गई है, उसके खिलाफ पुनर्विलोकन की कार्यवाही जा सकती है।

यह इस प्रकार है कि रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल के अपीलीय आदेशों के खिलाफ जिसमें अपील की जाती है लेकिन कोई अपील दायर नहीं की जाती है, फिर रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल के समक्ष पुनर्विलोकन याचिका को बनाए रखा जा सकता है। (कल्पतरु एग्रोफॉरेस्ट एंटरप्राइजेज बनाम भारत संघ, (2002) 3 SCC 692)

सुप्रीम कोर्ट ने नेहाली पंजियारा बनाम श्यामा देवी, [(2002) 10 SCC 578], के मामले में निर्धारित किया कि चूँकि पुनर्विलोकन याचिका पूरी तरह से एक नया मुद्दा उठाती है कि दावे के दाखिल करने से पहले ही अस्तित्व में था तथा नीचे की किसी भी अदालत के समक्ष इस तरह के विवाद को कभी भी नहीं उठाया गया था।

इतना ही नहीं, विचारण न्यायालय के समक्ष भी इस बिंदु पर कोई मुद्दा नहीं उठाया गया था। दूसरी अपील में उठाया गया एकमात्र विवाद दावे की संपत्तियों के संबंध में था। ऐसी स्थिति में नए तर्क पर पुनर्विलोकन कार्यवाही में हस्तक्षेप के लिए कोई मामला नहीं बनता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कपूर चंद बनाम गणेश दत्त, [AIR 1993 SC 1145], के मामले में निर्धारित किया कि उच्च न्यायालय एक पुनर्विलोकन याचिका को इस आधार पर खारिज नहीं कर सकता है कि पुनर्विलोकन के लिए मांगे गए फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition) दायर होने के मद्देनजर, पुनर्विलोकन याचिका अब चलने योग्य नहीं थी क्योंकि उच्च न्यायालय के फैसले का सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में विलय हो जाएगा।

उच्चतम न्यायालय के आदेश में पुनर्विलोकन-अधीन निर्णय के विलय के संबंध में प्रश्न उच्च न्यायालय के निर्णय में निपटाए गए मामलों के बाद ही उठेगा। जब तक इस तरह का आदेश सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित नहीं किया जाता है, तब तक उच्च न्यायालय के लिए अपने फैसले का पुनर्विलोकन करने के लिए सक्षम है।

गुवाहाटी हाई कोर्ट ने रिकॉर्ड पर उपलब्ध ज़ाहिर त्रुटि की व्याख्या करते हुए नरेश बनाम गोपाल चंद्र, [AIR 1994 Gau. 37], के मामले में कहा कि इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कि रिकॉर्ड/अभिलेख के देखने मात्र से कोई गलती या त्रुटि स्पष्ट है, यह एक ऐसी स्थिति होनी चाहिए जो रिकॉर्ड के चेहरे पर प्रकट होनी चाहिए और इतना स्पष्ट होना चाहिए कि कोई भी न्यायालय ऐसी त्रुटि की अनुमति नहीं देगा या रिकॉर्ड पर बने रहने की गलती इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कि रिकॉर्ड में कोई गलती या त्रुटि स्पष्ट है, अदालत को अन्य सबूतों पर गौर करने की आवश्यकता नहीं है।

ऐसी गलती या त्रुटि आदेश में ही या किसी अन्य दस्तावेज से प्रकट होनी चाहिए जो उक्त आदेश में निर्दिष्ट है। यदि ऐसी कोई त्रुटि होती है तो न्यायालय निश्चित रूप से ऐसे निर्णय की पुनर्विलोकन करने के लिए बाध्य है।

अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते समय किसी न्यायालय द्वारा की गई त्रुटि मात्र किसी न्यायालय को उसी के आधार पर किसी निर्णय के पुनर्विलोकन करने की अनुमति नहीं देती है। (उड़ीसा राज्य बनाम जनमोहन दास, AIR 2000 Ori. 83) केवल इसलिए कि कोई निर्णय गलत है, पहले के निर्णय के पुनर्विलोकन करने का आधार नहीं है।

पहले के फैसले के पुनर्विलोकन के लिए एक आवेदन से निपटने वाली अदालत पहले के फैसले पर अपीलीय अदालत के रूप में नहीं बैठती है और इसका अधिकार क्षेत्र आदेश 47 नियम 1 में परिकल्पित परिस्थितियों तक सीमित है। किसी अन्य न्यायाधीश द्वारा दिए गए पहले के निर्णय पर अपील में बैठने की उत्तराधिकारी न्यायाधीश की प्रवृत्ति को छोड़ दिया जाना चाहिए और केवल इसलिए कि रिकॉर्ड पर सामग्री का एक अलग दृष्टिकोण लिया जा सकता है, पहले के निर्णय के पुनर्विलोकन करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

जैसा कि आदेश 47 नियम 1 में विचार किया गया है, पहले के निर्णय की समीक्षा करने के लिए रिकॉर्ड के देखने मात्र से एक त्रुटि स्पष्ट होनी चाहिए। (दौलत इंडस्ट्रीज बनाम कृष्णा आयल इंडस्ट्रीज, AIR 2002 Guj. 91.) एक पुनर्विलोकन आवेदन रिकॉर्ड के देखने पर स्पष्ट त्रुटि के आधार पर बनाए रखा जा सकता है। रिकॉर्ड के सामने स्पष्ट त्रुटि संभव नहीं है, जहां दो दृष्टिकोण संभव हैं और जहां कानून के देखने मात्र से त्रुटि दिखाने के प्रयास में लंबा तर्क दिया जाना था। (शांति कुमार जैन बनाम अनिल कुमार दत्ता, AIR 1996 Cal. 4)

सीपीसी के तहत पुनर्विलोकन एक डिक्री या आदेश के खिलाफ एक पीड़ित पक्ष के लिए एक आवेदन पर विचार करती है। न्यायालय अपने स्वयं (suo moto) के आदेश या डिक्री की पुनर्विलोकन नहीं कर सकता है जब तक कि सीपीसी की धारा 114 के तहत विचाराधीन पक्ष द्वारा पुनर्विलोकन के लिए एक आवेदन दायर नहीं किया जाता है और अदालत को संतुष्ट होना चाहिए कि आदेश 47 नियम 1 में उल्लिखित शर्तें पुनर्विलोकन पर विचार करने के लिए मौजूद हैं।

कार्यालय में उत्तराधिकारी की राय बदलने से, मूल आदेश की पुनर्विलोकन इस आधार पर नहीं की जा सकती थी कि अभिलेखों के चेहरे पर त्रुटि स्पष्ट है। (मोहन कुमार बनाम के. नटराजन, (1998) 1 Ker.L.J. 374)

पुनर्विलोकन याचिका पेश करने के सम्बन्ध में यह कानून स्पष्ट है कि पुनर्विलोकन याचिका केवल उन व्यक्तियों द्वारा दायर की जा सकती है जो न्यायालय/न्यायाधिकरण के आदेश से सीधे और तुरंत प्रभावित होते हैं, क्योंकि उन्हें "पीड़ित पक्ष" माना जा सकता है। एक समीक्षा याचिका दायर करने के लिए यह आवश्यक नहीं कि व्यक्ति मूल मुक़दमे में पक्षकार हो। इसे एक व्यक्ति द्वारा भी दायर किया जा सकता है जो आदेश से प्रभावित या पीड़ित है। (गोपबंधु बिस्वाल बनाम कृष्णा चंद्र मोहंती, AIR 1998 SC 1872)

निष्कर्ष:

पुनर्विलोकन एक न्यायिक शक्ति है जो अदालत द्वारा कारित किसी कानूनी एवं तथ्यात्मक त्रुटि को सुधारने के लिए प्रयोग की जा सकती है। डिक्री जो बाद में पुनर्विलोकन पर पारित की जाती है, चाहे वह मूल रूप से पारित डिक्री को संशोधित, उलट या पुष्टि करती है, मूल डिक्री को प्रतिस्थापित करने वाला एक नया डिक्री है।

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