किसी भी अपराध का संज्ञान सर्वप्रथम मजिस्ट्रेट द्वारा लिया जाता है, हालांकि कुछ विशेष अधिनियमों के अंतर्गत आने वाले अपराधों का संज्ञान सीधे सत्र न्यायाधीश द्वारा ले लिया जाता है लेकिन साधारण तौर पर संज्ञान मजिस्ट्रेट द्वारा ही लिया जाता है। इस आलेख में मजिस्ट्रेट द्वारा लिए जाने वाले संज्ञान के संदर्भ में चर्चा की जा रही है।
संज्ञान विचारण का प्रारम्भिक बिन्दु है। अपराध का संज्ञान लेने के साथ ही विचारण प्रारम्भ हो जाता है। शब्द 'संज्ञान' की कहीं परिभाषा नहीं दी गई है। सामान्यतः पत्रावली (आरोप पत्र) का अवलोकन करने के पश्चात् उसे दर्ज किये जाने की प्रक्रिया को संज्ञान कहा जाता है।
संज्ञान लेते समय मजिस्ट्रेट द्वारा अपने विवेक का प्रयोग किया जाता है और यह देखा जाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कोई प्रथमदृष्टया मामला बनता है या नहीं। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 190 से 194 तक में 'संज्ञान' के बारे में प्रावधान किया गया है।
मजिस्ट्रेट द्वारा अपराधों का संज्ञान
संहिता की धारा 190 के अनुसार अपराधों का संज्ञान निम्नांकित दशाओं में लिया जा सकेगा-
(i) परिवाद (Complaint) पर
(ii) पुलिस रिपोर्ट (Police Report) पर
(iii) किसी व्यक्ति से प्राप्त इत्तिला पर, अथवा
(iv) स्वयं की जानकारी के आधार पर।
सामान्यतः अपराध का संज्ञान किसी परिवाद अथवा पुलिस रिपोर्ट पर लिया जाता है। लेकिन विशेष बात यह है कि मजिस्ट्रेट द्वारा स्वयं की जानकारी के आधार पर भी संज्ञान लिया जा सकता है ऐसा तब होता है जब कोई अपराध मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में कारित होता है।
मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे मामलों में भी संज्ञान लिया जा सकता है जिनमें अन्वेषण अधिकारी द्वारा पुलिस रिपोर्ट में कोई प्रथम दृष्टया मामला बनना नहीं बताया गया हो। ऐसा 'अंतिम प्रतिवेदन' (Final Report) के मामलों में होता है। इसे एफआर पर संज्ञान कहा जाता है।
ऐसा संज्ञान विधिमान्य माना गया है-
(1) जो विवेक का प्रयोग करते हुए लिया गया हो:
(2) संज्ञान के उचित कारण बताये गये हो;
(3) संज्ञान लेने के लिए पत्रावली पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो; तथा
(4) वह विपर्यस्त (Perverse) नहीं हो।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि संज्ञान सदैव अपराध का लिया जाता है, अभियुक्त का नहीं। अतः अभियुक्त की अनुपस्थिति में भी संज्ञान लिया जा सकता है यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में अंकित व्यक्तियों में से किसी के विरुद्ध संज्ञान लिया जाता है तो ऐसा करने से पूर्व प्रथम सूचना रिपोर्ट देने वाले व्यक्ति को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाना अपेक्षित है।
मामले का अन्तरण
धारा 191 में यह कहा गया है कि यदि किसी अपराध का संज्ञान मजिस्ट्रेट द्वारा अपनी स्वयं की जानकारी के आधार पर लिया जाता है तो मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे अभियुक्त से यह पूछा जायेगा कि वह उसके मामले का विचारण किसी अन्य मजिस्ट्रेट से कराये जाने के लिए स्वतंत्र है। यदि अभियुक्त अपने मामले का विचारण किसी अन्य न्यायालय से चाहता है तो मामला किसी अन्य न्यायालय में अन्तरित कर दिया जायेगा।
मामला मजिस्ट्रेट के हवाले किया जाना
धारा 192 में दो प्रकार की व्यवस्थायें की गई हैं-
(i) कोई मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेने के पश्चात् मामले को जाँच या विचारण के लिए अपने अधीनस्थ किसी सक्षम मजिस्ट्रेट के हवाले कर सकेगा।
(ii) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त सशक्त किया गया कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेने के पश्चात् मामले का जाँच या विचारण के लिए अपने अधीनस्थ किसी ऐसे सक्षम मजिस्ट्रेट के हवाले कर सकेगा जिसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट साधारण या विशेष आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे और तब ऐसा मजिस्ट्रेट जाँच या विचारण कर सकेगा।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मामले का अन्तरण जाँच या विचारण के पूर्व किसी भी प्रक्रम पर किया जा सकेगा, बशर्ते कि मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान ले लिया गया हो ।
फिर धारा 192 के अन्तर्गत कोई मामला केवल ऐसे मजिस्ट्रेट को अन्तरित किया जा सकता है जो उसका विचारण करने के लिए सक्षम हो
सेशन न्यायालय द्वारा संज्ञान
धारा 193 के अन्तर्गत यह उपबंधित किया गया है कि जहाँ तक इस संहिता में या अन्य किसी विधि में अभिव्यक्त रूप से अन्यथा कोई प्रावधान नहीं हो, सेशन न्यायालय द्वारा किसी अपराध का संज्ञान तभी लिया जा सकेगा जब मजिस्ट्रेट द्वारा मामला उसके 'सुपुर्द' (उपर्पित) कर दिया जाए।
मजिस्ट्रेट द्वारा मामला सुपुर्द किये बिना सेशन न्यायालय द्वारा अपराध संज्ञान नहीं लिया जा सकेगा। फिर ऐसी सुपुर्दगी भी सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाना अपेक्षित है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1999 की परिधि में आने वाले मामलों के बारे में भी यही व्यवस्था है। ऐसे मामलों में विशेष न्यायालय द्वारा सीधा संज्ञान नहीं लिया जा सकेगा है।
पीसी गुलाटी बनाम लज्जाराम के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि- सुपुर्दगी के बाद सेशन न्यायालय द्वारा की जाने वाली आगे की कार्यवाही हो सेशन न्यायालय द्वारा लिया गया संज्ञान है।
अपर एवं सहायक सेशन न्यायालय द्वारा विचारण
धारा 194 के अनुसार अपर सेशन न्यायालय अथवा सहायक सेशन न्यायालय द्वारा ऐसे मामलों का विचारण किया जा सकेगा जो सम्बन्धित खण्ड के सेशन न्यायालय द्वारा साधारण या विशेष आदेश से उसे सौंपे जाये या जिनका विचारण करने के लिए उच्च न्यायालय द्वारा विशेष आदेश से उसे निदेशित किया जाए।
उच्च न्यायालय द्वारा कोई प्रकरण विशेष विचारण हेतु किसी न्यायाधीश-विशेष को आबंटित किया जा सकेगा।