
कानून का उद्देश्य सम्पत्ति को सदैव के लिए बाँधने के प्रयास को निवारित करना है। यह सिद्धान्त इस सामान्य उद्देश्य पर आधारित है कि अन्तरण की स्वतंत्रता अपने स्वयं के अंत के लिए प्रयोग में नहीं लायी जा सकती है और ऐसे सभी उपाय जो शाश्वतता सृष्ट करने के लिए आशयित हैं या जो सदैव के लिए सम्पत्ति को अन्तरण की शक्ति से परे रखने के लिए आशयित हैं शून्य होंगे। संपत्ति चलन में रहना चाहिए तथा किसी एक व्यक्ति का ही उस एकाधिकार बना रह जाना चाहिए।
'शाश्वतता' का अर्थ है सम्पत्ति को अनिश्चितकाल तक एक स्थान पर बाँधे रखना या उसे अन्तरित होने से रोकना। शाश्वतता दो प्रकार से उत्पन्न हो सकती है-
सम्पत्ति स्वामी से अन्तरण की शक्ति छीनकर-
सम्पत्ति में भविष्य का दूरस्थ हित सृष्ट कर-
पहली स्थिति की विवेचना इस अधिनियम की धारा 10 में की गयी है और दूसरी स्थिति की विवेचना इस धारा में की गयी है।
'शाश्वतता, सामान्य धन की विनाशिनी, विधि के सरल प्रवर्तन में बाधक तथा वाणिज्य के लिए अहितकर है, चूंकि यह सम्पत्ति के पूर्ण प्रचलन को प्रतिषिद्ध कर देती है। शाश्वतता के विरुद्ध सिद्धान्त को विकसित करने के कारण पर सम्यक रूप से स्टैनली बनाम ली के मुकदमे में प्रकाश डाला गया है। इस वाद में कोर्ट ने कहा था कि-
'सम्पत्ति के सदैव के लिए या पर्याप्त समय तक के लिए अनन्तरणीय या एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को अहस्तान्तरित होने के फलस्वरूप जनसामान्य को होने वाली कठिनाई, उद्योग तथा वाणिज्य को पहुंचाने वाली क्षति तथा उन परिवारों को जिनकी सम्पत्ति इस प्रकार बाधित है होने वाली असुविधा तथा उत्पन्न संकट से बचाने के लिए, शाश्वतता के विरुद्ध सिद्धान्त आवश्यक है।
इस नियम के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं-
सम्पत्ति का अन्तरण
सम्पति अन्तरण द्वारा अजन्मे व्यक्ति को पक्ष में हित के सृजन
इस प्रकार सृष्ट हित एक या अधिक जीवित व्यक्तियों के हितों तथा अजन्मे व्यक्ति को अवयस्कता के पश्चात् प्रभावी होना आशयित हो
अजन्मा व्यक्ति जीवित व्यक्ति व्यक्तियों के हितों के समापन पर अस्तित्व में हो।
सिद्धान्त के प्रवर्तन की स्थिति यह सिद्धान्त तब प्रवर्तित होता है जब अन्तरक के अन्तरण के फलस्वरूप सम्पत्ति एक ऐसे व्यक्ति को दो हो जो अन्तरण की तिथि को अस्तित्व में न रहा हो, साथ ही यह भी निर्देश हो कि वह व्यक्ति पैदा होते ही सम्पत्ति में हित नहीं प्राप्त करेगा। इस अधिनियम की धारा 20 उपबन्धित करती है कि अज्ञात व्यक्ति के फायदे के लिए सृष्ट किया गया कोई हित, जब तक कि अन्तरण के निबन्धनों से कोई तत्प्रतिकूल आशय न प्रतीत होता हो, उसके जन्म लेते ही उसमें निहित हो जायेगा यद्यपि उसे यह हक न हो कि वह अपने जन्म से ही उसका उपभोग करने लगे।
धारा 14 में वर्णित सिद्धान्त वहाँ लागू होता है, जहाँ धारा 20 में वर्णित सामान्य नियम के अन्तर्गत जन्मे व्यक्ति के पक्ष में अन्तरण नहीं किया गया है। ऐसे मामलों में अजन्मे व्यक्ति के पक्ष में सृष्ट हित का निर्धारण धारा 14 के अनुसार होगा और यदि सम्पत्ति उसे उसकी अवयस्कता की अवधि के समापन पर नहीं दी जाती है या मिल जाती है तो अजात व्यक्ति के पक्ष में सृष्ट हित शून्य होगा।
अवयस्कता की अवधि का निर्धारण भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 की धारा 4 के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति अपने जन्म की तिथि से 18 वर्ष पूरे करने पर वयस्क हो जाता है। इससे पहले वह अवयस्क या अप्राप्यय का रहेगा, किन्तु यदि गार्डियन एण्ड वार्ड्स एक्ट के अन्तर्गत ऐसे व्यक्ति का संरक्षक नियुक्त हुआ है तो वह 21 वर्ष पूरे करने पर वयस्क होगा। अजात अन्तरितों के वयस्क होने के बाद यदि उसे एक क्षण भी सम्पत्ति से वंचित किया जा रहा है तो उसके पक्ष में सृष्ट हित शून्य होगा।
शाश्वतता की अवधि की गणना-
शाश्वतता की अवधि को गणना अन्तरण विलेख में इस निमित्त उल्लिखित तिथि से होगी। यदि किसी तिथि का उल्लेख नहीं किया गया है तो अन्तरण विलेख के निष्पादन की तिथि से माना जाएगा। यदि सम्पति का अन्तरण तथा विलेख का निष्पादन दोनों एक ही तिथि का हो रहा है तो अन्तरण की तिथि से हो गणना की जाएगी।
इस धारा में वर्णित सिद्धान्त के आधार पर शाश्वतता की अवधि निम्नलिखित है-
(1) यदि अजन्मा व्यक्ति अन्तिम पूर्विक हित के समापन के समय या उससे पूर्व पैदा होता है तो जीवित व्यक्ति या व्यक्तियों के पक्ष में सृष्ट हित की अवधि अजन्मे व्यक्ति को अवयस्कता की अवधि
(2) यदि अजन्मा व्यक्ति अन्तिम पूर्विक हित के समापन के समय या उससे पूर्व पैदा नहीं होता है हित के समापन के समय गर्भ में रहता है तो जीवित व्यक्ति या व्यक्तियों के पक्ष में सृष्ट हित की अवधि अजन्मे व्यक्ति के गर्भकाल की अवधि अजन्मे व्यक्ति के अवयस्कता की अवधि।
उपरोक सिद्धान्त तब लागू होता है जब अजन्मा व्यक्ति अन्तिम पूर्विक हित के समापन के समय या तो पैदा हो चुका हो या उसी समय पैदा हो अथवा गर्भ में हो। यदि अजन्मा व्यक्ति उसी समय पैदा होता है जिस समय अन्तिम पूर्वक हित धारक का हित उक्त सम्पत्ति में समाप्त होता है तो 18 वर्ष पूरा करने पर वयस्क होगा।
यदि वह अन्तिम पूर्विक हित धारक के हित के समापन से पूर्व पैदा हो जाता है तो अवयस्कता की अवधि 18 वर्ष से कम को होगी और यदि वह तत्समय गर्भस्थ शिशु है तो अवयस्कता की अवधि होगी 15 वर्ष तथा गर्भकाल की अवधि। जहाँ तक पूर्विक हित धारक का सम्बन्ध है एक या अधिक व्यक्ति इस निमित्त चुने जा सकते हैं।
'अ' अपनी सम्पत्ति व जो अन्तरण की तिथि को जीवित व्यक्ति हैं, क्रमश: 'य के जीवनकाल के लिए 'स' को 5 वर्ष के लिए तथा 'द' को 7 वर्ष के लिए देता है। तत्पश्चात् वही सम्पत्ति 'क' को देता है जो अन्तरण की तिथि को अजन्मा था। 'व' 'स' और 'द' सम्पत्ति को क्रमश: धारण करेंगे। द' के बाद सम्पत्ति क' को मिलेगी।
यहाँ द अन्तिम पूर्विक हित धारक कहलाता है क्योंकि उसके बाद कोई अन्य जीवित व्यक्ति सम्पत्ति धारण करने के लिए प्राधिकृत नहीं है। 'क' अजन्मा व्यक्ति है। इस अन्तरण की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि 'द' हित के समापन के समय का या तो पैदा हो चुका हो या उसी समय पैदा हो या कम से कम गर्भ में हो। यदि तत्समय वह गर्भस्य भी नहीं है तो उसके पक्ष में सृष्ट हित शून्य हो जाएगा।
अन्तरण की वैधता का निर्धारण- अजन्मे व्यक्ति के पक्ष में सृष्ट हित की वैधता का निर्धारण उसी समय किया जाता है जिस समय अन्तरण प्रभावी होता है। यदि उस समय निश्चितता के साथ कहा जा सके कि अन्तरण उपरोक्त वर्णित कालावधि के अन्दर प्रभावी हो जाएगा तो यह वैध होगा. किन्तु यदि निश्चितता पूर्वक यह नहीं कहा जा सकता है या इसमें सन्देह है कि सृष्ट हित निहित हो भी सकता है और नहीं भी तो यह अन्तरण अवैध होगा भले ही वास्तविक घटना के घटित होने के फलस्वरूप उक्त अन्तरण शाश्वतता की अवधि के अन्दर निहित होने की स्थिति में आ जाए।
राम नेवाज बनाम नन्हकू के वाद में वादी ने अपनी समस्त सम्पत्ति केवल दो बीघे जमीन को झोड़कर प्रतिवादी को बेच दिया। विक्रय की शर्त यह थी कि जिन दो बीघों को मैंने विक्रय से अलग किया है वे मेरे पास मेरे जीवनभर रहेंगे और मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरे वंशजों के कब्जे में रहेंगे, किन्तु इन्हें न मुझे और न हो मेरे वंशजों को अन्तरित करने का अधिकार होगा। मेरी वंशावली के नष्ट या समाप्त होने पर वे दो बीघे क्रेता की सम्पत्ति हो जायेंगे।
शर्त से यह स्पष्ट है कि दो बाँधे के सम्बन्ध में क्रेता को तब अधिकार प्राप्त होगा जब विक्रेता तथा उसके वंशजों को मृत्यु हो जाए। अन्तरण के समय विक्रेता का एकमात्र पुत्र था जिसकी मृत्यु संतानविहीन अन्तरण के 12 वर्ष के अन्दर ही होगी। चूँकि अन्तरण की शर्तों से ऐसा प्रतीत होता था कि क्रेता के पक्ष में दो बीघे का अन्तरण अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया है। अतः कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि दो बीघे का अन्तरण शून्य होगा, यद्यपि सम्पूर्ण अन्तरण की तिथि 12 वर्ष के अन्दर ही घटित हो गया था।
ब्रिज नाथ बनाम आनन्द के वाद में एक हिन्दू वसीयतकर्ता ने अपनी सम्पत्ति न्यास के रूप में अपने पौत्र के पक्ष में उसके द्वारा वयस्कता प्राप्त करने की शर्त के साथ अन्तरित किया। यदि उसका अपना कोई पौत्र नहीं होगा तो पुत्री के पुत्रों को उनके वयस्क होने पर यह अभिनिर्णीत हुआ कि चूँकि सम्पत्ति का निहित होना शाश्वत की सीमा से परे तक स्थगित है अतः यह अन्तरण शून्य होगा।
बुल बनाम पिचड के वाद में एक वसीयतकर्ता ने अपनी सम्पत्ति का न्यास सृष्ट किया और यह निर्देश दिया कि सम्पत्ति से होने वाली आय न्यासकर्ता की पुत्री को आजीवन दी जाएगी और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके बच्चों को दी जाएगी, यदि वे 23 वर्ष की आयु प्राप्त कर लें। बच्चों के पक्ष में हित शून्य माना गया, क्योंकि शाश्वतता की अवधि के पश्चात् प्रभावी होने वाला था। इंग्लिश विधि में 21 वर्ष की कालावधि इस निमित्त निर्धारित की गई है। इस अवधि का अजन्मे व्यक्ति की वयस्कता से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह एक स्वतंत्र कालावधि है।
इस धारा के अपवाद-
1. खैरात – इस अधिनियम की धारा 18 उपबन्धित करती है कि धारा 14 में वर्णित प्रावधान लोक के फायदे के लिए, धर्म, ज्ञान, वाणिज्य, स्वास्थ्य क्षेम या मानव जाति के लिए फायदाप्रदकिसी अन्य उद्देश्य को अग्रसर करने के लिए अन्तरणों पर लागू नहीं होगा।
2. ऋण के भुगतान हेतु प्रावधान- यदि किसी सम्पत्ति से उद्धृत आय अन्तरक या उसके अध्यधीन सम्पत्ति में हित प्राप्त करने वाले व्यक्ति के ऋणों के भुगतान हेतु इस अधिनियम की धारा 17 (2) (i) के अन्तर्गत संचित की जाती है तो ऐसा संचयन शाश्वतता के विरुद्ध नियम से प्रभावित नहीं होगा।
3. वैयक्तिक करार या प्रभार- वैयक्तिक करार चाहे कितने ही लम्बी अवधि के लिए क्यों न हो, इस नियम से प्रभावित नहीं होते हैं।
4. भूमि क्रय करने की संविदा- भूमि का विक्रय करने अथवा क्रय करने को संविदा जिसका उल्लेख धारा 54 में किया गया है शाश्वतता के विरुद्ध सिद्धान्त से नहीं प्रभावित होता है। इसे राम बरन बनाम राम माहिती के बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी संस्तुति प्रदान की है। किन्तु इंग्लिश विधि में विक्रय के लिए संविदा शाश्वतता के सिद्धान्त से प्रभावित होती है।
5. प्रभार प्रभार में चूँकि सम्पत्ति का अन्तरण नहीं होता है अतः प्रभार पर यह सिद्धान्त लागू नहीं होता है।
6. बन्धक- बन्धक के मामलों में बन्धककर्ता का मोचनाधिकार चाहे किसी अवधि के लिए स्थगित कर दिया गया हो, इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा।
7. पट्टे के नवीकरण हेतु संविदा पट्टाग्रहीता को प्रदत्त अधिकार कि वह पट्टे का नवीकरण करा ले. केवल इस आधार पर शून्य नहीं होगा कि पट्टाग्रहीता को एक लम्बे अन्तराल के बाद भी नवीकरण का अधिकार प्राप्त था।
8. प्रवेश तथा पुनः प्रवेश का अधिकार पट्टा शर्त के अन्तर्गत पट्टाकर्ता को दिया गया यह अधिकार कि शर्त के उल्लंघन की दशा में पट्टा को समाप्त कर वह पट्टा जन्य सम्पत्ति को पुनः अपने में अधिकार में ले ले, इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होता है।
9. नियोजन की शक्ति - नियोजन की सामान्य शक्ति, भूमि को बाधित नहीं करती है और ऐसी शक्ति का प्रयोग चाहे जब किया जाए, इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगी। शक्ति के प्रयोग तक यह अधिकार मुक्त रहता है, किन्तु विशिष्ट शक्ति को स्थिति भिन्न होती है और शक्ति के सृजनके साथ ही सम्पत्ति अवरोधित हो जाती है। अतः विशिष्ट शाश्वतता के नियम से प्रभावित होती है।
10. भूमि से संलग्न संविदाएं- भूमि के साथ चलने वाली प्रसंविदाएँ शाश्वतता के सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होती हैं क्योंकि ये भूमि के अनुसंग के रूप में होती हैं। अतः पट्टा विलेख में यह उपबन्ध कि पट्टाकर्ता द्वारा अपेक्षा किए जाने पर पट्टाग्रहीता, पट्टाजन्य सम्पत्ति उसे समर्पित कर देगा, इस सिद्धान्त के क्षेत्राधिकार से मुक्त है ।