जैव विविधता अधिनियम, 2002 (The Biological Diversity Act, 2002) भारत का एक महत्वपूर्ण कानून है, जिसे देश की जैव विविधता (Biological Diversity) के संरक्षण और इसके घटकों के टिकाऊ उपयोग (Sustainable Use) के लिए बनाया गया था।
इसका एक सबसे अहम मकसद यह भी है कि जैव संसाधनों (Biological Resources) और उनसे जुड़े पारंपरिक ज्ञान (Traditional Knowledge) के उपयोग से होने वाले लाभ को उन लोगों के साथ उचित और न्यायपूर्ण तरीके से साझा किया जाए जिन्होंने इनकी रक्षा की है।
यह कानून अंतरराष्ट्रीय जैविक विविधता सम्मेलन (Convention on Biological Diversity or CBD) के प्रावधानों को लागू करने के लिए बनाया गया था, और इसका उद्देश्य भारत की जैव संपदा की चोरी (Biopiracy) को रोकना है।
संस्थागत ढाँचा: तीन-स्तरीय व्यवस्था (Institutional Framework: A Three-Tiered System)
इस अधिनियम को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए एक तीन-स्तरीय व्यवस्था बनाई गई है:
• राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (NBA - National Biodiversity Authority): यह सर्वोच्च निकाय (Apex Body) है जो चेन्नई में स्थित है। इसका मुख्य काम विदेशी व्यक्तियों या कंपनियों द्वारा भारतीय जैव संसाधनों के उपयोग को नियंत्रित करना है। यह उन सभी मामलों में भी अनुमति देता है जहाँ कोई IPR (Intellectual Property Right) - जैसे Patent - भारतीय जैव संसाधनों पर आधारित हो।
• राज्य जैव विविधता बोर्ड (SBBs - State Biodiversity Boards): ये बोर्ड हर राज्य में होते हैं और राज्य के भीतर भारतीय नागरिकों और कंपनियों द्वारा जैव संसाधनों के उपयोग को नियंत्रित करते हैं। वे अपने राज्य सरकारों को संरक्षण के मामलों में सलाह भी देते हैं।
• जैव विविधता प्रबंधन समितियाँ (BMCs - Biodiversity Management Committees): ये सबसे जमीनी स्तर (Grassroots Level) पर काम करती हैं। इन्हें स्थानीय निकायों जैसे कि पंचायतों द्वारा बनाया जाता है। इनका सबसे महत्वपूर्ण काम "पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर" (People's Biodiversity Register or PBR) बनाना है, जिसमें स्थानीय जैव विविधता और पारंपरिक ज्ञान का पूरा ब्योरा (Detailed Record) होता है। ये समितियाँ स्थानीय स्तर पर जैव संसाधनों के उपयोग के लिए शुल्क (Fee) भी वसूल सकती हैं।
ऐतिहासिक मामले और उनके असर (Landmark Cases and Their Impact)
अधिनियम ने कई महत्वपूर्ण कानूनी मामलों में अपनी अहमियत साबित की है, जिससे इसके प्रावधानों, खासकर लाभ-साझेदारी (Benefit-Sharing) के सिद्धांत को और मजबूती मिली है।
एक ऐसा ही महत्वपूर्ण मामला दिव्या फार्मेसी बनाम भारत संघ (Divya Pharmacy vs. Union of India) (2018) का है। इस केस में उत्तराखंड हाई कोर्ट को यह तय करना था कि क्या एक भारतीय कंपनी को भी जैव संसाधनों के उपयोग के लिए स्थानीय समुदायों के साथ अपने राजस्व (Revenue) का एक हिस्सा साझा करना होगा।
पतंजलि आयुर्वेद की कंपनी दिव्या फार्मेसी ने तर्क दिया था कि एक भारतीय संस्था होने के नाते उसे केवल राज्य जैव विविधता बोर्ड को "पूर्व सूचना" (Prior Intimation) देनी होती है, न कि कोई शुल्क देना होता है। लेकिन अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया।
अदालत ने कहा कि अधिनियम का मूल सिद्धांत (Core Principle) उन समुदायों को लाभ पहुँचाना है जिन्होंने जैव विविधता का संरक्षण किया है, और यह सिद्धांत भारतीय और विदेशी, दोनों तरह की संस्थाओं पर लागू होता है। इस फैसले ने यह स्थापित कर दिया कि कोई भी entity, चाहे वह भारत की हो या विदेश की, देश की जैव विविधता का व्यावसायिक उपयोग बिना उचित लाभ-साझेदारी के नहीं कर सकती है।
इसी तरह, एवस्थ गेनग्रेन टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड (Avestha Gengraine Technologies Pvt. Ltd.) से जुड़ा मामला अधिनियम के तहत बौद्धिक संपदा अधिकारों (Intellectual Property Rights or IPR) के महत्व को उजागर करता है। कंपनी ने एक भारतीय फंगस (Fungus) का उपयोग करके विकसित की गई एक तकनीक के लिए Patent के लिए आवेदन किया था, लेकिन उसने NBA से पहले अनुमति (Prior Approval) नहीं ली थी। NBA ने Patent आवेदन को चुनौती दी।
इस मामले ने अधिनियम की धारा 6 (Section 6) के तहत अनिवार्य शर्त को पुख्ता किया कि किसी भी भारतीय जैव संसाधन पर आधारित IPR के लिए NBA की पूर्व अनुमति आवश्यक है। यह कानूनी कार्रवाई दर्शाती है कि अधिनियम जैव चोरी (Biopiracy) को रोकने में कितना प्रभावी है।
लाभ-साझेदारी का एक और ठोस उदाहरण भी है जहाँ राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण ने विभिन्न कंपनियों के साथ समझौते किए हैं। एक मामले में, एक समुद्री शैवाल (Seaweed) का व्यावसायिक उपयोग करने वाली एक कंपनी को उसके FOB (Free on Board) मूल्य का 5% Royalty के रूप में देना पड़ा। यह Royalty राशि बाद में स्थानीय जैव विविधता प्रबंधन समिति को दी गई और इसका उपयोग वृक्षारोपण और जागरूकता बढ़ाने जैसे संरक्षण के कार्यों के लिए किया गया।
ऐसे उदाहरण यह दिखाते हैं कि यह अधिनियम सिर्फ कागज़ पर एक कानून नहीं है, बल्कि यह सक्रिय रूप से भारत की प्राकृतिक विरासत के व्यावसायिक शोषण को नियंत्रित करता है और यह सुनिश्चित करता है कि लाभ सही मायने में उन समुदायों तक पहुँचे जिन्होंने पीढ़ियों से इसकी रक्षा की है।