क्या हाईकोर्ट के जजों को जिला न्यायपालिका की सेवा जोड़कर पेंशन दी जानी चाहिए?

Update: 2025-07-25 12:47 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने Union of India v. Justice (Retd.) Raj Rahul Garg (Raj Rani Jain), 2024 INSC 219 में एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया, जिसमें यह तय किया गया कि यदि कोई व्यक्ति जिला न्यायपालिका (District Judiciary) में लंबे समय तक सेवा देने के बाद हाईकोर्ट (High Court) का न्यायाधीश नियुक्त होता है, और उसकी सेवा में थोड़े समय का अंतर (Break in Service) आ जाए, तो क्या उसे दोनों सेवाओं को जोड़कर पेंशन दी जानी चाहिए।

इस निर्णय में अदालत ने संविधान (Constitution) और विधिक प्रावधानों (Statutory Provisions) के आधार पर यह स्पष्ट किया कि ऐसे न्यायाधीशों के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता और उनकी पूरी न्यायिक सेवा को एक साथ जोड़कर पेंशन का निर्धारण किया जाना चाहिए।

संवैधानिक और कानूनी ढांचा (Constitutional and Legislative Framework)

इस मामले में कोर्ट ने विशेष रूप से अनुच्छेद 217 (Article 217) और अनुच्छेद 221 (Article 221) का उल्लेख किया।

अनुच्छेद 217(2)(a) यह कहता है कि जो व्यक्ति भारत के क्षेत्र में कम से कम 10 वर्षों तक न्यायिक पद (Judicial Office) पर रहा हो, उसे हाईकोर्ट का न्यायाधीश बनाया जा सकता है।

अनुच्छेद 221(2) कहता है कि हाईकोर्ट के न्यायाधीशों को वे पेंशन और भत्ते (Pension and Allowances) मिलेंगे जो संसद के बनाए कानून के तहत निर्धारित किए जाएं।

इस विषय में लागू मुख्य कानून है High Court Judges (Salaries and Conditions of Service) Act, 1954 ('1954 का अधिनियम'), जिसमें यह बताया गया है कि न्यायाधीशों की पेंशन कैसे तय की जाएगी।

धारा 14 और इसकी सीमाएं (Section 14 and Its Limitations)

धारा 14 के अनुसार किसी न्यायाधीश को तभी पेंशन दी जा सकती है जब उसने कम से कम 12 वर्ष की सेवा की हो। लेकिन यह प्रावधान केवल उन्हीं न्यायाधीशों पर लागू होता है जिन्होंने पहले कोई अन्य पेंशन योग्य सेवा नहीं की हो, या जिन्होंने Part I of the First Schedule के अंतर्गत पेंशन लेने का विकल्प चुना हो।

Explanation में यह स्पष्ट किया गया है कि जो व्यक्ति पहले से किसी अन्य पेंशन योग्य पद पर रहा हो और उसने Part I के अंतर्गत पेंशन लेने का विकल्प नहीं चुना है, उस पर धारा 14 लागू नहीं होती।

इसलिए इस मामले में Justice Jain पर धारा 14 लागू नहीं होती थी क्योंकि उन्होंने Part III के अंतर्गत पेंशन लेने का विकल्प चुना था।

धारा 15 और न्यायिक सेवा का जोड़ (Section 15 and the Blending of Judicial Service)

धारा 15 उन न्यायाधीशों पर लागू होती है जो पहले से किसी न्यायिक सेवा (Judicial Service) में रहे हैं।

धारा 15(1)(b) के अनुसार, जो व्यक्ति पहले से किसी पेंशन योग्य पद पर रहा हो, वह Part I या Part III में से किसी एक के अंतर्गत पेंशन लेने का विकल्प चुन सकता है।

Part III of the First Schedule के अनुसार, ऐसे न्यायाधीश की पेंशन में दो हिस्से होते हैं—

(1) वह पेंशन जो उन्हें सामान्य सेवा नियमों (Ordinary Service Rules) के अनुसार मिलती यदि वे न्यायाधीश नहीं बने होते, और

(2) प्रत्येक पूर्ण सेवा वर्ष (Completed Year of Service) के लिए एक विशेष अतिरिक्त पेंशन (Special Additional Pension)।

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अगर कोई जिला न्यायाधीश हाईकोर्ट का न्यायाधीश बनता है, तो उसकी दोनों सेवाओं को जोड़कर पेंशन तय की जाएगी, चाहे सेवाओं के बीच कुछ दिनों का अंतर क्यों न हो।

सेवा में अंतर: बाधा नहीं (Break in Service: Not a Barrier)

सरकार ने यह तर्क दिया कि Justice Jain की सेवा में 54 दिन का अंतर था, इसलिए उनकी हाईकोर्ट की सेवा को जोड़कर पेंशन नहीं दी जा सकती।

कोर्ट ने यह तर्क अस्वीकार करते हुए कहा कि कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो कहे कि सेवा में निरंतरता (Continuity of Service) जरूरी है। यदि नियुक्ति में देरी प्रशासनिक कारणों से हुई हो और उसमें न्यायाधीश की कोई गलती न हो, तो उस अंतर को सेवा से बाहर नहीं माना जा सकता।

महत्वपूर्ण न्यायिक फैसले (Important Judicial Precedents)

इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कई पुराने निर्णयों का हवाला दिया:

1. Kuldip Singh v. Union of India (2002) – बार (Bar) से सीधे नियुक्त सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश को 10 वर्षों की सेवा जोड़कर पेंशन देने की अनुमति दी गई थी।

2. Govt. of NCT of Delhi v. All India Young Lawyers Association (2009) – यह सिद्धांत जिला न्यायाधीशों पर भी लागू किया गया।

3. P. Ramakrishnam Raju v. Union of India (2014) – बार और न्यायपालिका से नियुक्त हाईकोर्ट न्यायाधीशों को समान पेंशन देने की बात कही गई।

इसमें कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि न्यायिक सेवा की गिनती पेंशन के लिए की जाती है, तो बार में अर्जित अनुभव को भी बराबर महत्व मिलना चाहिए।

4. M. L. Jain v. Union of India (1985) – कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि कोई व्यक्ति हाईकोर्ट में न्यायाधीश के रूप में सेवा देकर रिटायर होता है, तो उसकी पेंशन हाईकोर्ट के अंतिम वेतन के आधार पर तय होगी, न कि जिला न्यायाधीश के वेतन पर।

न्यायिक स्वतंत्रता और पेंशन (Judicial Independence and Pension)

कोर्ट ने यह भी कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Judicial Independence) बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि रिटायरमेंट के बाद भी न्यायाधीशों को सम्मानजनक पेंशन मिले।

अधिकतर न्यायाधीश सेवा का मौका सामाजिक सेवा और प्रतिष्ठा के लिए स्वीकार करते हैं, भले ही आर्थिक नुकसान उठाना पड़े। ऐसे में उनके साथ सेवा के स्रोत (Source of Appointment) के आधार पर भेदभाव करना अनुचित और असंवैधानिक (Unconstitutional) है।

अंतिम निर्णय (Final Ruling)

सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि:

• Justice Jain को उनकी हाईकोर्ट की सेवा को जिला न्यायपालिका की सेवा के साथ जोड़ने का अधिकार है।

• 54 दिन का सेवा अंतर पेंशन में बाधा नहीं बन सकता।

• उनकी पेंशन हाईकोर्ट न्यायाधीश के अंतिम वेतन के आधार पर तय होगी।

• arrears (बकाया राशि) पर 6% वार्षिक ब्याज के साथ भुगतान किया जाएगा।

यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि न्यायाधीशों के साथ उनके नियुक्ति स्रोत के आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो।

सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि न्यायिक सेवा एक निरंतर प्रक्रिया है और उस सेवा की गिनती पेंशन के लिए की जानी चाहिए, चाहे वह जिला न्यायालय की हो या हाईकोर्ट की।

यह फैसला न केवल न्यायिक सेवा की गरिमा को बनाए रखने में सहायक है, बल्कि संविधान में निहित समानता के अधिकार (Right to Equality under Article 14) को भी मजबूती से लागू करता है।

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