Specific Relief Act में विशेष जंगम संपत्ति के कब्जे की Recovery

Update: 2025-09-22 04:21 GMT

जंगम संपत्ति के कब्जे का के प्रत्युद्धरण के संबंध में उपबंध विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा 7 और 8 में उल्लिखित हैं। इन धाराओं के अनुसार धारा 7 महत्वपूर्ण धारा मानी जाती है। धारा 7 के अनुसार जो व्यक्ति किसी निर्दिष्ट जंगम संपत्ति के कब्जे का हकदार है सिविल प्रक्रिया संहिता 1960 द्वारा उपबंधित प्रकार से उसका वितरण कर सकता है।

स्पष्टीकरण एक- न्यासी ऐसी जंगम संपत्ति के कब्जे के लिए इस धारा के अंतर्गत वाद ला सकता है जिसमें कि लाभप्रद हित का वह व्यक्ति हकदार है जिसके लिए वह न्यासी है।

स्पष्टीकरण दो- जंगम संपत्ति पर वर्तमान कब्जे का कोई विशेष या अस्थाई अधिकार इस धारा के अंतर्गत वाद समर्थन के लिए पर्याप्त हैं।

धारा 7 1877 के विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 10 के समक्ष है विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा 7 के उपबंध इसी अधिनियम की धारा 5 के समान है। धारा 5 स्थावर संपत्ति के कब्जे के प्रत्युद्धरण से संबंधित हैं।

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा 7 की मुख्य तीन विशेषताएं हैं-

इस धारा का लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि वाद करने वाला व्यक्ति विनिर्दिष्ट जंगम संपत्ति के कब्जे का हकदार हो।

संपत्ति विनिर्दिष्ट होनी चाहिए।

जंगम संपत्ति का प्रत्युद्धरण उसी ढंग से किया जा सकता है जैसा कि सिविल प्रक्रिया संहिता में उपबंधित है।

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 के अंतर्गत कोई विशेष दृष्टांत धारा के संबंध में प्रस्तुत नहीं किए गए हैं परंतु 1877 के पुराने अधिनियम में कुछ दृष्टांत दिए गए थे जिनकी सहायता से इस धारा के अर्थ को समझा जा सकता है दृष्टांत जो इस प्रकार है-

क उधार धन लेने हेतु कुछ गहने ख के पास गिरवी रखता है। ख गहनों का व्ययन (dispose) करने का अधिकारी होने के पूर्व उनका व्ययन कर देता है। क उधार धन का भुगतान या भुगतान को पेश किए बिना ख के विरुद्ध गहनों का कब्जा प्राप्त करने के लिए मुकदमा करता है। यह मुकदमा खारिज किया जाना चाहिए क्योंकि क गहनों के कब्जे का अधिकारी नहीं है चाहे उनकी सुरक्षित अभिरक्षा के बारे में उसको कोई अधिकार हो।

क एक पत्र ख को लिखता है बिना क की सहमति से पत्र को पुनः प्राप्त कर लेता है, क पत्र प्राप्त करने का अधिकारी है।

जिस व्यक्ति का कब्जा है परंतु स्वामी के नाते नहीं है उसका उन व्यक्तियों को जो तत्काल कब्जे का हकदार है परिदान किया जाना चाहिए। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 8 इस संबंध में उल्लेख कर रही है जिसका जंगम संपत्ति की किसी भी ऐसी विशिष्ट वस्तुओं पर कब्जा अथवा नियंत्रण है जिसका वह स्वामी नहीं है वह उसके तत्काल कब्जे के हकदार व्यक्ति को परिदत्त करने के लिए विवश किया जा सकता है।

जब विवादस्पद वस्तु प्रतिवादी द्वारा वादी के अभिकर्ता अथवा धन्यासी के रूप में धारित की हो।

जब की विवादित वस्तु की हानि के लिए वादी को यथा योग्य अनुतोष न पहुंचाता हो।

जबकि हानि के कार्य वास्तविक नुकसान या अभिनिश्चय करना अत्यंत कठिन हो।

जबकि दावा वस्तु का कब्जा वादी के पास से सदोष अंतरित कराया गया।

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा के अर्थ को इस उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है-

राम अमेरिका जाते समय अपना फर्नीचर श्याम के पास छोड़ जाता है। उसकी अनुपस्थिति में उसके अभिकर्ता के नाते श्याम बिना राम के प्राधिकार के फर्नीचर घनश्याम के पास गिरवी रख देता है तथा घनश्याम यह जानते हुए श्याम को फर्नीचर गिरवी रख लेता है। घनश्याम को राम को फर्नीचर परिदत्त करने को विवश किया जा सकता है क्योंकि वह उसे एक न्यासी के रूप में धारित किए हुए।

एमएस जगदम पाल बनाम साउदर्न इंडियन एजुकेशन ट्रस्ट एआईआर 1988 एससी 103 के वाद में धारा 6 के अंतर्गत कब्जा प्राप्त करने के लिए वाद संस्थित किया गया था। वादी का कहना था कि भूमि उसके पति ने खरीदी थी तथा उसके जीवन काल में भूमि उनके कब्जे में थी तथा उनकी मृत्यु के बाद भूमि पर उसका कब्जा था। वादी के अनुसार प्रत्यार्थी जो पड़ोस की भूमि के स्वामी थे ने अतिचार करके उसे बेकब्जा कर दिया। ट्रायल कोर्ट ने तथ्यों के आधार पर निर्णय लिया कि बेकब्जा किए जाने के पूर्व भूमि वादी के कब्जे में थी।

दूसरी और प्रत्यार्थी का कहना था कि वादी का संपत्ति पर कोई हक नहीं था। उन्होंने तर्क किया कि उन्होंने कोई अतिचार नहीं किया वरन उन्हें संपत्ति प्रतिकूल कब्जा द्वारा प्राप्त हुई क्योंकि वाद के पूर्व 12 वर्षों तक वादी का कब्जा नहीं था परंतु ट्रायल कोर्ट ने निर्णय दिया कि प्रत्यार्थी ने प्रतिकूल कब्जे द्वारा संपत्ति प्राप्त नहीं की थी। इस प्रकार परीक्षण कोर्ट ने निर्णय वादी के पक्ष में दिया परंतु हाईकोर्ट की खंडपीठ ने वाद की संभावना पर विचार किए बिना तथा उन बातों पर ध्यान दिए बिना जिनको परीक्षण कोर्ट महत्व दिया था निर्णय को उलट दिया।

हाईकोर्ट के इस निर्णय के विरुद्ध वादी ने यह अपील सुप्रीम कोर्ट में कि थी। सुप्रीम कोर्ट में अपील स्वीकार करते हुए तथा हाईकोर्ट के निर्णय को उलटते हुए कहा कि खंडपीठ ने वाद के महत्वपूर्ण तत्वों को नहीं समझा। परीक्षण कोर्ट का निर्णय गवाहों की विश्वसनीयता पर आधारित था, खंडपीठ द्वारा परीक्षण कोर्ट के निर्णय के आधार पर तथा वाद की संभावनाओं पर विचार किए बिना निर्णय दिया जो उचित नहीं था।

सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि संपत्ति को प्रतिकूल कब्जे द्वारा प्राप्त नहीं किया, संपत्ति पर वादी का कब्जा था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सामान्य नियम यह है कि संपत्ति के एक भाग का कब्जा पूर्ण पर कब्जा माना जाता है यदि अन्यथा पूर्ण खाली है। प्रस्तुत वाद में क्योंकि भूमि पानी में डूबी रहती थी अतः प्रतिकूल कब्जा नहीं हुआ था क्योंकि कब्जा लगातार नहीं रहा।

इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि यदि वादी का संपत्ति के एक भाग पर कब्जा है तथा शेष भाग खाली पड़ा है अर्थात उस पर किसी का कब्जा नहीं है तो वादी का कब्जा पूर्ण संपत्ति पर माना जाएगा जहां वादी भूमि के हक तथा कब्जे के लिए वाद करता है तथा वादी संपत्ति में हक को सिद्ध कर देता है तथा बाद में संपत्ति से बेक़ब्ज़ा किए जाने की तारीख को अभिकथित करता है वह कब्जे की डिक्री प्राप्त करने का अधिकारी होगा। ऐसे मामले में हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि तथ्यों पर समवर्ती निर्णय की अवहेलना करके वादपद के आधार पर अपील स्वीकार नहीं करनी चाहिए जिसे न तो उठाया गया तथा न जिस पर न्यायालयों में बहस हुई।

सरस्वती बनाम एस गणपति एआईआर 2001 एसी 1844 के वाद में वादी तथा प्रतिवादी दोनों ने एक दूसरे से लगे सर्वे संख्या की भूमि ली थी। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया की प्रतिवादी ने उसकी भूमि पर अवैध कब्जा किया था। वास्तव में वादी के सर्वे संख्या वाली भूमि की सीमा विक्रय विलेख में गलत दिखाई गई थी इसके बावजूद ट्रायल कोर्ट तथा अपील कोर्ट ने निर्णय दिया कि वादी के विक्रय विलेख में दिखाई गई भूमि की सीमा से जितनी भी कम थी वह अवश्य प्रतिवादी के अवैध कब्जे में होगी। हाईकोर्ट ने यह निर्णय दिया कि यह मत विधि में पुष्टि नहीं होगा, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट का निर्णय सही है तथा हाईकोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय सही हस्तक्षेप किया।

Tags:    

Similar News