भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 18 के अंतर्गत दुर्व्यपदेशन को परिभाषित किया गया है। किसी भी सहमति के स्वतंत्र सहमति होने के लिए उसमे दुर्व्यपदेशन नहीं होना चाहिए इसे सुझाव मात्र के रूप में नहीं होना चाहिए। इसे उन परिस्थितियों के अधीन होना चाहिए जहां बोलने का कर्तव्य हो।
दुर्व्यपदेशन के अंतर्गत वह पक्ष शामिल है जो उस व्यक्ति की जिसे वह करता है उसकी जानकारी से समर्थित न हो। यदि वह व्यक्ति उसकी सत्यता में विश्वास करता है हालांकि कपट एवं दुर्व्यपदेशन इन दोनों में मिथ्या कथन के परिणामस्वरुप संविदा के लिए सहमति दी जाती है परंतु दोनों में प्रमुख अंतर यह है कि कपट में मिथ्या कथन करने वाला व्यक्ति इस बात की जानकारी से अवगत होता है कि उसका कथन जो वह कर रहा है।
मिथ्या है अर्थात कथन प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति को उसकी असत्यता के विषय में जानकारी होती है या कथन प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति लापरवाही से कथन की सत्यता या असत्यता को जानने का प्रयास किए बिना देता है जबकि मिथ्या दुर्व्यपदेशन में मिथ्या कथन करने वाला व्यक्ति या विश्वास करता है कि कथन सत्य है हालांकि वह कथन सत्य नहीं होता है दुर्व्यपदेशन में धोखा देने का आशय नहीं होता है।
इसके अंतर्गत निश्चयात्मक कथन शामिल है जिसे देने वाला व्यक्ति उसकी सत्यता में विश्वास करता है किंतु वह सत्य नहीं है और उक्त बयान देने वाले व्यक्ति की जानकारी द्वारा वह समर्थित नहीं है। इस प्रकार असत्य बात को निश्चित ढंग से कहना जब की बात कहने वाले व्यक्ति को प्राप्त सूचना द्वारा समर्थित नहीं है तो यह दुर्व्यपदेशन है।
एक प्रकरण में जहां प्रतिवादी ने वादी के साथ कोई जहाज किराए पर लेने की संविदा की थी। उक्त संविदा के समय वादी ने कहा कि उसका वजन 2800 टन से ज्यादा नहीं है जबकि वास्तविकता यह थी कि उसका वजन 3000 टन से ज्यादा था। वादी को यह विश्वास था कि उक्त जहाज का वजन 2800 टन से ज्यादा नहीं है। वास्तविक बात तो यह थी कि उसको उक्त जहाज के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। इस मामले में कोर्ट ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी की सहमति दुर्व्यपदेशन से प्राप्त हुई थी इस कारण उक्त संविदा शून्यकरणीय है। जहाज के भार के बारे में जो निश्यात्मक ज्ञान दिया वह उसे प्राप्त सूचना से समर्थित होने के कारण असत्य था।
जहां कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति को धोखा देने के इरादे के अभाव में कोई कार्य करता है और स्वयं को लाभान्वित करता है और दूसरों को हानि पहुंचाता है तो यह दुर्व्यपदेशन होता है न कि कपट। कपट में धोखा देने का आशय होता है कपट धोखा देने के उद्देश्य से ही किया जाता है परंतु दुर्व्यपदेशन में धोखा देने का आशय नहीं होता है।
भारत संविदा अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत प्रपीड़न, कपट, दुर्व्यपदेशन जब कोई संविदा में सहमति प्राप्त की जाती है तो ऐसी संविदा उस पक्षकार की सहमति पर शून्यकरणीय है जिससे ऐसी सम्मति प्राप्त की गई है।
Act की धारा 20 में Mistake का उल्लेख है। भूल अनेक प्रकार की होती है तथ्य संबंधी भूल को शून्य करार माना गया है। जब भी किसी करार में कोई भी तथ्य संबंधी भूल होती है तो ऐसा करार शून्य हो जाता है।
भूल निम्नलिखित दो प्रकार की हो सकती है-
तथ्य संबंधित भूल
विधि संबंधित भूल
विधि की भूल कभी भी क्षम्य नहीं है जबकि तथ्य की भूल क्षम्य है। संविदा की विषय वस्तु से संबंधित भूल निम्नलिखित के संबंध में हो सकती हैं-
अस्तित्व, हक, मूल्य, क्वालिटी, मात्रा
भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 20 के अंतर्गत तथ्य संबंधी भूल को क्षम्य नहीं माना है। इस प्रकार की भूल के कारण संविदा को शून्य करार दिया गया है। जब संविदा के दोनों पक्षकार किसी करार के तत्वों की बाबत या विषय वस्तु की बाबत या वस्तु की पहचान या उसकी गुणवंता या उसकी मात्रा अथवा उसके मूल्य के विषय में पारस्परिक भूल करते हैं तो उसे पारस्परिक भूल कहते हैं।
धारा 20 के अंतर्गत कोई करार तभी शून्य घोषित किया जाएगा जबकि संविदा के दोनों पक्षकारों की भूल हो अर्थात भूल पारस्परिक हो क्योंकि एक पक्षीय भूल पर्याप्त नहीं। यदि संविदा का एक पक्षकार भूल के अधीन है तो धारा 20 के अंतर्गत संविदा शून्य नहीं होगी।
उदाहरण के लिए क ख से उसका एक निश्चित घोड़ा क्रय करने का करार करता है। करार के समय घोड़ा मर चुका था परंतु करार के समय उक्त तथ्य की जानकारी दोनों पक्षकारों को नहीं थी। यह कहा जा सकता है कि भूल उभय पक्षीय होनी चाहिए।
संविदा तभी शून्य होगी जब पक्षकारों की भूल उभय पक्षीय अर्थात पारस्परिक हो किंतु यदि भूल एक पक्षीय है तो ऐसी संविदा शून्य करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी। न्याय प्रदान करने हेतु मामले का भली प्रकार अवलोकन किया जाना आवश्यक है और इस बात का परीक्षण किया जाना समीचीन प्रतीत होता है कि क्या संविदात्मक संव्यवहार में पारस्परिक भूल हुई है अर्थात भूल एक ही पक्षकार द्वारा हुई है या दोनों पक्षकारों द्वारा। यदि भूल एक पक्षीय है तो संविदा विखंडित किए जाने योग्य नहीं होगी अतः आवश्यक है कि भूल उभय पक्षीय हो।
भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 21 के अंतर्गत विधि संबंधी भूल को क्षम्य नहीं माना गया है। यदि कोई भूल विधि संबंधी धूल है तो यह माफी योग्य नहीं है तथा इसमें कोई अनुतोष प्रदान नहीं किया जा सकता। देश की सामान्य विधि के अनुसार यदि कोई त्रुटि तथ्य से संबंधित है तो ऐसी स्थिति में उपचार प्राप्त होगा वह क्षम्य होगी किंतु यदि भूल तथ्यात्मक न होकर विधि से संबंधित है तो ऐसी स्थिति में जा कहा जा सकता है कि वह क्षम्य नहीं है और उस के संदर्भ में कोई अनुतोष नहीं प्रदान किया जाएगा। इसका सीधा और स्पष्ट कारण यह है कि विधि की भूल क्षम्य नहीं है अतः विधि की भूल को वह भूल माना जाएगा जिसकी बाबत कोई अनुतोष नहीं प्रदान किया जा सकता।