किसी भी विधिमान्य संविदा के लिए प्रस्ताव और स्वीकृति की संसूचना का होना महत्वपूर्ण है। प्रश्न यह है कि कोई भी प्रस्ताव स्वीकृति की संसूचना कब संपूर्ण होती है! इस प्रश्न से संबंधित अधिनियम की धारा 4 महत्वपूर्ण धारा है।
धारा के अंतर्गत यह समझाने का प्रयास किया गया है कि कोई भी प्रस्तावना की संसूचना और स्वीकृति की संसूचना कब संपूर्ण होती है। प्रस्ताव या प्रस्थापना की संसूचना उस व्यक्ति को दी जानी चाहिए जिस व्यक्ति के साथ संविदा किया जाना है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 4 में यह व्यवस्था की गई है कि प्रस्थापना की संसूचना उस समय पूर्ण होती है जिस व्यक्ति को यह प्रस्थापना की जाती है यह उसके ज्ञान में आ जाती है।
जब तक प्रस्थापक द्वारा प्रस्ताव की सूचना से वह व्यक्ति जिसे प्रस्तावना की गई है अवगत नहीं होता है यह कहा जा सकता है कि प्रस्थापक ने उक्त व्यक्ति को सूचना नहीं दी है। कोई भी प्रस्तावना तब पूर्ण होती है जब उसकी सूचना उस व्यक्ति को प्राप्त हो गई है जिससे प्रस्थापना की गई है।
लालमन बनाम गौरी दत्त 1913 के एक महत्वपूर्ण प्रकरण में यह माना गया है कि बिना ज्ञान के प्रेषित सूचना पर्याप्त नहीं है। प्रतिग्रहिता को प्रस्थापक द्वारा प्रस्तावना से संबंधित सभी बातों को युक्तियुक्त रूप में अवगत कराना चाहिए। सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कोई भी प्रस्थापना तब संपूर्ण मानी जाती है जब वह प्रतिग्रहण करने वाले व्यक्ति के संज्ञान में आ जाती है।
जब प्रस्तावना की संसूचना संपूर्ण हो जाती है तो प्रतिग्रहण की संसूचना को लेकर प्रश्न उठते हैं। प्रतिग्रहण की संसूचना के संदर्भ में धारा 4 कहती है कि प्रति ग्रहण की संसूचना संस्थापक के विरुद्ध तब संपूर्ण हो जाती है जब वह उसके प्रति इस प्रकार पारेषण के अनुक्रम में कर दी जाती है कि वह प्रतिग्रहिता की शक्ति के बाहर हो जाए और प्रतिग्रहिता के विरुद्ध तब संपूर्ण हो जाती है जब वह प्रस्थापक के ज्ञान में आ जाती है।
इस धारा के भाव को अत्यंत गहनता से समझने का प्रयास करना चाहिए। यहां पर प्रतिग्रहण की संसूचना प्रस्तावक और प्रतिग्रहण करने वाले व्यक्ति दोनों के विरुद्ध संपूर्ण होने का प्रकार बताया गया है। जिस प्रकार प्रस्थापना की संसूचना दी जाती है उसी प्रकार प्रस्थापना के प्रतिग्रहण की सूचना प्रतिग्रहिता द्वारा प्रस्तावक को दी जानी चाहिए।
पावेल बनाम ली के वाद 1908 में यह कहा गया है कि प्रस्थापना जब प्रतिग्रहीत कर ली जाती है तो यहां पर प्रतिग्रहिता का कर्तव्य है कि वह प्रतिग्रहण की सूचना प्रस्तावक को प्रेषित करें। प्रस्थापना के प्रतिग्रहण की सूचना प्रतिग्रहीत पत्र या टेलीफोन के द्वारा कर सकता है अर्थात जैसे ही प्रतिग्रहिता प्रस्ताव को स्वीकार करता है उसे पत्र या टेलीफोन के माध्यम से अपने प्रतिग्रहण की संसूचना प्रेषित कर देनी चाहिए। भगवान दास बनाम गिरधारी लाल एंड कंपनी एआईआर 1966 एस सी 543 के प्रकरण में भी इस सिद्धांत को स्वीकार किया गया है।
सरल से शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रतिग्रहण की सूचना युक्तियुक्त रूप से प्रस्ताव पक्ष को प्रेषित की जानी चाहिए।
प्रतिग्रहण की संसूचना से संबंधित जहां तक प्रस्थापक का संबंध है तब पूर्ण हो जाती है जबकि यहां पर प्रस्थापक को भेजने के लिए प्रेषण के अनुक्रम में इस प्रकार रखी जाती है कि वह प्रतिग्रहिता की शक्ति से परे हो जाए परंतु प्रतिग्रहिता के संबंध में प्रतिग्रहण की संसूचना तक पूर्ण समझी जाती है जबकि प्रस्थापक के ज्ञान में आ जाती है।
सौरभ सचिन को अपनी कार एक लाख में बेचने का प्रस्ताव ईमेल के माध्यम से भेजता है। सचिन को मेल प्राप्त हो जाता है। सचिन एक लाख रूपये में सौरभ की कार को खरीदने का प्रस्ताव स्वीकृत कर लेता है। सचिन अपनी स्वीकृति की संसूचना ईमेल के माध्यम से ही सौरभ को सेंड कर देता है। सचिन जैसे ही ईमेल के माध्यम से अपनी सूचना सचिन को सेंड करता है तो यह सूचना सचिन की शक्ति से बाहर हो जाती है अर्थात अब सचिन ई-मेल को सौरभ तक पहुंचने से नहीं रोक सकता है। ई-मेल सौरभ तक पहुंच जाता है जिस समय सचिन ने सौरभ को ईमेल सेंड किया था उसी समय सचिन की स्वीकृति की संसूचना संपूर्ण हो गई क्योंकि ई-मेल सचिन की शक्ति से बाहर हो गया था।