घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 5: अधिनियम के अंतर्गत घरेलू हिंसा किसे माना गया है

Update: 2022-02-14 04:59 GMT

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) की धारा 3 घरेलू हिंसा को परिभाषित करती है, साथ ही उन तथ्यों का वर्णन करती है जिन तथ्यों पर घरेलू हिंसा का निर्माण होता है।

इस अधिनियम का उद्देश्य घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण है, इसलिए इस अधिनियम में यह स्पष्ट करना भी आवश्यक था कि घरेलू हिंसा किसे माना जाएगा।अधिनियम को समझने के उद्देश्य से और अधिनियम के अगले प्रावधानों को समझने के पूर्व घरेलू हिंसा को समझना आवश्यक है। इस आलेख के अंतर्गत अधिनियम की धारा 3 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है और समय-समय पर न्यायालयों द्वारा दिए निर्णय भी उल्लेखित किए जा रहे हैं।

अधिनियम की धारा 3 "घरेलू हिंसा" को परिभाषित करती है। यह प्रावधान केवल प्रत्यर्थी का कार्य, लोप या किसी कार्य का करना या आचरण संदर्भित करता है। यह किसी नातेदार या किसी अन्य व्यक्ति को संदर्भित नहीं करता।

अधिनियम की धारा 3 "घरेलू हिंसा" की विस्तृत परिभाषा अन्तर्विष्ट करती है एवं बड़ी मात्रा में कार्य एवं लोप को शामिल करती है जो व्यथित व्यक्ति के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, अंग की या चाहे उसकी मानसिक या शारीरिक भलाई की अपहानि या क्षति या खतरा करता है।

इसमें शारीरिक दुरुपयोग, लैंगिक दुरुपयोग, मौखिक एवं भावनात्मक दुरुपयोग साथ ही साथ आर्थिक दुरुपयोग सम्मिलित है। इस प्रकार घरेलू हिंसा पद के अर्थों के अधीन विभिन्नप्रकार के कार्य एवं लोप शामिल हैं।

अधिनियम की धारा 12 के अधीन अनुतोष अधिनियम के लागू होने के पहले किये गये महिला के कृत्य को भी सम्मिलित करता है एवं इसे मजिस्ट्रेट व्यथित व्यक्ति को अधिनियम की धारा 18, 19, 20, 21, 22 एवं 23 के अधीन अनुतोष को विस्तारित करने के लिए आदेश पारित करते समय विचारण में ले सकता है। इसके अलावा यह आवश्यक नहीं है कि आवेदिका महिला का अधिनियम के लागू होने की तिथि पर या अधिनियम की धारा 12 के अधीन मजिस्ट्रेट के समक्ष अधिनियम के अधीन एक या अधिक अनुतोष पाने के लिए आवेदन दाखिल करते समय उसका विवाह या विवाह की प्रकृति का कोई सम्बन्ध अस्तित्य में हो या जारी हो।

अन्य शब्दों में व्यथित व्यक्ति जो अधिनियम के लागू होने के पूर्व किसी समय के बिन्दु पर प्रत्यर्थी के साथ घरेलू सम्बन्ध में रही एवं घरेलू हिंसा का शिकार हुई थी, अधिनियम के अधीन उपचारात्मक उपायों की हकदार होती है। [

विपिन बनाम मीरा. डी एस 2017 मामले में कहा गया है कि हिंसा का कोई कार्य, जो इस धारा को परिभाषा का समाधान करता है और जिसका विगत वैवाहिक सम्बन्ध से तार्किक सम्बन्ध है या जो उससे उद्भूत होता है या उस सम्बन्ध के परिणाम के रूप में है, अवधारणात्मक ढंग से अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत आना चाहिए।

अधिनियम की धारा 3 से सम्बद्ध स्पष्टीकरण 2 यह प्रावधानित करता है कि क्या प्रत्यर्थी का कोई कार्य, लोप या आचरण इस धारा के अधीन "घरेलू हिसा" का गठन करता है, इसके लिए मामले के सम्पूर्ण तथ्यों एवं परिस्थितियों पर विचार किया जायेगा, मामले में इस दृष्टि से यह न्यायालय का विचारित मत है कि जहाँ व्यथित यक्ति द्वारा विशिष्ट रूप से प्रत्यर्थी की ओर से घरेलू हिंसा के किसी कृत्य का अभिवचन किया गया है वहां इस अधिनियम के अधीन अनुतोष की वांछा करने वाली याचिका को आरम्भिक स्तर पर खारिज नहीं किया जा सकता एवं मामले को अधिनियम के प्रावधानों के अधीन यथा समादेशित परीक्षित एवं विनिश्चित करना अपेक्षित होता है।

धारा 3 का स्पष्टीकरण 2 स्पष्ट रूप से प्रावधानित करता है कि मामले के सम्पूर्ण तथ्य एवं परिस्थितियों पर विचारण किया जायेगा।

"घरेलू हिंसा"

"घरेलू हिंसा" अभिव्यक्ति जो कि अधिनियम को धारा 3 में परिभाषित है इसका अत्यन्त वृहत आयाम होता है एवं इसमें पूर्व में ही कथित शारीरिक दुरुपयोग, लैंगिक दुरुपयोग, मौखिक एवं भावानात्मक दुरुपयोग, आर्थिक दुरुपयोग के अलावा समस्त या किसी आर्थिक एवं वित्तीय संसाधन से व्यथित व्यक्ति को वंचित करना भी शामिल होता है जिसके लिए वह किसी विधि या प्रथा के अधीन हकदार होती है चाहे वह न्यायालय के किसी आदेश के अधीन या अन्यथा या व्यक्ति व्यक्ति के किसी आवश्यकता के कारण देय हो परन्तु यह व्यथित व्यक्ति तथा उसके बच्चों की घरेलू आवश्यकताओं तक ही सीमित नहीं होगा, स्त्री धन यदि कोई हो, सम्पत्ति जो व्यक्ति व्यक्ति द्वारा संयुक्ततः या प्रथक्तः धारित की जाती है एवं साझी गृहस्थी एवं भरण-पोषण एवं किराये का भुगतान भी इसमें शामिल होता है।

इसमे क्या शामिल है

अधिनियम को हिंसा के सभी कल्पनीय रूपों से महिलाओं का संरक्षण करने के लिए प्रवर्तित किया गया है। इसके अन्तर्गत न केवल लगभग शारीरिक उपहति के प्रत्येक प्रकार को उसमें शामिल करके व्यापक भावार्थ का शारीरिक दुरुपयोग बल्कि लैंगिक, मौखिक, भावनात्मक दुरुपयोग और आर्थिक दुरुपयोग भी है। उपबन्ध, जैसा कि इसे पढ़ा जाता है, इतना व्यापक है। यह सभी प्रकार के शारीरिक, मानसिक, मौखिक, आर्थिक दुरुपयोग को आच्छादित करता है

कौन से कृत्य, लोप या किसी कार्य का करना या आचरण "घरेलू हिंसा गठित करते हैं का निर्धारण- न्यायालय को, यह निर्धारित करते समय कि क्या प्रत्यर्थी का कोई कृत्य, लोप, किसी कार्य का करना या आचरण "घरेलू हिंसा गठित करता है पर सामान्य प्रज्ञ/ संतुलित अभिगम विभिन्न पहलुओं का मूल्यांकन करने के बाद जो किसी सम्बन्धों में होते हैं, विचारण करना चाहिये एवं तब इस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए कि क्या विशिष्ट नातेदारी "विवाह की प्रकृति" की नातेदारी है।

कई बार यह पक्षकारगण का सामान्य आशय होता है कि उनके बीच सम्बन्ध कैसा है एवं इसमें उनके पारस्परिक भूमिका एवं जिम्मेदारियाँ शामिल होती हैं जो उनके सम्बन्धों को प्राथमिक रूप से शासित करती हैं। आशय अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकता है एवं उनका आशय ही सुसंगत होता है, शादी के लक्षण हो महत्व रखते हैं।

घरेलू हिंसा की अनवरतता

इस तथ्य के आलोक में कि अधीनस्थ न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश के बाद भी प्रत्यर्थी पति ने अपीलार्थी-पत्नी को वैवाहिक गृह की साझी गृहस्थी में निवास करने की अनुमति नहीं प्रदान किया था, उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि अपीलार्थी पत्नी के विरुद्ध प्रत्यर्थी-पति द्वारा घरेलू हिंसा जारी रखी गई थी।

ऐसे अनवरत घरेलू हिंसा की स्थिति में अधीनस्थ न्यायालय के लिए यह निर्णय करना आवश्यक नहीं था कि क्या घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के लागू होने के पूर्व हिंसा कारित हुई थी एवं क्या ऐसा कृत्य घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 3 के अधीन यथा परिभाषित 'घरेलू हिंसा' पद की परिभाषा के अधीन आता है।

जब इस अधिनियम की धारा 3 घरेलू हिंसा को परिभाषित करती है, तब यह स्पष्ट है कि ऐसी हिंसा लिंग तटस्थ है। यह भी स्पष्ट है कि शारीरिक दुरुपयोग, मौखिक दुरुपयोग, भावनात्मक दुरुपयोग और आर्थिक दुरुपयोग सभी महिलाओं द्वारा अन्य महिलाओं के विरुद्ध किया जा सकता है। लैंगिक दुरुपयोग भी दी गयी तथ्यात्मक परिस्थिति में एक महिला द्वारा अन्य पर हो सकता है। इसलिए, धारा 3 अधिनियम के सामान्य उद्देश्य के साथ महिला के विरुद्ध किसी प्रकार की घरेलू हिंसा को अवैध बनाने की अपेक्षा करता है और लिंग तटस्थत है।

घरेलू हिंसा के विरुद्ध संरक्षण

जैसे ही अधिनियम द्वारा अपेक्षित अन्य शर्ते महिला द्वारा संतुष्ट कर दी जाय, वैसे हो वह इसमें परिकल्पित सुरक्षा पाने की हकदार इस तथ्य के बावजूद भी होगी, चाहे वह पत्नी या सास हो एवं यदि वह किसी प्रकार की घरेलू हिंसा कारित करती है तो वह ऐसे घरेलू हिंसा के अपराध के लिए अभियोजित होने की दायी भी है। क्योंकि आज की "पत्नियाँ" ही कल की "सास" हैं।

उपचारात्मक उपाय

निःसन्देह, अधिनियम की परिधि के अधीन घरेलू हिंसा की पीड़िता महिला को मजिस्ट्रेट द्वारा विभिन्न प्रकार के अनुतोष विस्तारित किये जाते हैं। यह स्वाभावतः उपचारात्मक होते हैं एवं समुचित रूप से सिविल लॉ की परिधि में आते हैं एवं कल्पना के किसी विस्तार से अधिनियम के अधीन कार्यवाहियों को आपराधिक कार्यवाही की तरह निर्वाचित नहीं किया जा सकता जहाँ तक कि घरेलू हिंसा की घटना में अधिनियम, को धारा 18 से 23 निबन्धनों के अधीन अनुतोष विस्तारित किया जाता है।

इसका उसके या उसकी द्वारा किये गये किसी हिंसक कृत्य के लिए प्रत्यर्थी को दण्डित करना नहीं होता। जबकि, यह घरेलू हिंसा से पीड़िता को सुरक्षित करने का उपचारात्मक उपाय होता है एवं घरेलू हिंसा की घटना को निवारित करना होता है।

उपचारात्मक उपायों का आश्रय लेना

अधिनियम की धारा 2 (क), 2 (च), (घ), (घ) 3, 12 एवं 18 से 23 के संयुक्त वाचन से यह अप्रतिरोध्य एवं निश्चित निष्कर्ष निकलता है कि धारा 12 के अधीन प्रावधानित उपचार अधिनियम के लागू होने के पूर्व की गई हिंसा के कृत्य को आच्छादित करता है एवं विवाह या घरेलू नातेदारी की मौजूदगी अधिनियम के प्रावधानों के अधीन सुरक्षात्मक आदेशों एवं अन्य अनुतोषों को पीड़ित व्यक्ति के लिए आहूत करने की पूर्व शर्त नहीं है।

यदि व्यथित व्यक्ति घरेलू नातेदारी में रहते हुए अधिनियम के लागू होने के पूर्व किसी समय घरेलू हिंसा का शिकार हुआ है तो वह अधिनियम के अधीन उपचारात्मक उपायों को आहूत करने का हकदार है।

परिवाद

निवेदित किया गया था कि प्रत्यर्थी द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498- क के अधीन अपराध के लिए दाखिल परिवाद में प्रत्यर्थी द्वारा वही आरोप लगाए गए थे। इसे निवेदित किया गया था कि दोनों कार्यवाहियों के प्रकृति के अन्तर्वस्तु के आलोक में कोई एक कार्यवाही को स्टे किये जाने की आवश्यकता है।

इस न्यायालय ने धारित किया कि यह प्रतिपादना धमकारी है। दोनों कार्यवाहियों के पीछे उद्देश्य पूर्णतया भिन्न हैं एवं दोनों कार्यवाहियों को उन कार्यवाहियों के प्रकृति के आलोक में अलग-अलग सुनने एवं निर्णीत करने की आवश्यकता होती है एवं इन कार्यवाहियों में अन्तिम आदेश पारित किया जा सकता है। इस प्रकार दूसरे आधार पर भी रिट याचिका में याची का कोई आधार नहीं है।

व्यथित व्यक्ति द्वारा परिवाद धारा 2 (घ) में दिया गया परन्तुक न केवल पद "प्रत्यर्थी" के अन्तर्गत आने वाले व्यक्तियों के वर्ग को विस्तारित करता है, बल्कि यह धारा 2 (क) में अन्नविष्ट व्यथित व्यक्ति" की परिभाषा को भी विस्तारित करता है। परन्तुक में जो कहा गया है और उपबन्धित है यह यह है कि कोई व्यक्ति पत्नी या विवाह की प्रकृति को किसी नातेदारी में रहने वाली कोई महिला भी पति या पुरुष भागीदार के किसी नातेदार के विरुद्ध शिकायत फाइल कर सकेगी।

घरेलू हिंसा की शिकायत

व्यथित व्यक्ति घरेलू नातेदारों एवं प्रत्यर्थी के संयुक्त पठन से प्रदर्शित होता है कि कोई महिला वयस्क पुरुष के विरुद्ध घरेलू हिंसा की शिकायत कर सकती है जिसके साथ वह घरेलू नातेदारी में है या रह चुकी है।

इन परिभाषाओं के सामान्य अर्थ किसी अन्य व्यक्ति को सम्मिलित नहीं करते। हालांकि "प्रत्यर्थी" की परिभाषा का परन्तुक है जो व्यक्ति व्यक्ति को उसके पति के नातेदार या उसके पुरुष भागीदार के विरुद्ध परिवाद दाखिल करने के योग्य बनाता है।

आर्थिक दुरुपयोग

साझी गृहस्थी की परिभाषा को देखते हुए इसे देखा जा सकता है कि इसमें प्रयुक्त शब्द "किसी प्रक्रम पर घरेलू नातेदारी में रह चुका है या ऐसी गृहस्थी में अधिकार रखता है" है धारा 3 के स्पष्टीकरण (iv) में "घरेलू हिंसा" की परिभाषा प्रदर्शित करती है कि आर्थिक दुरुपयोग घरेलू हिंसा की परिभाषा में अन्तर्विष्ट है। स्पष्टीकरण (iv) आर्थिक दुरुपयोग को और आगे विस्तारित करती है। इसका शब्दकोशिय अर्थ निम्नवत् है:-

किसी चीज से वंचित इन्कार करना जो आवश्यक समझी जाए। निषेधात्मक कृत्य से निवारित करना। प्रतिबन्ध सीमित करना।

अधिनियम, 2005 की धारा 3 में दी गयी घरेलू हिंसा की परिभाषा एवं स्पष्टीकरण (iv) आर्थिक दुरुपयोग को स्पष्ट करते हुए अवर न्यायालय प्रत्यर्थी (यहां विपक्षी पक्षकार) को संयुक्त परिवार की पैतृक सम्पत्तियों में अपना हिस्सा पाने तक मासिक भरण-पोषण प्रदान करने में पूर्णतया न्यायोचित है। जीवन के वर्तमान स्तर, को विचारित करते हुए अपर सत्र न्यायाधीश द्वारा 1000/- रुपये प्रतिमाह की दर से भरण-पोषण के अधिनिर्णय को उच्चस्तरीय नहीं कहा जा सकता था।

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