भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 14: आपराधिक अवचार के सबूत

Update: 2022-08-31 07:56 GMT

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 13 आपराधिक अवचार का उल्लेख करती है जिसमें दोषी लोक सेवकों के लिए कठोर दंड का उल्लेख है। आपराधिक अवचार का अर्थ शासकीय संपत्तियों का आपराधिक न्यासभंग है। इस आलेख के अंतर्गत इस अपराध से संबंधित साक्ष्यों पर चर्चा की जा रही है।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 13 तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 409 के अधीन अपराधों के सबूत-

अधिनियम की धारा 13 के अधीन अपराध ठीक उसी प्रकार का है जैसे कि गबन का। इंग्लिश विधि के अनुसार गबन का अपराध तभी गठित होता है जब सम्पत्ति अभियुक्त के स्वामी या नियोजक की ओर से या उसे लिए अभियुक्त द्वारा प्राप्त की जाती है और यह तभी पूर्ण होता है जब अभियुक्त ढंग से सम्पत्ति का दुर्विनियोग करता है। अतएव, इस खंड के अधीन अपराध का सार यह होता है कि संपत्ति के कानूनी ढंग से कब्जा प्राप्त करने के पश्चात् अभियुक्त ने दोषपूर्ण से एक लोक सेवक की हैसियत से अपने नियंत्रण में या उसको सौंपी गयी प्रश्नगत सम्पत्ति का दुरुपयोग किया है और उस सम्पत्ति को स्वामी को उससे वंचित कर दिया है।

यह प्रत्येक मामले में उसे यह साबित करना आवश्यक या संभव नहीं होता है कि किसी संक्षिप्त तरीके से अभियुक्त व्यक्ति ने अपने माल का विनियोग या निस्तारण किया है। यह प्रश्न मात्र आशय से जुड़ा है और न कि एक प्रत्यक्ष सबूत का मामला है। किन्तु न सभी वस्तुओं का एक मिथ्या विवरण प्रस्तुत करना जिसको उसने उसके द्वारा प्राप्त किये गये माल के साथ न्यस्त किया है; को अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध एक प्रबल परिस्थितियों के रूप में न्यस्त किया जा सकता है।

अपने स्वामी के माल का दुर्विनियोग करने से आरोपित किया गया एक सेवक के मामले में, दुर्विनियोग के दांडिक तत्वों को तभी स्थापित कर दिया जायेगा जब अभियोजन वह स्थापित कर देता है कि नौकर ने माल प्राप्त किया है और वह अपने स्वामी की सेवा करने के कर्तव्याधीन था किन्तु उसने वैसा नहीं किया है।

आपराधिक न्यास भंग के एक आरोप को स्थापित करने के लिए, अभियोजन पर उसको या जिस पर उसका आधिपत्य होता है, को सौंपी गयी सम्पत्ति के अभियुक्त द्वारा संपरिवर्तन, दुर्विनियोग या दुरुपयोग के संक्षिप्त ढंग को साबित करने के लिए कर्तव्याधीन नहीं होता है। अपराध के प्रमुख तत्व के बेईमान, दुर्विनियोग या संपरिवर्तन होने के परिणाम स्वरूप जो साधारणतया, न्यस्त की गयी सम्पत्ति के लिए लेखा-जोखा प्रस्तुत करने के लिए प्रत्यक्ष सबूत, सम्पत्ति का न्यास एवम् असफलता: आधार में एक उल्लंघन की एक वस्तु विषय नहीं हो सकता है।

यदि इन्हें साबित कर दिया जाए तो बेइमानी पूर्वक दुर्विनियोग या संपरिवर्तन का एक अनुमान करने की दिशा में नहीं न्यायोचित्यपूर्ण ढंग से नहीं से जाते हैं। आपराधिक न्यास भंग के अपराध के लिए एक की दोषसिद्धि उसे सौंपी गयी सम्पत्ति या जिस पर उसका आधिपत्य होता है; का विवरण प्रस्तुत करने की असफलता पर मात्र आधारित नहीं हो सकता है; जब एक लेखा-जोखा प्रस्तुत करने का भार भी उस पर अधिरोपित किया जाता है; तब जहाँ वह लेखा-जोखा को प्रस्तुत कर पाने में असफल रहता है वह अपनी इस असफलता का एक ऐसा कारण प्रस्तुत करता है जो असत्य है; वहाँ वह बेईमानीपूर्वक आशय के साथ दुर्विनियोग का एक सफलतम अनुमान लगाया जा सकता है।

धारा 13 के अधीन अपराध की परिभाषा, अभिव्यक्त तौर पर मस्तिष्क के बारे में प्रतिपादना धारण करती है। परिभाषा यह कथन करती है कि कार्य यह कि इस प्रकार से करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को अनुज्ञा प्रदान करने वाले या मिध्याव्यपदेश या संपरिवर्तन बेईमानीपूर्वक कारित किया जा चुका है।

यह अभियोजन के लिए असंभव होता है कि वह स्वतः की ओर से कतिपय वाद विषयों पर पूर्णतया विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत कर सकें और इसलिए उन पर साक्ष्य प्रस्तुत करना अभियुक्त के लिए नहीं है और यदि वह बच निकलने की इच्छा करता है। सकारात्मक तथ्यों को सदैव अभियोजन द्वारा साबित किया जाना चाहिए। लेकिन उसी नियम को सदैव नकारात्मक तथ्यों के ऊपर लागू नहीं किया जा सकता है।

अभियोजन के लिए उन सभी संभव बचावों या परिस्थितियों की सूचना देना या समाप्त करना संभव नहीं होता है जो एक अभियुक्त को दोषमुक्त कर सके। पुनः जब एक व्यक्ति उससे भिन्न किसी आशय के साथ कार्य नहीं करता है जो कार्य चरित्र एवम् परिस्थितियों का सुझाव देती है; तब अन्य सभी आशयों को समाप्त करने के लिए अभियोजन के लिए नहीं है। यदि एक अभियुक्त भिन्न आशय रखता था; तो यह कि एक तथ्य विशेष रूप से उसकी जानकारी के भीतर है और उसे अवश्यमेव साबित कर दिया जाना चाहिए।

एक पुराने मामले में कहा गया है कि दुर्विनियोग कारित करके आपराधिक अवचार की आवश्यकता, एक लोक सेवक के रूप में अभियुक्त के कर्तव्यों के निर्वहन में नहीं पड़ती है। जहाँ धन अभियुक्त के कब्जे एवम् नियन्त्रण में उस समय था जब वह एक लोक सेवक के रूप में कृत्य कर रहा था और धन का अभियुक्त का संदाय नहीं किया गया था यदि वह एक लोक सेवक नहीं था और यदि उसके नियन्त्रण में संपत्ति के आने के पश्चात् उसने दुर्विनियोग किया है; तो धारा 5 (1) (ग) के अधीन अपराध पूर्ण नहीं होता है।

विपिन चन्द्र महाराणा बनाम राज्य, एआईआर 1964 उड़ीसा 152 क्रि लॉ ज 688 के मामले में कहा गया है कि जहाँ एक अस्थायी वाह्य विभागीय शाखा पोस्ट आफिस में एक अस्थायी पोस्ट मास्टर ने धनादेशों के द्वारा भेजे जाने के लिए अनेक रकम को प्राप्त किया लेकिन, पोस्ट आफिस के लिए नियमों के 139 (4) नियम द्वारा यथापेक्षित दैनिक खाता पुस्तक में सुसंगत प्रविष्टियां नहीं किया और सात दिनों का विलंब किया।

हालांकि इसी बीच उसने खाता- पुस्तक में दूसरी प्रविष्टियाँ किया और अभियुक्त के द्वारा संतोषजनक स्पष्टीकरण विलम्ब का संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं प्रस्तुत किया या वहाँ मात्र यही अनुमान लगाया जा सकता था कि उसने ऐसी सम्पत्ति का दुर्विनियोग किया जो उसे प्रेषण के लिए सौंपी गयी थी और इसलिए वह धारा 5 (1) (ग) के अधीन एक अपराध के लिए दोषसिद्धि का उत्तरदायी माना गया।

हरगुन सुन्दर दास व अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य, एआईआर 1970 उच्चतम न्यायालय 1514 के मामले में कहा गया है-

इस अभिकथन के आधार पर दांडिक अवचार कारित करने के एक आपराधिक षडयंत्र के मामले में अभियुक्त ने जहाज से उन्मोचित किये गये समनुदेशन से गेहूँ के कुछ बोरों का स्वतः के प्रयोग में लेने के लिए बेईमानी पूर्वक ढंग से तथा कपटपूर्ण ढंग से दुर्विनियोग या संपरिवर्तन किया है। निःसंदेह साबित करने का भार नाकारात्मक तौर पर अभियोजन पर था और इस बारे में प्रश्न पर साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए अभियुक्त की ओर से असफलता, जब जहाँ और किसी को माल गिराने के बिन्दु पर, विवादित बोरों का परिदान किया गया वहाँ यह दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन विचारण करने वाली दाण्डिक न्यायालयों द्वारा उसके विरुद्ध किसी भी उपधारणा को किसी दूसरी विधि के अधीन नहीं आ सकता है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन मामले का विचारण की सुनवाई संहिता की धारा 342 (क) के अधीन वर्णित प्रावधानों के अनुसार ही सूचित करते हुए उन अभिलेख पर विद्यमान साक्ष्य तथा मामले की परिस्थितियों का मूल्यांकन करने में उनकी मानसिकता को अभियुक्त की ओर से ऐसी असफलता द्वारा प्रमाणित नहीं किया जाता है। उसका यह अर्थ नहीं होता है कि इसे नकारात्मक साबित करने का भार समुचित पारिस्थितिक साक्ष्य द्वारा उन्मोचित किये जाने के कारण समर्थ नहीं होता है।

यदि पारिस्थितिक साक्ष्य जो विश्वास करने योग्य है और जो त्रुटिविहीन निश्चितता के साथ ऐसे तथ्यों एवम् परिस्थितियों को स्थापित करता है जिसका समिश्रण, युक्तियुक्त पूर्ण परिकल्पना अभियुक्त के दोष से भिन्न किसी सुरक्षित अनुमान को स्वीकृत नहीं करता है तो उसके लिए कोई बचाव नहीं हो सकता है तथा न्यायालय विश्वसनीय ढंग से युक्तियुक्त संदेह के परे एक अधिमत को अभिलिखित कर सकता है।

वास्तव में न्यायालय इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि दुरभिसंधियों या संदेहों को विधिक सबूत का स्थान नहीं प्रदान करेगा तथा मामले की परिस्थितियोंको दृष्टिगत रखते हुए किसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा एक दोषसिद्धि को स्वीकृत करने के लिए साक्ष्य की श्रेणी को अवश्यमेव पूर्ण होना चाहिए तथा अभियुक्त की निर्दोपिता के संगत किसी भी युक्तियुक्त निष्कर्ष को स्वीकृति नहीं प्रदान करता है।

शरीफुल इस्लाम बनाम आंध्रप्रदेश राज्य, ए आई आर 1972 सुप्रीम कोर्ट 82 क्रि लॉ ज 199 के मामले में कहा गया है कि जहाँ अभियुक्त ने मिथ्यापूर्ण अभ्यावेदन प्रस्तुत करके अत्यधिक रकम को बरामद किया कि रकम सरकार को देय थी, वहाँ यह प्रश्न कि क्या धन के आधिक्य में अभियुक्त के बारे में यह कथन किया जा सकता था कि उसने न्यास भंग किया है। अतएव, यह अभिनिर्धारित किया गया कि रकम का वह भाग जिसकी बरामदगी अभियुक्त द्वारा की गयी. वह बिल्कुल सरकार को देय नहीं थी और इसलिए उस भाग के सन्दर्भ में, उसके बारे में यह अभिकथन किया गया कि उसने धोखाधड़ी करने का अपराध कारित किया लेकिन न्यास भंग नहीं किया था।

लेकिन एक मामले में जहां सरकार की ओर से देय धनराशि का संदाय उस संग्रहकर्ता अमीन के ऋणदाताओं द्वारा किया गया जिसने उसके द्वारा प्राप्त की गयी रकम के बाहर से मात्र उपेक्षावान खजाने में ऋण दिया वहाँ उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जब उसके द्वारा संग्रहीत रकम, सरकार की थी, उसके लिये अभियुक्त न्यास भंग का दोषी था।

कान्तीलाल गंदाशाह बनाम गुजरात राज्य, ए आई आर 1974 सुप्रीम कोर्ट 222 : क्रि लॉ ज 810 के मामले में अभियुक्त जो एक सहकारी समिति का एक सचिव था, समाज की ओर से 18.657 को 275 रुपये की रकम प्राप्त किया और इस रकम को समाज की पुस्तकों में उतार दिया गया। तदुपरान्त अभियुक्त की प्रेरणा पर एकाउन्टेन्ट ने यह प्रदर्शित करते हुए एक आरेखित प्रविष्ट किया कि पूर्ववर्ती प्रस्तुत की गयी ऋण की प्रविष्ट दोषपूर्ण थी।

अभियुक्त ने उपर्युक्त वर्णित दोनों प्रविष्टियों के अधीन अपने हस्ताक्षर प्रस्तुत किया ऐसी दशा में, यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ समाज की निधि के रूप में अभियुक्त के भारसाधन में थे वहाँ दोषपूर्ण आरेखित प्रविष्ट प्रस्तुत करने के लिए एकाउन्टेन्ट को उसके द्वारा दिया गया निर्देश मात्र इस अनुमान का संदेह करने योग्य था कि वह धन का दुर्विनियोग करना चाहता है।

बकरम सिंह बनाम राज्य, 1974 क्रि लॉ ज 418 के मामले में एक कम्पनी का निर्देशक, कंपनी की निधियों पर कोई डोमिनियन नहीं रख सकता है लेकिन क्या वह वास्तव में, प्रश्नगत डोमीनियन या आधिपत्य रखता है या नहीं? प्रत्येक मामले के तथ्यों एवम् परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इतने पर भी, जहाँ तक कंपनी के प्रबंधक निर्देशक का संबंध है तो यह अधिनियम के अधीन है। अतएव एक प्रबंध निर्देशक शेयर धारकों से प्राप्त की गयी रकम को सम्मिलित करने वाली कंपनी के संपत्ति पर प्रथम दृष्टया आधिपत्य रखता है।

दतू लेनू गायकवाड़ बनाम महाराष्ट्र राज्य, एआईआर 1974 सुप्रीम कोर्ट 383 क्रि लॉ ज 446 के मामले में अभियोजन ने यह प्रदर्शित करने के लिए किसी भी व्यक्ति को परीक्षित नहीं किया कि लेखा वही को नियमित तौर पर व्यापार के अनुक्रम में रखा गया था और न ही अपीलकर्ता को रकम की सुपुर्दगी को साबित करने के लिए लेखा पुस्तक के पेश किये जाने से पृथक कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं किया गया।

सुपुर्दगी का कोई साक्ष्य नहीं विद्यमान था, खाता रखने के डंग एवम् तरीके के संबंध में कोई साक्ष्य नहीं था, और इस प्रकार का भी एक सुजाव नहीं कि मामले को एक ओर या तो चिखली या बुलदाना पर मिलाये गये या अवरोधिक किये जाने के समय ता। यह प्रश्न करने का कोई प्रयास नहीं किया गया कि यदि सेवा में एक कर्मचारी न हो, तो कम से कम संव्यवहत किये गये कारोबार की प्रकृत एवम् खातों को बनाये रखने के तरीके की प्रकृति के बारे में लेखा-परीक्षक से कहा जा सकता था।

उसने इस सन्दर्भ में सूझबूझ का प्रयोग किया है कि क्यों उधार एवम् विकलन (Credit and Debit) किये जाते हैं। एक महत्वपूर्ण एवम् तात्विक पहलू के अभाव में यह अभिनिर्धारित करना असुरक्षित हो जाता है कि न्यास भंग का आरोप, अभियुक्त को घर तक पहुँचा दिया है।

एक अन्य मामले में अभियुक्त के विरुद्ध यह अभिकथन किया गया कि उसने एक लोक सेवक की हैसियत से सरकारी सम्पत्ति का बेईमानीपूर्वक ढंग से स्वतः के प्रयोग में लाकर उसका दुर्विनियोग किया हालांकि यह सम्पत्ति उसके शासकीय अधिपत्य या नियन्त्रण में थी। यदि प्रतिवादी या जीवन बीमा निगम, जिसकी ओर से प्रतिवादी कार्य करने का अभिप्राय रखता था, विशेषकर उस समय पालिसी के धारक के पास प्राप्त किये गये धन को कानूनी ढंग से प्राप्त करने का अधिकार नहीं था जब उसने रसीद प्राप्त किया, तो वह प्रतिवादी जिसको निश्चिततौर पर पालिसी धारक द्वारा इसको सुपुर्द किया गया उसके शासकीय सामर्थ्य के कारण द्वारा लेखा बुक में इसको प्रदर्शित किया जाना चाहिए था जिसको उसके द्वारा मिव्यापूर्ण सावित कर दिया गया। यह तर्क नहीं किया जा सकता था कि शासकीय सामर्थ्य में धन का दोषपूर्ण ढंग से प्राप्त किया जाना, एक लोक सेवक के रूप में प्राप्तकर्ता के ऊपर कोई आभार अधिरोपित नहीं करता है।

यह उस दशा में पर्याप्त होता जबकि संदाय एक लोक सेवक की हैसियत से उसके सामर्थ्य में एक लोक सेवक के साथ संव्यवहार करने वाले एक व्यक्ति द्वारा किया जाता है। इसके अलावा, यदि ऐसा संदाय भी एक त्रुटिपूर्ण परिकल्पना के आधार पर किया जाता है; तो वह लोक सेवक उसे हटाने के लिए कुछ नहीं करता है।

एक लोक सेवक की प्रदर्शनीय प्राधिकार के विस्तार में एक विधिक त्रुटि उस दशा में, एक लोक के रूप में उसके सामर्थ्य में एक लोक सेवक से आबद्ध किये जाने वाली एक आभार या एक सुपुर्दगी को नहीं रोकता है जहाँ सुस्थापित किये गये मामले के तथ्य उन कार्यों के मध्य दुरभि सन्धि या मेल होने की अपेक्षा करता था जो बाध्यताएं एवम् सामर्थ्य का सृजन करते हैं।

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