भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 12: लोक सेवकों द्वारा आपराधिक अवचार एवं उसके लिए दंड

Update: 2022-08-29 05:07 GMT

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 13 आपराधिक अवचार से संबंधित है। आम शब्दों में कहा जाए तो आपराधिक अवचार आपराधिक दुर्विनियोग के अपराध की तरह है। बस यहां पर किसी सरकारी संपत्ति के दुर्विनियोग का प्रश्न है।

शासकीय कार्यों के निष्पादन के लिए अनेक शासकीय संपत्ति लोक सेवकों के पास रहती है, यदि वह स्वयं को संपन्न करने के उद्देश्य से उस संपत्ति को दुर्विनियोग कर देता है तब धारा 13 के अधीन अपराध गठित होता है। इस आलेख के अंतर्गत भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की इस ही धारा पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

धारा 13

लोक सेवक द्वारा आपराधिक अवचार–

1 (1) कोई लोक सेवक आपराधिक अवचार का अपराध करने वाला कहा जाएगा

(क) यदि वह लोक सेवक के रूप में अपने को सौपी गई किसी सम्पत्ति या अपने नियंत्रणाधीन किसी सम्पत्ति का अपने उपयोग के लिए बेईमानी से या कपटपूर्ण दुर्विनियोग करता है या उसे अन्यथा संपरिवर्तित कर लेता है या किसी अन्य व्यक्ति को ऐसा करने देता है; या

(च) यदि वह अपनी पदावधि के दौरान अवैध रूप से अपने को साशय समृद्ध करता है।

स्पष्टीकरण 1- किसी व्यक्ति के बारे में यह उपधारणा की जाएगी कि उसने अवैध रूप से अपने को साशय समृद्ध बनाया है, यदि वह या उसकी ओर से कोई अन्य व्यक्ति अपनी पदावधि के दौरान किसी समय अपनी आय के ज्ञात स्रोतों से अनानुपातिक धनीय संसाधन या सम्पत्ति उसके कब्जे में है या रही है, जिसके लिए लोक सेवक समाधानप्रद रूप से हिसाब नहीं दे सकता है।

स्पष्टीकरण 2- पद "आय के ज्ञात स्रोत से किसी विधिपूर्ण स्रोत से प्राप्त आप अभिप्रेत है।

(2) कोई लोक सेवक जो आपराधिक अवचार करेगा ऐसी अवधि के कारावास से दण्डित किया जाएगा जो चार वर्ष से कम की नहीं होगी किन्तु जो दस वर्ष तक की होगी और जुमनि से भी दण्डित किया जाएगा।

यह अधिनियम, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन उन सभी के समान इस संहिता के अधीन अपराधों से पृथक् तथ्य के साथ नये अपराधों की रचना करता है। विधायिका ने उन लोगों को दण्डित करने के प्रयोजन के दृष्टिकोण से धारा 13 में एक विस्तृत परिभाषा देकर अपराध के कार्यक्षेत्र का विस्तार कर चुका है जिन्होंने लोक सेवक पद को धारण किये हुए और अपने शासकीय पद का लाभ लेते हुए, कोई मूल्यवान वस्तु या आर्थिक लाभ प्राप्त करते हैं।

अस्तित्वशील विधि, यह कि दण्ड प्रक्रिया संहिता को हमारे देश को लोक सेवकों में बढ़ते हुए रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार सदृश बढ़ती हुई कुरीतियों को दूर करने के लिए ये प्रावधान लोक सेवकों द्वारा कारित किये गये अपराधों, भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धाराओं 161 एवं 165 के अधीन अस्तित्वशील अपराधों को सम्मिलित करता है और अभियुक्त के विरुद्ध उपधारणात्मक साक्ष्य के एक नये नियम को अधिनियमित करता है। यह अधिनियम लोक सेवकों द्वारा दाण्डिक अवचार के नये अपराध की संरचना करता है, हालांकि यह कुछ सीमा तक यह पूर्व अस्तित्वशील अपराध पर अभिभावी लगा सकता है।

अरुण कुमार शर्मा बनाम स्टेट आफ एम पी, 2002 के मामले में याची के विरुद्ध आपराधिक मामला भारतीय दंड संहिता की धारा 409 तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13 के अन्तर्गत दर्ज किया गया। याची का हस्तलेख परीक्षण हेतु सरकारी हस्तलेख विशेषज्ञ के पास भेजा गया। हस्तलेख विशेषज्ञ की रिपोर्ट के अनुसार, चेको तथा दस्तावेजों पर याची का हस्तलेख होना नहीं पाया गया। याची द्वारा कहा गया कि उसके विरुद्ध गलत साक्ष्य तैयार करने के आशय से रिपोर्ट बदलने का प्रयास किया जा रहा है। याची ने न्यायालय के परिशीलन हेतु हस्तलेख विशेषज्ञ की रिपोर्ट मंगानी चाही।

उसके द्वारा स्वतन्त्र निष्पक्ष अन्वेषण अधिकारी की नियुक्ति का अनुतोष भी चाहा गया। अभिनिर्धारित किया कि पुलिस को अन्वेषण करने का कानूनी अधिकार है। अन्वेषण में हस्तक्षेप करने हेतु धारा 482 दंड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत उच्च न्यायालय की शक्ति के भीतर नही है। याचिका खारिज कर दी गयी।

जगदीश लालदास बडोले बनाम स्टेट ऑफ एम पी, 2008 (5) एम पी एच टी 268 (म प्र) के मामले में अभियुक्त जो असिस्टेट कन्ट्रोलर ऑफ इस्टेट ड्यूटी को 95,666/- रुपये कीमत की अनुपात हीन सम्पत्ति रखने के अपराध में पुराने अधिनियम की धारा 5 ( 1 ) एवं 5 ( 2 ) में दोषसिद्ध किया गया। अपीलार्थी की पत्नी के सोने एवं चांदी के जेवरों को जिसका मूल्य 60,400/ रुपये था को अनुपातहीन सम्पत्ति में शामिल किया गया। लेकिन उसे अनुपातहीन संपत्ति की उस सूची में नहीं सम्मिलित किया गया जो मंजूरी देने वाले प्राधिकारी के समक्ष प्रस्तुत की गयी थी।

ये जेवरात स्त्रीधन थे जो विवाह में प्राप्त हुए थे। यदि अधिक सम्पत्ति का मूल्य अभियुक्त की कुल आय का 10 प्रतिशत से कम है तो यह ठहराना उचित नहीं होगा कि अभियुक्त अनुपातहीन सम्पत्ति के कब्जे था। अब यह निर्णीत करना कि अभियुक्त के घर का क्या मूल्य था जरूरी नहीं है लेकिन इस बिन्दु पर साक्ष्य परीक्षण से यह प्रतीत होता है कि घर जिसकी कीमत 3,30,000/- रुपये आंकी गयी थी उसका मूल्य 1,75,000/- रुपये ही था जैसा कि आयकर विभाग ने आंका था। अभियुक्त की दोषसिद्धि असमर्थनीय थी। दोषसिद्धि तथा सजा अपास्त की गयी और अपील स्वीकृत की गयी।

एक मामले में यह घटना 30 वर्ष से और अधिक पहले हुई थी। अभियुक्त कैंसर से पीड़ित चल रहा था और स्वर रज्जु अर्थात् गले की शल्य चिकित्सा भी कराई थी। चूंकि अभियुक्त को इन वर्षों के दौरान अत्यधिक मानसिक तनाव एवं पीड़ा झेलनी पड़ी; इसलिए उच्च न्यायालय ने कारावास के दण्डादेश को अपास्त कर दिया तथा जुमनि को 2000/- रुपये से बढ़ाकर 3,000/- रुपये कर दिया।

इस अपराध में दंडादेश

इस अधिनियम की धारा 13 के अधीन होने वाले अपराधों में दस वर्ष तक के कारावास के दंड का उल्लेख है जो कम से कम चार वर्ष तक का हो सकता है।

लघुतर दंडादेश आरोपित करने के विशेष कारण

तरसेम लाल बनाम हरियाणा राज्य, (1987) एआईआर 1987 एस सी 806 के मामले में विशेष न्यायाधीश, मणिपुर ने अपीलार्थी को पुराने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5(1) (घ) के साथ पठित भारतीय दंड संहिता की धारा 120-ख के अधीन सिद्धदोष किया तथा उसे न्यायालय उठने तक के कारावास और 10,000/- रुपये के जुर्माने से दंडादिष्ट किया। अपील की जाने पर गुवाहाटी उच्च न्यायालय की न्यायपीठ ने उसे खारिज कर दिया किंतु विद्वान न्यायालय ने अपील का विनिश्चय करते हुए, एक मौखिक प्रार्थना की जाने पर, संविधान के अनुच्छेद 134 (ग) के अधीन इस न्यायालय में अपील करने की इजाजत प्रदान कर दी हालांकि उसने अंतर्ग्रस्त विधि विषयक प्रश्न विनिर्दिष्ट नहीं किया। अपील में नोटिस जारी करते समय अपीलार्थी से इस बाबत हेतुक दर्शित करने की अपेक्षा की गई कि उक्त दंड में वृद्धि क्यों न कर दी जाए।

यह तथ्य, कि अपीलार्थी भारतीय प्रशासनिक सेवा का एक ज्येष्ठ अधिकारी है, वास्तव में यह अपेक्षा करता है कि उसके प्रति नरम रुख अपनाने के बजाय गंभीर रुख अपनाया जाए। यह तथ्य कि उस पर अनेक व्यक्ति आश्रित है और वह अपने जॉब से हाथ धोने जा रहा है, असंगत बात है क्योंकि प्रायः हर मामले में दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति के आश्रित तो होते ही है और यदि ऐसा व्यक्ति कोई लोक सेवक है तो उसे अपने जॉब से भी हाथ धोना पड़ता है।

यह भी एक असंगत बात है कि यह अपराध उसका पहला अपराध है। हां, विलंब कुछ सुसंगत है तो भी चूंकि वर्तमान मामले जैसे मामलों में अन्वेषण में समय लग जाता है और तत्पश्चात् पेश किए जाने वाले साक्ष्य की प्रकृति और परीक्षित किए जाने वाले साक्षियों की संख्या के कारण विचारण लंबा खिंच जाता है। हालांकि न्यायालय के विचार से विलंब न्यूनतम विहित दंड में कुछ कमी किए जाने की अपेक्षा अवश्य करता है और इस मामले के तथ्यों के आधार पर न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति तब भी हो जाएगी यदि इस न्यायालय द्वारा जारी किए गए दंड में वृद्धि किए जाने के नोटिस के अनुसरण में, इस समय बिंदु पर पहुंचकर अपीलार्थी को छह मास के कठोर कारावास का दंडादेश दिया जाता है।

एस पी भटनागर बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1950] 1 एस सी आर 275 वाले मामले में सबूत के संबंध में अधिकाधित कसौटी का समाधान नहीं हुआ है। अतः उस मामले में किए गए अभिनिर्धारण के अनुसार निष्कर्ष निकालना उपयुक्त होगा। उक्त निर्णय के प्रति निर्देश करने पर यह दर्शित होता है कि इस न्यायालय ने पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित दोष के सबूत के संबंध में जिस मौलिक नियम का उल्लेख किया यह यह है कि पारिस्थितिक साक्ष्य के मामले में विधिक सबूत का स्थान अनुमान अथवा संशय द्वारा लिए जा सकने का खतरा हमेशा बना रहता है क्योंकि पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित मामलों में मस्तिष्क परिस्थितियों को एक दूसरे के अनुरूप ढालने में और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें किसी संपूर्ण श्रृंखला का भाग बनाने के लिए उसके साथ थोड़ी खींचतान करने में प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए कुशाग्र होता है।

तत्पश्चात् यह कथन कहा गया कि उन मामलों में, जिसमें साक्ष्य पारिस्थितिक साक्ष्य की प्रकृति का होता है, ये परिस्थितियां, जिनसे दोष का निष्कर्ष निकाला जाता है, प्रथमतः पूरी तरह से सिद्ध की जानी चाहिए और तत्पश्चात् इस प्रकार सिद्ध किए गए सभी तथ्य अभियुक्त के दोषी होने की परिकल्पना से संगत होने चाहिए।

इस ही मामले में शंकर लाल विश्वकर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य, (1991) उच्चतम न्यायालय के विनिर्णय का उल्लेखित किया गया, जिसमें 150/- रुपये की रिश्वत लेने वाले एक पटवारी को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन 1 वर्ष के कठोर कारावास और 100 रुपये के जुर्माने से तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 (2) के अधीन 2 वर्ष के कठोर कारावास और 150/- रुपये के जुर्माने से दण्डादिष्ट किया गया था।

उक्त पटवारी के दण्डादेश को उच्चतम न्यायालय ने घटाकर उतना कर दिया, जितना अभियुक्त भोग चुका था, किन्तु जुर्माने का दण्डादेश कायम रखा। यह मामला निम्नश्रेणी के पदाधिकारी का मामला था, जिसमें अभिकथित रिश्वत की राशि भी अल्प थी। जबकि प्रस्तुत मामले में अपीलार्थी सहायक जिला विद्यालय निरीक्षक जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण पद पर आसीन था और उसने 27,555/- रुपये की बहुत बड़ी धनराशि डकार ली है।

प्रस्तुत मामले की परिस्थितियों पर विचार करने पर, जिसमें अपीलार्थी शंकर लाल ने केवल दो दिन का कारावास भोगा है, उसके प्रति वैसा उदार दृष्टिकोण अपनाना संभव नहीं है, जिसके अनुसार उसके दण्डादेश की कालावधि घटाकर उतनी कर दी जाए, जितनी कालावधि का दण्डादेश वह भोग चुका है। अपीलार्थी जिम्मेदार अधिकारी था और उसने सरकार के साथ बड़ी धनराशि का गबन करके छल किया।

अपीलार्थी ने कभी भी उक्त धनराशि अथवा उसका भाग भी जमा नहीं किया, जिसके संबंध में उसने छल किया और न ही उसने हमारे समक्ष अपीलों की सुनवाई के समय उक्त धनराशि को जमा करने की कोई प्रस्थापना की। यह भी संदेहास्पद है कि अपीलार्थी 27,555/- रुपये की धनराशि का पुनर्संदाय करने की स्थिति में होगा कारावास के दण्डादेश को घटाने के लिए अपीलार्थी पर कुछ जुर्माना अधिरोपित करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।

अपीलार्थी पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 (1) (घ) (2) के अधीन अपराध के लिए एक वर्ष के और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के अधीन अपराध के लिए तीन वर्ष के कारावास का जो दण्डादेश अधिरोपित किया गया है, वह हमें पर्याप्त और उचित प्रतीत होता है।

एक अन्य मामले में रिश्वत की रकम स्वीकार करने के संबंध में संपूर्ण साक्ष्य का अधिमूल्यन किया जाना चाहिए अपीलार्थी द्वारा यह अपील दिल्ली के विशेष न्यायालय के निर्णय और आदेश के विरुद्ध की गई है। इस निर्णय द्वारा अपीलार्थी को दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 (जिसे संक्षेप में अधिनियम कहा गया है।) की धारा 5 (1) (घ) के साथ पठित धारा 5 (2) के अधीन दोषसिद्ध किया गया था और दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन 2 मास के कठोर कारावास से तथा अधिनियम की धारा 5 (1) (घ) के साथ पठित धारा 5 (2) के अधीन 2 वर्ष के कठोर कारावास और 100 रुपये के जुर्माने से दण्डाछिष्ट किया गया था। उसे जुमनि के संदाय के व्यतिक्रम में एक मास का कारावास भुगतने के लिए आदेश किया गया था और यह भी निदेश दिया गया था कि दण्डादेश एक साथ चलेंगे।

दण्ड संहिता की धारा 165 के द्वारा रिश्वत देने वाले व्यक्ति को रिश्वत के दुष्प्रेरण का दोषी बनाया गया है और इस प्रकार वह सह-अपराधी बन जाता है। इसलिए सोमानध (अभियोजन साक्षी 4) इस मामले का परिवादी, सह-अपराधी है जिसने अभियोजन की कहानी के अनुसार राजेन्द्र प्रसाद और सूबे सिंह द्वारा की गई मांग के अनुसरण में राजेन्द्र प्रसाद को रिश्वत दी थी इस बारे में विधि सुस्थिर है कि रिश्वत के मामले में परिवादी के परिसाक्ष्य का अपराध किए जाने से अभियुक्त को जोड़ने वाले स्वतंत्र साक्ष्य द्वारा तात्विक विशिष्टियों के बारे में संपुष्टि की जानी चाहिए।

इस बारे में पत्रलाल दामोदर राठी नाम महाराष्ट्र राज्य, ए आई आर 1979 एस सी 119 के मामले को निर्दिष्ट किया जा सकता है। यह बात भी सुस्थिर है कि इस बारे में निष्कर्ष निकालने के प्रयोजन के लिए कि क्या अभियुक्त ने रकम स्वीकार की थी या नहीं, विचारण में दिए गए संपूर्ण साक्ष्य का मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।

इस प्रकार अभियोजन के साक्ष्य साक्षियों की प्रतिपरीक्षा में प्रतिरक्षा द्वारा दिए गए सुझाव, प्रतिरक्षा द्वारा किए गए कथन और विचारण में परीक्षण किए गए प्रतिरक्षा साक्ष्य की यदि कोई हो, यह देखने के लिए संपूर्ण रूप से विचार करने की आवश्यकता है कि क्या एक मात्र निष्कर्ष यह हो सकता है कि अभियुक्त ने रिश्वत के रूप में रकम स्वीकार की थी।

किसी दिए गए मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करने के लिए न्यायालय परिवादी के परिसाक्ष्य को इतना अधिक प्रभावशाली पा सकता है जिससे कि वह पुलिस अधिकारियों से बरामदगी के संबंध में संपुष्टि होने पर विश्वास करने के लिए प्रेरित हो सके और न्यायालय किसी व्यक्ति को दोषी अभिनिर्धारित करने के निष्कर्ष पर भी पहुंच सकता है तथापि प्रस्तुत मामले में यह उपदर्शित करने वाली परिस्थितियाँ हैं कि परिवादी एक सच्चा साक्षी नहीं है और अभियुक्त अपीलार्थी द्वारा दिया गया प्रतिकूल कथन तर्कयुक्त है और अधिसंभाव्यता की प्रबलता द्वारा उस पर विचार करने पर वह सही हो सकता है।

इन परिस्थितियों से, जिनमें रिश्वत के धन का संदाय किया गया था, भिन्न रिश्वत के धन की केवल बरामदगी किसी अभियुक्त को दोषसिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी विशेषतः जबकि सारवान साक्ष्य विश्वसनीय न हो। इस संबंध में सूरजमल बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन), (1979) सुप्रीम कोर्ट केसेज 725 के मामले का निर्देश किया जा सकता है।

राजेन्द्र प्रसाद बनाम राज्य, (1991) उच्च न्यायालय 1068 (दिल्ली) के मामले में अदालत द्वारा कहा गया कि अपीलार्थी द्वारा अवैध परितोषण की मांग के संबंध में परिवादी के परिसाक्ष्य की संपुष्टि के लिए कोई साक्ष्य नहीं है। मैं इस तथ्य के बारे में सतर्क हूँ कि छापा मारने से पूर्व अवैध परितोषण की मांग के संबंध में कोई संपुष्टि नहीं हो सकती चूंकि उस समय कोई भी व्यक्ति अवैध परितोषण की मांग करने के बारे में साक्ष्य सर्जित करने के लिए अपने साथ कोई साक्षी नहीं ले जाता।

हालांकि इस मांग की संपुष्टि परिवाद करने के बाद के आचरण, छापा मार दल गठित करने और अवैध परितोषण की मांग तथा संदाय से हो सकती है। जैसे कि पहले चर्चा की जा चुकी है सोमनाथ परिवादी पर अपीलार्थी के सह-अभियुक्त सूबे सिंह द्वारा, जिसे अब दोषमुक्त कर दिया गया है। रिश्वत की मांग करने के बारे में अपने दावे के संबंध में भागतः अविश्वास किया गया है।

अपीलार्थी द्वारा रिश्वत की मांग युक्तियुक्त संदेह से परे साबित न होने से रिश्वत के रूप में अभियुक्त से धन की बरामदगी को संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। संपूर्ण साक्ष्य पर विचार करने के पश्चात् मुझे यह निष्कर्ष निकालने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि अतिसंभाव्यताओं की प्रबलता द्वारा अपीलार्थी ने यह सिद्ध कर दिया है कि उसने कोई अवैध परितोष प्राप्त नहीं किया था तथा उसके द्वारा प्राप्त चिड्डा को संदत्त किया जाना था जो सोमनाथ परिवादी द्वारा उसे देना था। इस प्रकार अभियोजन युक्तियुक्त संदेह से परे अपीलार्थी के विरुद्ध दोषसिद्धि करने में असमर्थ रहा है।

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