जानिए मुस्लिम विधि में हक़ शुफ़ा (अग्रक्रयाधिकार) से संबंधित प्रावधान

Update: 2020-05-20 04:05 GMT

अग्रक्रयाधिकार अर्थात हक शुफ़ा (Pre-emption right) कुछ स्थितियों में क्रेताओं के स्थान पर किसी अचल संपत्ति के अनिवार्य क्रय करने का अधिकार है। यह एक प्रकार का ऐसा अधिकार है जो किसी अचल संपत्ति से निकट का संबंध रखने वाले को उसके क्रय करने के संबंध में प्राप्त होता है।

मुस्लिम विधि में अग्रक्रय भी एक अधिकार बताया गया है। यदि कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति को विक्रय करता है तो ऐसी स्थिति में उस संपत्ति को क्रय करने का प्रथम अधिकार किसके पास होगा।

आधुनिक विधियां यह कहती हैं कि कोई भी व्यक्ति अपनी संपत्ति किसी को भी विक्रय कर सकता है और कोई भी उसे क्रय कर सकता है। संविधान के मूल अधिकारों में 44 वें संशोधन के पहले तक यह एक मूल अधिकार था परंतु संशोधन के उपरांत इसको मूल अधिकार से समाप्त कर दिया गया।

कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति को विक्रय तो कर सकता है परंतु उस संपत्ति को खरीदने का प्रथम हक़ कुछ व्यक्तियों को दिया गया है तथा वह व्यक्ति यदि उस संपत्ति में कोई हित रखते हैं तो ऐसी परिस्थिति में प्रथम रूप से उनके अधिकार रखने वाले व्यक्तियों को संपत्ति खरीदने का हुक्म दिया गया है।

पैगंबर साहब ने अपनी हदीस में अपनी संपत्ति को प्रथम अपने पड़ोसी या उस संपत्ति के हिस्सेदार को बेचने का हुक्म दिया है। पैगंबर साहब ने अपनी हदीस में मुसलमानों को यह एक प्रकार का नियम बताया है।

आधुनिक परिक्षेप में हम इसको इस तरह समझ सकते हैं जैसे किसी कॉलोनी में कुछ व्यक्ति रहते हैं। उस कॉलोनी में कोई रहवासी संघ बना हुआ है तथा कॉलोनी संघ के लोग चाहते हैं कॉलोनी के भीतर कोई बाहर का अनजान व्यक्ति आकर नहीं बस जाए तो ऐसी परिस्थिति में वह लोग भी आपस में समझौते कर लेते हैं कि यदि हम में से कोई संपत्ति बेचता है तो आपस में ही संपत्ति का क्रय विक्रय कर लें।

मुस्लिम विधि में हक शुफ़ा के नियम को उसी परिस्थिति में प्रवर्तन में लाया जा सकता है जब हक़ शुफ़ा का दावा करने वाला उन शर्तों पर जो शर्ते संपत्ति के विक्रय के संव्यवहार में रखी गयी है, संपत्ति खरीदने को तैयार हो।

गोविंद दयाल बनाम इनायतुल्लाह के वाद में न्यायमूर्ति महमूद के अवलोकन के अनुसार विधि में शुफ़ा किसी अचल संपत्ति के शांतिपूर्ण उपभोग के लिए इस अचल संपत्ति के स्वामी का अपनी संपत्ति के अलावा किसी अन्य अचल संपत्ति पर उन्हीं निर्बंधनो पर जिन पर दूसरे व्यक्ति को बेची गई हो क्रेता को प्रतिस्थापित करके मालिकाना कब्जा पाने का अधिकार है।

हक शुफ़ा का औचित्य

हक शुफ़ा के अधिकार के दो औचित्य हैं

1) शुफ़ा की विधि उन सुविधाओं और कठिनाइयों को रोकती है जो कि किसी अजनबी द्वारा सह स्वामी या पड़ोसी के रूप में आगमन से परिवारों को उत्पन्न हो सकती है।

2) उत्तराधिकार की मुस्लिम विधि पारिवारिक संपत्ति का विखंडन करने वाली प्रकृति की है और शुफ़ा विधि इसे काफी रोकती है।

शुफ़ा का अधिकार कब उत्पन्न होता है

विक्रय होने पर शुफ़ा का अधिकार उत्पन्न होता है। कोई भी संपत्ति जो शुफ़ा की विषय वस्तु है, उसका विक्रय होने के उपरांत ही शुफ़ा का अधिकार उत्पन्न होता है और ऐसी परिस्थिति में ही कोई शुफ़ा का अधिकार रखने वाला व्यक्ति शुफ़ा का दावा कर सकता है। जिस परिस्थिति में शुफ़ा से संबंधित वस्तु का विक्रय कर दिया गया है।

केवल विक्रय की परिस्थिति में ही हक शुफ़ा का अधिकार उत्पन्न होगा किसी अन्य परिस्थिति में नहीं

हक़ शुफ़ा से संबंधित कोई विषय वस्तु का यदि विक्रय किया जाता है तो ही ऐसी परिस्थिति में हक शुफ़ा का दावा किया जा सकता है। इस परिस्थिति के अलावा किसी भी अन्य परिस्थिति में हक शुफ़ा का दावा नहीं किया जाएगा।

यदि संपत्ति का स्वामी निम्न परिस्थिति में संपत्ति का अंतरण करता है तो ऐसी परिस्थिति में शुफ़ा का दावा उत्पन्न नहीं होगा।

दान (हिबा)

सदका

वक़्फ़

उत्तराधिकार

वसीयत

पट्टा (चाहे स्थाई हो)

बंधक चाहे वह सशर्त विक्रय के रूप में ही हो किंतु इस स्थिति में विक्रय होने पर शुफ़ा का उदय होता है।

विक्रय कब पूर्ण होता है

हक़ शुफ़ा संबंधी नियमों में विक्रय का होना महत्वपूर्ण है।

विक्रय संबंधी मुस्लिम विधि भारत वर्ष में लागू नहीं होती है। विक्रय संपत्ति अंतरण अधिनियम 1882 के द्वारा निर्मित होता है। इस अधिनियम की धारा 54 यह उपबंधित करती है कि ₹100 अधिक मूल्य की अचल संपत्ति का अंतरण रजिस्ट्रेशन के पूर्व पूर्ण नहीं होगा अर्थात किसी संपत्ति का रजिस्ट्रेशन हो जाने पर उसका विक्रय मान लिया जाता है।

राधाकिशन लक्ष्मीनारायण बनाम श्रीधर के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि जहां अंतरण पर संपत्ति अंतरण अधिनियम लागू हो वहां संपत्ति का अंतरण उसी अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होगा तथा मुस्लिम विधि या कोई अन्य व्यक्तिगत विधि अधिनियम पर अधिमान नहीं हो सकती।

अतः जब तक की अचल संपत्ति का स्वामित्व संपत्ति अंतरण अधिनियम के अनुसार क्रेता को अंतरित ना हो जाए तब तक शुफ़ा के अधिकार का प्रवर्तन का प्रश्न नहीं उठता है।

शुफ़ा का दावा कौन कर सकता है

मुस्लिम विधि में स्पष्ट किया गया है कि शुफ़ा का दावा किन व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है। ऐसा दावा करने वाले तीन व्यक्तियों को मुस्लिम विधि के अंतर्गत बताया गया है जो निम्न हैं-

शफ़ी ए शरीक़ (सह अंशधारी)

शफी ए शरीक का तात्पर्य होता है, संपत्ति में सह अंशधारी व्यक्ति जो सामान्य पूर्वज की संपत्तियों को उत्तराधिकार में प्राप्त करते है। ऐसी संपत्ति में सह अंशधारी होते हैं। यदि कोई सह अंशधारी संपत्ति को बेचता है तो दूसरा सह अंशधारी ऐसी संपत्ति पर शुफ़ा के अधिकार का दावा कर सकता है और एक से अधिक सह अंशधारी संयुक्त रूप से दवा कर सकते हैं।

पैगंबर साहब की तालीम के मुताबिक किसी भी व्यक्ति को संपत्ति में सह अंशधारी है उसे ही प्रथम रूप से संपत्ति को बेचा जाना चाहिए।

शफ़ी ए ख़लीत

यदि कोई व्यक्ति सुखाधिकार का अधिकार रखता है तो ऐसी संपत्ति पर शुफ़ा का अधिकार प्राप्त होता है। लादूराम बनाम कल्याण सहाय ए आर आई 1963 राजस्थान 195 के मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय ने अवलोकन किया है कि शफ़ी ए ख़लीत खरीद के रूप में शुफ़ा के अधिकार का दावा प्रकाश और हवा के आधार पर नहीं किया जा सकता और ऐसा अधिकार केवल मार्ग और जल के सुख अधिकार तक ही सीमित है। यदि किसी व्यक्ति को किसी संपत्ति के मार्ग या जल से संबंधित है तो ही शफी ए ख़लीत का दवा कर सकता है।

शफी ए ज़ार

शफ़ी ए जार का तात्पर्य होता है कि ऐसा व्यक्ति जो मिली हुई अचल संपत्ति का स्वामी हो, परंतु मिली अचल संपत्ति का किराएदार या ऐसा व्यक्ति जो की बिना वैध अधिकार के ऐसी संपत्ति पर कब्जा हो शफ़ी ए ज़ार की श्रेणी में नहीं आता। वक़्फ़ संपत्ति का मुतावली शुफा का दावा नहीं कर सकता क्योंकि वह वक़्फ़ संपत्ति का स्वामी नहीं होता है।

प्रथम श्रेणी के दावेदार रहते हुए दूसरी श्रेणी के दावेदारों को अपवर्जित करते हैं। और दूसरी श्रेणी के अग्रक्रेता तीसरी श्रेणी के दावेदारों को अपवर्जित करते है। परंतु विधि किसी एक श्रेणी के दावेदारों के बीच आपस में कोई ऐसी असमानता नहीं देती है। वह सभी समान रूप से शुफ़ा का दावा कर सकते हैं।

शिया विधि के अंतर्गत केवल शफ़ी ए शरीक ही शुफ़ा के अधिकार का दावा कर सकते है, और वह भी तब जब दो से अधिक दावेदार न हो।

हक शुफ़ा में संप्रदाय और धर्म का भेद

हक़ शुफ़ा का सिद्धांत और यह विधि एक मुस्लिम विधि है। इस विधि को मानने के लिए केवल मुस्लिम धर्म के लोग बाध्य हैं और शुफ़ा का दावा भी केवल मुस्लिम ही कर सकता है।

हक शुफ़ा का दावा उस परिस्थिति में हो सकता है, जिस परिस्थिति में दोनों पक्षकार मुस्लिम हो और मुस्लिम ही नहीं दोनों पक्षकारों का सुन्नी होना भी नितांत आवश्यक है। केवल शफ़ी ए ज़ार के अंतर्गत दावा शिया और सुन्नी दोनो पर समान रूप से किया जा सकता है।

भारतीय संविधान के अंतर्गत शुफ़ा की संवैधानिक वैधता

संविधान में शुफ़ा के अधिकार को मुस्लिम पर्सनल लॉ में मान्यता प्राप्त है। दो मुसलमानों को आपस में शुफ़ा का अधिकार प्राप्त होता है, परंतु शफ़ी ए ख़लीत और शफ़ी ए ज़ार गैरसंवैधानिक घोषित कर दिया गया। अर्थात अब पड़ोसी और किसी मिली हुई अचल संपत्ति वाले शुफ़ा का दावा नहीं कर सकते। कुछ कंडीशन में ही यह दावा स्वीकार है।

रज्जाक बनाम इब्राहिम के मुकदमे में शफ़ी ए ख़लीत के आधार पर शुफ़ा के दावे को गैरसंवैधानिक बताया गया है।

कोई भी व्यक्ति अब इस आधार पर दावा नहीं कर सकता के संपत्ति उसके मोहल्ले में है और वह संपत्ति में हित रखता है तो संपत्ति को खरीदने का अधिकार रखता है।

इस आधार पर अब हक शुफ़ा का दावा नहीं किया जा सकता। अब केवल सह अंशधारी ही किसी संपत्ति में हक शुफ़ा का दावा कर सकते हैं तथा हक शुफ़ा के दावे को सीमित कर दिया गया है। अब कोई मुस्लिम परिवार में यदि कोई संपत्ति है और वह विरासत की संपत्ति है उसमें अलग-अलग सह अंशधारी हैं तो ऐसी परिस्थिति में यदि कोई सह अंशधारी किसी अन्य व्यक्ति को अपना अंश बेच कर चला जाता है तो बाकी के सभी उस बेचने वाले के विरुद्ध शुफ़ा का दावा ला कर सकते हैं। 

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