जब कभी Unlawful assembly मतलब कोई गैर कानूनी भीड़ किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य के साथ कोई मारपीट कारित करके चोट पहुँचाती है तब अलग अपराध बनता है। रफीकभाई एस० डीडिया बनाम स्टेट आफ गुजरात, 2008 क्रि० लॉ ज० 1197 (गुज०) के मामले में यह अभिकथन किया गया था कि अपीलार्थीगण परिवादी को केवल इस कारण से अपमानित किये कि वह अनुसूचित जाति का सदस्य है। ग्रामीणों के लिए लगाये गये नल पर अपीलार्थीगण तथा परिवादी के बीच कुछ गर्मागर्म कहा सुनी हुई, परन्तु यह दर्शाने के लिए कोई वैध, सशक्त साक्ष्य नहीं था कि परिवादी को या तो अपमानित करने, धमकी देने या पीटने के लिए विधि विरुद्ध जमाव था।
मात्र उपस्थिति किसी व्यक्ति को विधि विरुद्ध जमाव का सदस्य नहीं बनायेगी। यह दर्शाने के लिए कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं था कि अधिनियम के प्रावधानों के अधीन दण्डनीय कोई अपराध बनता था और पुनः उपहति कारित करने के लिए किसी अपीलार्थी के विरुद्ध कोई सामग्री नहीं थी। प्रथम सूचना रिपोर्ट में मात्र दस व्यक्तियों को नामित करना तात्विक नहीं होगा। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अपीलार्थीगण की दोषसिद्धि अपास्त किये जाने के लिए दायी है।
एक मामले में धारित किया गया है कि दुष्प्रेरण के अपराध के लिए भारतीय विधि के अधीन यह आवश्यक नहीं है कि अपराध किया जाना चाहिए था। एक व्यक्ति दुष्प्रेरक के रूप में दोषी हो सकता है चाहे अपराध किया गया हो या नहीं।
फगुना कांता नाथ बनाम असम राज्य, ए० आई० आर० 1959 एस० 673 ई० जी० बारसे बनाम बाम्बे राज्य, ए० आई० आर० 1961 एस० सी० 1762, में यह धारित किया गया था कि जहाँ अभियुक्त अभियोग से दोषमुक्त कर दिया जाता है वहाँ यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त ने उक्त धारा के अन्तर्गत कोई अपराध कारित किया है और परिणामस्वरूप अपराध करने के लिए कार्य या लोप द्वारा साशय सहायता करने का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है।
एक मामले में, एक स्कूल के प्रधानाध्यापक ने हरिजन समुदाय के छात्रों के लिए एक पृथक वर्ग का गठन किया और इस प्रकार वे दूसरे समुदाय के छात्रों से अलग कर दिये गये थे ऐसा करने के लिए कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत नहीं किया गया था। इन तथ्यों के आलोक में कोर्ट ने यह धारित किया कि यह धारित करने में उपधारणा उत्पन्न होती है कि आरोपित कार्य अपृश्यता के आधार पर किया गया था।
उसकी प्रकृति एवं उन्मोचन करने का भार सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 12 के अधीन उपबन्धित उपधारणा खण्डनीय है। यदि अभियोजन यह साबित कर देता है कि अपराध गठित करने वाला कृत्य अनुसूचित जाति के सदस्य के सम्बन्ध में किया गया है और कृत्य का सम्बन्ध, सम्बन्धित जाति से है तब यह उपधारित करने का कोर्ट का दायित्व है कि उक्त कृत्य अपृश्यता के आधार पर किया गया था बशर्ते कि प्रतिकूत साबित नहीं किया गया है।
इस धारा के अनुसार दूसरी अवधारणा यह है कि यदि इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध करार दिए गए किसी कार्य को व्यक्तियों के समूह द्वारा उस संबंध में किया जाता है जहां भूमि से संबंधित कोई विवाद है तथा एक बड़ी भीड़ द्वारा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर कोई ऐसा अत्याचार रुप कार्य किया जाता है तब यहां पर यह माना जाएगा कि ऐसा कार्य सामान्य आशय में किया गया है। सामान्य आशय को साबित करने का भारी अभियोजन पर नहीं होगा अपितु अभियुक्त पर होगा कि वे साबित करें किस प्रकार का कार्य सामान्य आशय में नहीं किया गया था।
समाज में यह देखा गया कि अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर अत्याचार के संबंध में अनेक लोग बड़ी संख्या में एकत्रित होकर कोई अपराध कारित करते हैं या उनकी भूमि या उनकी संपत्ति से जुड़े किसी भी भाग में भारी संख्या में एकत्रित होकर कोई अपराध कारित करते हैं। इस धारा का अर्थ सामान्य आशय को साबित किए जाने की भार अभियोजन पर से समाप्त करना है अर्थात अभियोजन पर यह भार नहीं रहे कि उसे आरोपियों के संबंध में सामान्य आशय को भी सिद्ध करना पड़े।
यदि अभियुक्त यह अभिकथन करता है कि उसे पीड़ित की जाति का ज्ञान नहीं था अभियुक्त को अपने इस कथन को सिद्ध करना होगा तथा कोर्ट यह अवधारणा लेकर चलेगा कि अभियुक्त को पीड़ित की जाति का ज्ञान था तथा उसने यह अपराध पीड़ित की जाति के ज्ञान के होने के बाद भी किया है। अभियुक्त यह बचाव नहीं कर सकता कि उसे पीड़ित की जाति का ज्ञान नहीं है।