साक्ष्य अधिनियम: जानिए किसी मामले में साक्षियों (Witnesss) की संख्या पर क्या है कानून?
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में साक्षियों की संख्या को लेकर प्रावधान एक अलग धारा में प्रदान किया गया है। अधिनियम की धारा 134 इस विषय में प्रावधान करती है कि आखिर किसी मामले में साक्षियों की संख्या क्या होनी चाहिए। इसी धारा को मौजूदा लेख में हम समझने का प्रयास करेंगे और यह जानेंगे कि किसी मामले में साक्षियों (Witnesss) की संख्या पर क्या कानून है।
वास्तव में, यह धारा एक प्रकार का स्पष्टीकरण देती है कि किसी भी मामले में किसी तथ्य को साबित करने के लिए साक्षियों की कोई विशिष्ट संख्या अपेक्षित नहीं होगी। इसका सीधा सा मतलब यह है कि किसी तथ्य को साबित करने या उसे खारिज करने के लिए, न्यायालय का संबंध गुणवत्ता (Quality) से होगा, न कि आवश्यक साक्ष्य की मात्रा (Quantity) से।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि ऐसा अक्सर होता है कि एक अपराध केवल एक ही साक्षी की उपस्थिति में किया गया होता है। यदि हमारा कानून साक्षियों की बहुलता (Plurality) पर जोर देता, तो ऐसे मामले, जहां केवल एक ही साक्षी की गवाही, अपराध के सबूत में उपलब्ध हो सकती है, उसको अदालत द्वारा साबित करने की इजाजत नहीं दी जाती और वहां न्याय नहीं हो पाता, पर ऐसा हमारा कानून नहीं है।
वडिवेलु थेवर बनाम मद्रास राज्य 1957 AIR 614 के मामले में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 134 के मद्देनजर यह देखा गया था कि प्रत्येक मामले को उसकी परिस्थितियों और एकल गवाह (जहाँ सिर्फ एक साक्षी ही है) के साक्ष्य की गुणवत्ता पर निर्भर होना चाहिए जिसकी गवाही, अदालत द्वारा या तो स्वीकार या अस्वीकार की जानी है।
यदि इस तरह की गवाही/testimony अदालत द्वारा पूरी तरह से विश्वसनीय पाई जाती है, तो इस तरह के सबूत पर आरोपी व्यक्ति की सजा के लिए कोई कानूनी बाधा मौजूद नहीं है।
गौरतलब है कि, जिस प्रकार से किसी साक्षी की गवाही/testimony से किसी आरोपी व्यक्ति का अपराध सिद्ध हो सकता है, उसी प्रकार किसी साक्षी की गवाही/testimony के चलते आरोपी व्यक्ति की बेगुनाही भी स्थापित की जा सकती है, फिर भले ही कितने साक्षी अभियोजन की तरफ से गवाही देने के लिए अदालत के समक्ष आ जाएँ।
क्या है भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 134 का महत्व?
जैसा कि हमने समझा, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 134 के अंतर्गत साक्षियों की संख्या या मात्रा पर नहीं बल्कि उनकी गुणवत्ता पर जोर दिया जाता है और उसी से अदालत का लेना-देना होता है। इस धारा का मूल सिद्धांत ही यह है कि सबूतों को उनकी गुणवत्ता के मुताबिक तौला जाना चाहिए, न कि उन्हें उनकी मात्रा/संख्या के हिसाब से गिना जाना चाहिए।
भारतीय कानूनी प्रणाली, साक्षियों की बहुलता पर जोर नहीं देती है। न तो विधायिका (भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 134) और न ही न्यायपालिका का कोई ऐसा निर्णय है कि आरोपियों के खिलाफ सजा का आदेश दर्ज करने के लिए साक्षियों की कोई विशेष संख्या मौजूद होनी चाहिए।
हमारी कानूनी प्रणाली ने हमेशा मात्रा या साक्षियों की बहुलता के बजाय प्रमाणों के मूल्य, वजन और गुणवत्ता पर जोर दिया है और यह अदालत के तमाम निर्णयों में साफ़ होता आया है - नामदेव बनाम महाराष्ट्र राज्य (2007) 14 SCC 150।
गुलाम सरबर बनाम बिहार राज्य (2014) 3 SCC 401 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह देखा था कि यहाँ तक कि प्रोबेट मामलों में भी, जहां कानून को कम से कम एक गवाह की जांच की आवश्यकता होती है, यह आयोजित किया गया है कि अधिक गवाहों/साक्षियों का उत्पादन, किसी भी प्रकार से साक्ष्य के मूल्य को नहीं बढाता है। इस प्रकार, एकमात्र साक्षी की गवाही पर भी दोषसिद्धि आधारित हो सकती है, अगर उसकी गवाही अदालत के आत्मविश्वास को प्रेरित करती है।
अदालत का मुख्य परिक्षण क्या होना चाहिए?
सुनील कुमार बनाम एनसीटी ऑफ़ डेल्ही राज्य सरकार (2003) 11 SCC 367 के मामले में यह आयोजित किया गया था कि किसी भी मामले में अदालत के लिए परीक्षण यह होना चाहिए कि क्या साक्षी और उसके साक्ष्य में सच्चाई मौजूद है, एवं क्या वह ठोस, विश्वसनीय और भरोसेमंद है या नहीं। और जहाँ भी साक्षी को लेकर अदालत के मन में किसी प्रकार का कोई संदेह उत्पन्न होता है, वहां अदालत द्वारा संपुष्टि पर जोर दिया जाता है।
इसलिए अदालत का मुख्य परिक्षण यह नहीं होना चाहिए कि उसके समक्ष कितने साक्षी मौजूद हैं, बल्कि असल परिक्षण यह होना चाहिए कि जितने भी साक्षी मौजूद हैं क्या उनपर भरोसा किया जा सकता है और यदि वे भरोसे लायक हैं तो यदि एक अकेला साक्षी भी अदालत के समक्ष मौजूद है तो अदलात द्वारा उसपर भरोसा किया जा सकता है - बिपिन कुमार मोंडल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य AIR201O SC 3638 एवं चिकी @ बालचंद्रन बनाम तमिलनाडु राज्य AIR 2008 SC 1381।
उदाहरण के लिए, विथल पुंडलिक ज़ेन्द्गे बनाम महाराष्ट्र राज्य AIR 2009 SC 1110 के मामले में एक महिला के भाई की हत्या धारदार हथियार से कर दी गयी थी। वह महिला आरोपियों को जानती थी, उसने यह सब अपनी आँखों के सामने होते देखा था। उसने अदालत को विस्तार से यह बताया कि किस आरोपी ने क्या किया, और मृतक की हत्या करने में किसने क्या-क्या भूमिका निभाई। इसके अलावा, अदालत को उस महिला की हत्या के स्थान पर उपस्थिति भी स्वाभाविक लगी। अदालत ने अकेले महिला की गवाही पर आरोपियों की दोषसिद्धि की।
एकल साक्षी का साक्ष्य है मान्य
अब तक हम इस लेख में यह समझ चुके हैं कि जहाँ पर किसी मामले में केवल एक साक्षी भी मौजूद है, वहां उसके साक्ष्य पर भी भरोसा अदालत द्वारा किया जा सकता है और उसके आधार पर फैसला (दोषसिद्धि या अन्यथा) सुनाया जा सकता है। हालाँकि, उसका साक्ष्य विश्वास करने योग्य होना आवश्यक है।
यह बात भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 134 के अंतर्गत भी साफ़ की गयी है कि किसी भी मामले में किसी तथ्य को साबित करने के लिए साक्षियों की कोई विशिष्ट संख्या अपेक्षित नहीं होगी।
वहुला भूषण उर्फ़ वहुला कृष्णन बनाम तमिलनाडु राज्य AIR 1989 SC 236 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा एक व्यक्ति की दोषसिद्धि (जोकि एकल साक्षी के साक्ष्य पर आधारित थी) को उचित ठहराया गया था और यह कहा गया था कि यदि एकमात्र साक्षी का साक्ष्य सीधा है, ठोस है और वह अभियोजन के मामले को साबित करने के लिए पर्याप्त है तो उसके आधार पर आरोपी की दोषसिद्धि की जा सकती है।
गवाहों की बहुलता पर अदालत का नहीं रहा है जोर
जैसा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 134 साफ़ भी करती है, अदालातों द्वारा कभी भी किसी मामले में साक्षियों की बहुलता पर जोर नहीं दिया जाता रहा है। हाँ, अदालत के सामने मौजूद साक्षियों के साक्ष्य पर जब-जब अदालत को संदेह होता है उसकी संपुष्टि अवश्य अदालत द्वारा की जाती है, जिसे हमने समझा भी।
अवतार सिंह बनाम हरियाणा राज्य AIR 2013 SC 286 के मामले में जहाँ 2 गुटों के बीच झगडा हुआ, वहां तमाम साक्षी मौजूद थे, हालाँकि अदालत द्वारा यह साफ़ किया गया कि यह जरुरी नहीं था कि सभी साक्षियों का परिक्षण किया जाये।
इसी प्रकार, जहां कानून के अनुसार, कम से कम एक साक्षी के परिक्षण की आवश्यकता होती है, वहां यह माना गया है कि 1 से अधिक और ज्यादा से ज्यादा साक्षियों को अदालत के सामने लाने से साक्ष्य का वजन नहीं बढ़ जाता हैं – लक्ष्मीबाई बनाम भगवंत बुवा AIR 2013 SC 1204।
इसी प्रकार अन्य तमाम मामलों में भी अदालत द्वारा ठोस और भरोसेमंद साक्षियों को अधिक तरजीह दी जाती रही है क्योंकि यदि वे मामले को ठीक तौर से सच्चाई के साथ अदालत के सामने बता सकते हैं तो आखिर अदालत को क्या आवश्यकता कि वह तमाम साक्षियों का परिक्षण करे। आखिर अदालत का काम किसी भी मामले की तह तक जाकर उसकी सच्चाई ही तो उजागर करना है, और इसके पश्च्यात पीड़ित पक्ष के साथ न्याय करना है, और यदि यह कार्य करने में एक भरोसेमंद साक्षी द्वारा अदालत की मदद की जा रही तो उससे बेहतर कुछ भी नहीं है।