घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) में गृहस्थी और सांझी गृहस्थी का मतलब

Update: 2025-10-06 08:57 GMT

इस एक्ट में गृहस्थी का निश्चित अर्थ होता है एवं इस प्रकार इसे "घर" शब्द के साथ पारस्परिक परिवर्तनीय रीति से साधारण शाब्दिक अर्थों में अर्थावित नहीं किया जा सकता इसलिए प्रश्नगत संविधि में सीधे "गृहस्थी" शब्द को प्रयुक्त करने में विधायन को निवारित नहीं किया जा सकता शब्द घर के कई अर्थ होते हैं जिसमें से एक है। "लोगों के रहने के लिए मकान जो सामान्यतया एक परिवार के लिए होता है" जैसा कि आक्सफोर्ड एडवांस डिक्शनरी न्यू 7वां संस्करण में परिभाषित है अमेरिकन हेरिटेज डिक्शनरी "घर" को "एक या अधिक व्यक्तियों को खासकर एक परिवार के लोगों के रहने के लिए ढाँचा" के रूप में परिभाषित करती है।

शब्द "गृहस्थी" आक्सफोर्ड एडवांस डिक्शनरी न्यू, 7वां संस्करण में सभी लोग जो घर में एक साथ रह रहे हैं" की तरह परिभाषित है एवं अमेरिकन हेरिटेज डिक्शनरी में यथापरिभाषित "गृहस्थी" का अर्थ

(क) घरेलू इकाई जिसमें परिवार के सदस्य जो एक साथ गैर-नातेदार जैसे नौकरों के साथ रहते हैं

(ख) रहने का स्थान एवं अध्यासन जो ऐसी इकाई से सम्बन्धित हो

(2) व्यक्ति या लोगों का समूह जो एक निवास स्थान को अध्यासित करते हैं।

"साझी गृहस्थी" से ऐसी गृहस्थी अभिप्रेत है, जहाँ व्यथित व्यक्ति रहता है या किसी घरेलू नातेदारी में या तो अकेला या प्रत्यर्थी के साथ किसी प्रक्रम पर रह चुका है, और जिसके अंतर्गत ऐसी गृहस्थी भी है जो चाहे उस व्यक्ति व्यक्ति और प्रत्यर्थी के संयुक्ततः स्वामित्व या किरायेदारी में है, या उनमें से किसी के स्वामित्व या किरायेदारी में है, जिसके सम्बन्ध में या तो व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्त रूप से या अकेले, कोई अधिकार, हक, हित या साम्या रखते हैं और जिसके अधीन ऐसी गृहस्थी भी सम्मिलित है जो ऐसे अविभक्त कुटुम्ब का अंग हो सकती है जिसका प्रत्यर्थी इस बात पर ध्यान दिये बिना कि प्रत्यर्थी या व्यथित व्यक्ति का उस गृहस्थी में कोई अधिकार, हक या हित है, एक सदस्य है।

धारा 2 (ध) परिभाषित करता है कि "साझी गृहस्थी" का तात्पर्य ऐसी गृहस्थी से है जहाँ व्यथित व्यक्ति रहता है या किसी घरेलू नातेदारी में या तो अकेले या प्रत्यर्थी के साथ किसी प्रक्रम पर रह चुका है, और जिसके अंतर्गत ऐसी गृहस्थी भी है जो चाहे उस व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी के संयुक्ततः स्वामित्व या किरायेदारों में हैं, या उनमें से किसी के स्वामित्व या किरायेदारी में है, जिसके सम्बन्ध में या तो व्यक्ति व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्त रूप से या अकेले, कोई अधिकार, हक, हित या साम्या रखते हैं और जिसके अंतर्गत ऐसी गृहस्थी भी है जो ऐसे अविभक्त कुटुम्ब का अंग हो सकती है जिसका प्रत्यर्थी इस बात पर ध्यान दिये बिना कि प्रत्यर्थी या व्यथित व्यक्ति का उस गृहस्थी में कोई अधिकार, हक या हित है, एक सदस्य है।

"साझी गृहस्थी" जहाँ (1) व्यथित व्यक्ति किसी प्रक्रम पर घरेलू नातेदारी में रहता है या रह चुका है (जिसमें वैवाहिक या उसी प्रकार के सम्बन्ध एवं या घरेलू नातेदारी को परिभाषा में अभिव्यक्त रूप से प्रगणित सम्बन्ध ही आवश्यक रूप से नहीं शामिल होते हैं बल्कि "अविभक्त कुटुम्ब" के सदस्यों के बीच सम्बन्ध जो साझी गृहस्थी में अकेले प्रत्यर्थी के साथ रह चुके हैं, को भी शामिल करता है) चाहे एकल रूप से या प्रत्यर्थी के साथ एवं

(2) इसमें ऐसी गृहस्थी भी शामिल हैं जो चाहे व्यथित व्यक्ति के स्वामित्य में या किरायेदारी में प्रत्यर्थी एवं व्यथित व्यक्ति के द्वारा संयुक्त रूप से धारित हो या उनमें से किसी एक के स्वामित्व या किरायेदारी में हो जिसके सम्बन्ध में व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्त रूप से या अकेले, कोई अधिकार, हक, हित या साम्या रखते हैं, एवं

(3) इसमें ऐसी गृहस्थी भी शामिल हैं जो अविभक्त कुटुम्ब से सम्बन्धित हो जिसका प्रत्यर्थी एक सदस्य हो भले ही प्रत्यर्थी या व्यक्ति व्यक्ति साझी गृहस्थी में कोई अधिकार, हक या हित रखता हो।

इस प्रकार उक्त परिभाषा को विधायन के स्वीकार्य उद्घोषणा एवं महिलाओं को अपनी प्रतिष्ठा एवं मनोबल को अपनी जीवन शैली के अनुसार विनियमित करने के पर्याप्त उपचार प्रदान करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए अवलोकित करने की आवश्यकता होती है जो कि अब तक थी या पूर्णतया अपेक्षित थी, इसे जोर देने की कोई आवश्यकता नहीं है कि विधानमण्डल ने घरेलू हिंसा अधिनियम अधिनियमित कर अधिनियम की धारा 3 में परिगणित हिंसा के विभिन्न रूप के विरुद्ध भारतीय महिलाओं के लिए उनके मनोबल, प्रतिष्ठा एवं मर्यादा को प्रतिरक्षित करने के लिए गैर परम्परागत एवं अनूठे उपचार प्रदान करने का प्रयास किया है जो कि विधि में इससे पहले उपलब्ध नहीं था।

धनंजय रामकृष्ण गायकवाड यनाम सुनन्दा धनन्जय गायकवाड, 2016 के मामले में कहा गया है कि "साझी गृहस्थी" का तात्पर्य उस स्थान से है, जहां व्यक्ति व्यक्ति घरेलू सम्बन्ध में रहती है या किसी प्रक्रम पर रही है।

साझी गृहस्थी के अन्तर्गत वह गृहस्थी है, जो संयुक्त परिवार से सम्बन्धित है, जिसका प्रत्यर्थी सदस्य है।

पत्नी साझी गृहस्थी में निवास के अधिकार का दावा करने के लिए हकदार है और साझी गृहस्थी का केवल तात्पर्य पति से सम्बन्धित घर पर या पति द्वारा किराये पर लिए गए घर या उस घर से होगा, जो संयुक्त परिवार से सम्बन्धित है, जिसका पति सदस्य है।

साझी गृहस्थी की अवधारणा साझी गृहस्थी वह गृहस्थी है जहाँ व्यथित व्यक्ति रहता है या किसी घरेलू नातेदारी में या तो अकेले या प्रत्यर्थी के साथ उल्लेखित पद से सन्दर्भित किसी प्रक्रम पर रह चुका है। यह व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी के संयुक्तत: स्वामित्व या किरायेदारी में हो सकता है, जिसके सम्बन्ध में या तो व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्त रूप से या अकेले, कोई अधिकार, हक, हित या साम्या रखते हैं। इसके अतिरिक्त, साझी गृहस्थी अभिवक्त कुटुम्ब को भी शामिल करती है जिसमें प्रत्यर्थी अविभक्त कुटुम्ब का सदस्य है। इस परिभाषा के पठन से प्रदर्शित होता है कि यदि व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्ततः या अकेले साझी गृहस्थी के सम्बन्ध में कोई अधिकार, हक, हित या साम्या रखते हैं तो वह साझी गृहस्थी के लिए दावा कर सकती है।

जिस उद्देश्य के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम अधिनियमित किया गया था उसके उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए जो संविधान के अधीन प्रत्याभूत महिलाओं के अधिकार के प्रभावकारी संरक्षा प्रदान करने के लिए जो परिवार में रहने के कारण परिवार में घटित होने वाली हिंसा से पीड़ित हैं एवं इससे सम्बन्धित या समानार्थी मामलों के लिए "संयुक्त परिवार" की परिभाषा में प्रयुक्त अभिव्यक्ति "घरेलू नातेदारी" एवं 'साझी गृहस्थों' की परिभाषा का ऐसा निर्वाचन करना चाहिए, जो अधिनियम के उद्देश्य एवं घरेलू हिंसा के अधीन निश्चित अनुतोष प्राप्त करने के लिए संगत हो। इस प्रकार, "अविभक्त कुटुम्ब" अभिव्यक्ति का तात्पर्य ऐसी गृहस्थी से है जहाँ परिवार के सदस्य एक साथ रहते हैं एवं न कि हिन्दू विधि में संयुक्त परिवार" की तरह इसे समझा जाएगा। दूसरा निर्वचन देश में साझी गृहस्थी को बहिष्कृत करने की क्षमता रखता है जो कि अधिनियम के स्वीकार्य उद्देश्य के सम्बन्ध में विधायन का आशय नहीं हो सकता।

"अविभक्त कुटुम्ब" "इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका 2008" में निम्न रूप से परिभाषित है "संयुक्त परिवार ऐसा परिवार है जिसमें एकान्वयिक वंशानुक्रम के सदस्य ( एक समूह जिसमें स्त्री या पुरुष को पौढ़ो की पंक्ति पर जोर दिया जाता है) अपने दम्पति एवं संतति के साथ एक ही घर में सदस्यों के एक प्राधिकारी के अधीन एक साथ रहते हैं।

संयुक्त परिवार एकल परिवार (माता-पिता एवं आश्रित पुत्रगण) का विस्तार है एवं यह प्रारूपिक तौर पर विकसित होता है जब एक लिंग के बच्चे विवाह होने पर अपने माता-पिता का घर नहीं छोड़ते जबकि अपने दम्पत्ति को साथ रहने के लिए लाते हैं। इस प्रकार, पिता की ओर से पंक्ति के संयुक्त परिवार में वृद्ध व्यक्ति एवं उसकी पत्नी, उसके बच्चे एवं अविवाहित पुत्री, उसके पुत्र की पत्नी और बच्चे और अग्रेतर शामिल होते हैं। बीच की पौढ़ी में किसी व्यक्ति के लिए जो संयुक्त परिवार से सम्बन्धित है उसमें मूल परिवार (अर्थात् जिसमें उसका जन्म हुआ है) के वैवाहिक जीवन को संयुक्त करने से तात्पर्यित होता है। इस प्रकार, घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों को स्वीकार्य विधायी आशय के आलोक में अपने उचित पृष्ठभूमि में अर्थान्वित करने को आवश्यकता होती है।

शीर्ष न्यायालय द्वारा प्रतिपादित उपरोक्त प्रावधान व्यथित व्यक्ति-पत्नी को अपने श्वसुर द्वारा अर्जित एवं स्वामित्व को सम्पत्ति या परिसर में निवास करने के किसी अधिकार का दावा करने के लिए हकदार नहीं बनाता है, जिसमें पति को शामिल कर किसी को कोई दावा, अधिकार, या साम्या नहीं है। इस प्रकार, श्वसुर की आवासीय सम्पत्ति जो उसने अर्जित किया है, उसमें उसके पुत्र भी दावा नहीं कर सकते। श्वसुर जिस प्रकार चाहता है अपने अधिकार के अधीन व्यवहार करने के लिए। पूर्णतया स्वतंत्र होता है।

वाक्यांश "संयुक्त परिवार" को धारा 2 (च) के अधीन "घरेलू नातेदारी" की परिभाषा में स्थान प्राप्त है जिसे किसी के द्वारा वाकपटुता से नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। वाक्यांश "संयुक्त परिवार" उक्त संविधि में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। एवं भारतीय समाज के समकालीन संदर्भों में साधारण अर्थों में स्मरणातीत समय से शास्त्र एवं पुराण ने इसे मान्यता प्रदान किया है एवं एकल परिवार की तुलना में संयुक्त परिवार के प्रति प्रोत्साहन दिया है, इसका अग्रेतर विस्तार की कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार, कोई भी इसे सुरक्षित रूप से निष्कर्षित कर सकता है कि 'घरेलू नातेदारी' उपधारा में परिगणित विशिष्ट नातेदारी तक आवश्यक रूप से सीमित रहने की आवश्यकता नहीं होती यह अविभक्त कुटुम्ब में साझी गृहस्थी के परिवार के सदस्यों के बीच नातेदारों को अपने विस्तार में लेती है।

निःसन्देह धारा 2 (ध) के अधीन निर्दिष्ट परिवार की "संयुक्त" प्रास्थिति का सजातीय अर्थ है। सामान्य भाषा में, "संयुक्त परिवार" में लोगों का समूह होता है, जो या तो रक्त या विवाह या एक ही घर में रहने के कारण सम्बन्धित होते हैं। इस प्रकार का दृष्टान्त कमोवेश सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। भारत में सामान्य व्यवहार यह है कि पुत्र और उसको पत्नी विवाह के बाद (पति के) माता-पिता के घर में निवास करते हैं हालांकि जैसे ही बच्चे वयस्कता की आयु प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही उनके पालन-पोषण के प्रति उनका विधिक आभार समाप्त हो जाता है, माता-पिता एवं बच्चे के बीच विधिक सम्बन्ध जारी रहता है। "संयुक्त परिवार" की संकल्पना विधितः हिन्दू विधि में अतुलनीय होती है।

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