आपराधिक मामलों में अदालत द्वारा संज्ञान लिए जाने की परिसीमा

Update: 2022-10-20 04:01 GMT

अदालत द्वारा किसी भी प्रकरण का संज्ञान लिए जाने के लिए एक समय अवधि होती है। जैसे कि सिविल मामलों में परिसीमा अधिनियम न्यायालय में वाद लाने का समय निर्धारित करता है, इस ही प्रकार आपराधिक मामलों में भी संज्ञान लेने की एक समयावधि है। यह दंड प्रक्रिया संहिता से प्रावधानित होता है। इस आलेख में आपराधिक मामलों में परिसीमा से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा की जा रही है।

मामलों के त्वरित विचारण एवं निस्तारण के लिए संज्ञान की भी परिसीमा निर्धारित कर दी गई है। निर्धारित परिसीमा के बाद न्यायालय द्वारा अपराध का संज्ञान नहीं लिया जा सकेगा। यह इसलिये भी आवश्यक है ताकि

(i) परिवादी परिवाद पेश करने अथवा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में अनावश्यक विलम्ब नहीं करे, तथा

(ii) अन्वेषण में भी अनावश्यक समय नहीं लगे।

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 468 से 473 तक में संज्ञान की परिसीमा के बारे में प्रावधान किया गया है। संज्ञान के लिए परिसीमा संहिता की धारा 468 में यह प्रावधान किया गया है कि कोई भी न्यायालय निर्धारित समयावधि के बाद किसी अपराध का संज्ञान नहीं ले सकेगा।

संज्ञान के लिए परिसीमा काल निम्नानुसार है-

(i) केवल जुर्माने से दण्नीय अपराध के लिए छः माह

(ii) एक वर्ष से अनधिक अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराधों के लिए : एक वर्ष

(iii) एक वर्ष से अधिक किन्तु तीन वर्ष से अनधिक अवधि के कारावास से तीन वर्ष दण्डनीय अपराधों के लिए: दो वर्ष

इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि तीन वर्ष से अधिक अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराधों के लिए संज्ञान हेतु परिसीमा काल निर्धारित नहीं है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि परिसीमा काल केवल संज्ञान लेने के लिए है. आदेशिका जारी करने के लिए नहीं।

संज्ञान के लिए समयावधि की गणना परिवाद दायर करने की तिथि से की जायेगी, न कि संज्ञान लेने की तिथि अथवा आदेशिका जारी किये जाने की तिथि सेम यदि संज्ञान के लिए विलम्ब को माफ किया जाता है तो अभियुक्त को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाना आवश्यक होगा।

'नरेश प्रतापसिंह बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मात्र विलम्ब के आधार पर किसी परिवाद को खारिज नहीं किया जाना चाहिये। परिसीमा के बिन्दु को आरोप की गंभीरता के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिये। परिसीमा काल का प्रारम्भ धारा 469 में परिसीमा काल के प्रारम्भ के बारे में प्रावधान किया गया है।

इसके अनुसार परिसीमा-

(1) अपराध की तारीख से प्रारम्भ होगा।

(2) जहाँ अपराध कारित किये जाने की जानकारी पीड़ित व्यक्ति अथवा पुलिस अधिकारी को नहीं है, वहाँ परिसीमा काल उस दिन से प्रारम्भ होगा जिस दिन ऐसे अपराध की जानकारी पीड़ित व्यक्ति अथवा पुलिस अधिकारी को होती है, इनमें से जो भी पहले हो।

(3) जहाँ यह ज्ञात नहीं है कि अपराध किसने किया है, वहाँ परिसीमा काल उस दिन प्रारम्भ होगा जिस दिन प्रथम बार अपराधी का पता पीड़ित व्यक्ति को या अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी को चलता है, इनमें से जो भी पहले हो ।

उक्त अवधि की संगणना में, उस दिन को सम्मिलित नहीं किया जायेगा, जिस दिन ऐसी अवधि की संगणना की जानी है।

जहाँ तक अपराध कारित किये जाने के ज्ञान होने का प्रश्न है, यह उल्लेखनीय है कि वास्तव में ऐसा ज्ञान होना चाहिये, केवल कल्पना मात्र नहीं है।

समय का अपवर्जन

धारा 470 में समय के अपवर्जन के बारे में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार परिसीमा काल की संगणना में से निम्नांकित समय अपवर्जित कर दिया जायेगा (क) वह समय, जिसके दौरान कोई व्यक्ति सम्यक् तत्परता से किसी अपराधी के विरुद्ध अभियोजन चला रहा था। सम्यक् तत्परता से अभिप्राय सद्भावपूर्वक अभियोजन चलाने से है। जहाँ तक सद्भावपूर्वक अभियोजन चलाने का प्रश्न है, यह एक तथ्य का प्रश्न है।

(ख) यह समय जिससे कि अभियोजन का संस्थित किया जाना किसी व्यादेश अथवा आदेश द्वारा रोक दिया गया है। व्यादेश अथवा आदेश के अभाव में तथाकथित लाभ नहीं मिलेगा।

(ग) वह समय, जो अभियोजन संस्थित करने के पूर्व अपराध की सूचना देने में अथवा सरकार या किसी प्राधिकारी से अनुमति प्राप्त करने में लगा है।

(घ) वह समय, जिसके अन्तर्गत कोई अपराधी अपने आपको गिरफ्तारी से बचाने के लिए भारत से अथवा केन्द्रीय सरकार के अधीन किसी राज्य क्षेत्र से अथवा केन्द्रीय सरकार के अधीन किसी राज्य क्षेत्र से अनुपस्थित रहा है, अपने-आपको छिपाता रहा है अथवा फरार रहा है। उपरोक्त सभी बातों को सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होगा, जो अपवर्जन का लाभ प्राप्त करना चाहता है।

धारा 471 में यह कहा गया है कि यदि परिसीमा काल उस दिन समाप्त होता है, जब न्यायालय बन्द है, तो न्यायालय उस दिन संज्ञान ले सकेगा जिस दिन न्यायालय पुनः खुलता है।

कोई न्यायालय बन्द है या खुला, यह एक तथ्य का प्रश्न है-

फिर धारा 471 केवल समय का अपवर्जन करती है, परिसीमा काल में वृद्धि नहीं।

चालू रहने वाला अपराध -

संहिता की धारा 472 में यह कहा गया है कि- किसी चालू रहने वाले अपराध की दशा में नया परिसीमा काल उस समय के प्रत्येक क्षण से प्रारम्भ होगा जिसके दौरान अपराध चालू रहता है। कई अपराध ऐसे होते हैं जो निरन्तर चलते रहते हैं। ऐसे अपराधों में परिसीमा काल का प्रारम्भ उस प्रत्येक क्षण से होता रहेगा जब तक ऐसा अपराध बना रहेगा, जैसे- आपराधिक अतिक्रमण आपराधिक अतिक्रमण के मामलों में परिसीमा काल का प्रारम्भ उस प्रत्येक क्षण से होता रहता है जब तक ऐसा अतिक्रमण बना रहता है।

परिसीमा काल का विस्तार

धारा 473 परिसीमा काल में विस्तार के बारे में प्रावधान करती है। इसके अनुसार संज्ञान के लिए परिसीमा काल समाप्त हो जाने के बाद भी न्यायालय द्वारा किसी अपराध का संज्ञान लिया जा सकेगा, यदि-

(i) विलम्ब का पर्याप्त कारण रहा है, तथा

(ii) न्याय हित में ऐसा किया जाना आवश्यक है।

नरेश प्रतापसिंह बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि मात्र विलम्ब के आधार पर किसी परिवाद को खारिज नहीं किया जाना चाहिये। परिसीमा के बिन्दु को आरोप की गंभीरता के संदर्भ में देखा जाना चाहिये।

फिर न्यायालय द्वारा भी इस शक्ति का न्यायिक तौर पर प्रयोग किया जाना अपेक्षित है।

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