Consumer Protection Act में किसी भी कंप्लेंट के लिए Limitation

Update: 2025-05-31 09:54 GMT

सभी सिविल मामलों की तरह इस एक्ट में भी Limitation से संबंधित प्रावधान है जो यह तय करते हैं कि किसी भी कप्लेंट को किस समय सीमा के भीतर फोरम के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा इस एक्ट की सेक्शन 69 Limitation के संबंध में प्रावधान करती है जो इस प्रकार है-

(1) जिला आयोग, राज्य आयोग या राष्ट्रीय योग कोई परिवाद स्वीकार नहीं करेगा, यदि यह तारीख से जिसको बाद हेतुक उद्भूत हुआ है, दो वर्ष की अवधि के भीतर फाइल नहीं किया जाता है।

(2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट अवधि के पश्चात् परिवाद स्वीकार किया जा सकेगा, यदि परिवादी यथास्थिति, जिला आयोग, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग का यह समाधान कर देता है कि उसके पास ऐसी अवधि के भीतर परिवाद फाइल न करने का पर्याप्त कारण या

परंतु यह कि ऐसा कोई परिवाद स्वीकार नहीं किया जाएगा, जब तक राष्ट्रीय आयोग, राज्य आयोग या जिला आयोग, ऐसी देरी को क्षमा करने के कारणों को अभिलेखबद्ध नहीं करता।

भारतीय जीवन बीमा निगम एवं अन्य बनाम पूरन चन्द्र जैन एडवोकेट के मामले में कहा गया है कि यदि धारा 24-क को पढ़ा जाए, तो इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता है कि वाद हेतुक के लिए तीन वर्षों की कालावधि की परिसीमा, इस धारा के अधीन जैसे कि उल्लिखित किया गया है, कथित धारा के अन्तःस्थापन ने जो घटाकर दो वर्ष कर दिया है, के पहले उद्भूत हुई थी।

अपीलीय राज्य आयोग ने यह राय व्यक्त किया कि परिवादी के लिए वह Limitationकी कालावधि जिसके लिए वाद हेतुक कथित धारा के अन्तःस्थापन के पहले उद्भूत हुआ को तिथि से प्रगणित किया जाने के लिए तीन वर्ष होना जारी रहेगा जिस तिथि पर इसका जन्म हुआ। अंततोगत्वा राज्य आयोग ने जिला फोरम के इस निर्णयादेश को अवैधानिक एवम् संघृत करने योग्य नहीं माना जिसके द्वारा समय द्वारा वर्जित होने के कारण 15.7-1992 पर क्रय किये गये टी० वी० सेट के लिए 19.4.1995 पर दायर किये गये परिवाद को पारिन कर दिया गया था। अतएव, अपील स्वीकृत कर दी गयी।

एक अन्य मामले में जहाँ परिवादी ने जीवन बीमा पालिसी की परिपकता रकम का दावा किया और जहाँ पर पालिसी सन् 1978 में ही परिपक्क हो चुकी थी जबकि इस पालिसी की रकम के बाबत दावा बाद सन् 1991 में दायर किया गया वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि जिला फोरम के पास इस प्रकृति के पुराने दावा बाद को विचारणार्थ ग्रहण करने की अधिकारिता नहीं थी और इसलिए दावे को स्वीकृति प्रदान करने वाले प्रश्नगत् आदेश को अपास्त करने योग्य माना गया।

हालांकि परिवादी ने बैंक की गारण्टी का अवलम्ब लिया; देखे पत्र दिनांकित 15.2.1992 को लेकिन बैंक ने स्वयम के दायित्वाधीन होने के तथ्य का प्रत्याख्यान किया। इन सभी परिस्थितियों मे परिवादी के द्वारा संस्थित किये गये परिवाद के सन्दर्भ में इस मत का अभिनिर्धारण किये जाने के दौरान समर्थन किया गया कि वह परिवाद Limitationके भीतर ही दायर किया गया था।

परिवादी ने लाकर में गड़बड़ी होने के लगभग 3 वर्ष एवं कुछ माह बीत जाने के पश्चात् परिवाद प्रस्तुत किया। परिवादी का परिवाद Limitationवर्जित होने के कारण निरस्त किये जाने योग्य माना गया।

Limitationकी विहित अवधि में से उस अवधि को मुक्त करके सिविल कोर्ट में दावा प्रस्तुत किया जा सकता है जो कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही किये जाने में व्यतीत हुआ हो।

जहां, 2,03,90/- रुपये के मूल का माल बैंक से सेवानिवृत्त होने से सम्बन्धित दस्तावेजो को परेषिती को परेषित करने के लिए विरोधी पक्षकार द्वारा पारित किया गया वहां परिवादी ने बकाया संदाय का समाशोधित करने के लिए 17-4 1998 को नोटिस जारी कर चुका था लेकिन कोई संदाय नहीं किया गया। अपीलीय कोर्ट द्वारा निचली कोर्ट द्वारा दाखिल किये गये परिवाद को कालवर्जित होने के कारण खारिज किये जाने के आदेश को न्यायसंगत माना गया।

समयवर्जित मानकर परिवाद को निरस्त कर दिया गया। राज्य आयोग ने व्यक्त किया कि न तो अभिवचन में और न दस्तावेज के रूप में कोई सामग्री दर्शित की गयी जिससे यह पाया जाता हो कि कन्साइन्मेंट किसी विशिष्ट तिथि को आ गया हो जिसके आधार पर 2 वर्ष की विनिर्दिष्ट अवधि की गणना की जा सके। फलस्वरूप परिवाद कालबाधित माने जाने का आदेश अपास्त कर दिया गया।

ओम प्रकाश बनाम ब्रान्व मैनेजर, अन्ना ग्राम फाइनेंस लिए व अन्य, 2013 के मामले में कहा गया है कि जहां परिवाद 10 वर्ष पश्चात् दाखिल किया गया और विलम्ब को दोषमार्जित करने का कोई युक्तियुक्त एवं पर्याप्त कारण नहीं प्रस्तुत किया गया वहां परिवाद को खारिज करने में जिला फोरम तथा राज्य आयोग को सही माना गया।

चूंकि जिला फोरम के समक्ष परिवाद Limitationकी कालावधि से परे दाखिल किया गया इसलिए पालिसी परिवादी को कोई भी अनुतोष प्रदान किये जाने से इंकार कर दिया गया।

प्रस्तुत मामले में परिवादी को सही हैसियत साथ एअर टिकट के बावजूद भी एमस्टर्म के लिए दिल्ली से विदेशी उड़ान की नहीं अनुज्ञा प्रदान की गयी प्रतिकर का दावा किया गया। टिकट 18-2-2000 को खरीदा गया और विदेशी यात्रा पर जाने का प्रत्याख्यान 6-3-2000 को कर दिया गया। जहां परिवाद 5-2-2002 को दाखिल किया जो बाद हेतुक की तारीख यह कि 6-3-2000 से दो महीने के अन्दर दाखिल किया गया; वहां परिवाद को Limitationके अन्दर होना माना गया।

Limitationअवधि जहां उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 24 क के अधीन Limitationकी विनिर्दिष्ट कालावधि दो वर्ष है, Limitationअधिनियम, 1963 के अधीन Limitationअवधि में जोखिम उठाने की आवश्यकता नहीं है।

ईमानदान उपभोक्ता का वास्तविक दावा Limitationके तकनीकी के धार पर विस्त अनुज्ञात नहीं किया जाना चाहिए।

एक प्रकरण में परिवादी द्वारा सन् 1988 में बैंक ड्राफ्ट जमा किया गया परन्तु बैंक ट्राल की धनराशि परिवादी के खाते में जमा नहीं हुई। परिवादी द्वारा बैंक अधिकारियों से म समय पर इस बारे में पत्र व्यवहार किया जाता रहा 1995 में परिवाद संस्थित किया गया। परिवाद समय वर्जित नहीं है क्योंकि परिवादी अब भी बैंक की मुवक्किल है।

Limitationअवधि का विस्तार तब तक जारी रहता है जब तक वाद हेतुक जारी रहता है। जब तक परिवादी के अधिकार के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जाती तब तक वाद हेतुक जारी रहता है।

Limitationकी कालावधि निराकरण की तारीख से चलती है, न कि हानि की तारीख तक परिसीमिति रहेगी।

धारा 24 के के प्रावधानों के अधीन परिवाद को ग्रहण करने के समय यह देखने की उपभोक्ता फोरमों के अपेक्षा करने वाली प्रकृति में स्पष्टरूपेण आज्ञापक है कि क्या इसको वाद हेतुक की तारीख से दो वर्ष के अंदर स्थित कालावधि के अंदर दाखिल किया गया है और इस Limitationकी कालावधि में अपीलार्थी द्वारा आवेदन पत्र प्रस्तुत करके वृद्धि नहीं करवायी जा सकती है।

यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि किसी उपभोक्ता सम्बन्धी परिवाद को 2 वर्षों की एक विहित Limitationके परे प्रस्तुत किया जाता है तो उपभोक्ता फोरम ऐसे परिवाद नहीं ग्रहण कर सकता है।

अपील प्रस्तुत अपील समय बाधित थी तथा अपील प्रस्तुति में 118 दिन का बिलम्ब हुआ था जिसका आधार बीमारी बताया गया लेकिन अपीलार्थी के द्वारा बीमारी के बारे में कोई चिकित्सीय प्रमाण पत्र नहीं प्रस्तुत किया। निर्णीत कि विलम्ब माफ नहीं किया गया।

वाद कारण 1991 में उत्पन्न हुआ तथा परिवाद 1995 में प्रस्तुत किया गया। परिवाद विलम्ब से प्रस्तुत करने हेतु क्षमा का आधार विधि की जानकारी न होना दर्शाया गया निर्णीत कि क्षमा करने का यह आधार मान्य नहीं होगा।

परिवाद जो आवास परिषद के द्वारा प्रस्तुत किया गया था समय वाधित पाया गया। विलम्ब हेतु कारण यह दर्शित किया गया कि मुख्यालय से टिप्पणी प्राप्त होने में विलम्ब हो गया। विलम्ब क्षमा किए जाने की उपयुक्त मामला होना माना गया।

अपील दाखिल करने में विलम्ब के लिए विधिक राय ग्रहण करने का कारण माफ करने के लिए उचित नहीं है।

जहां परिवादी द्वारा दायर किया गया Limitationदवारा स्पष्ट रूप से वर्जित था और विलम्ब दोष मार्जन के लिए एक आवेदन पत्र के अभाव में, इसको न्यायनिर्णयन के लिए नहीं स्वीकृत किया जा सकता था।

राष्ट्रीय आयोग ने राज्य आयोग के इस प्रेक्षण को सही माना कि परिवाद 4 वर्ष एवं 6 महीने पश्चात् सेवा में कमी के आधार पर दाखिल किया गया था और वह कालवर्जित था। अतएव पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गयी।

श्रीमती सोना मोनी विश्वास व अन्य बनाम पीयरलेस डेदरपर्स लिए व अन्य, 2013 के मामले में जहां परिवादी नियत Limitationकी 2 वर्षों की कालावधि के परे लभग कब्जा ग्रहण करके तीन वर्षों पश्चात् परिवाद दायर किया और विलम्ब के दोषमार्जन हेतु कोई आवेदन पत्र भी नहीं प्रस्तुत किया था वहां जिला फोरम को परिवाद अनुज्ञात करने में सही नहीं माना गया और राज्य आयोग को जिला फोरम के आदेश को अपास्त करने तथा परिवाद को कालवर्जित होने के आधार पर खारिज करने में न्यायसंगत माना गया।

चूंकि परिवाद को दाखिल करने में पांच वर्षों के विलम्ब का दोषमार्जन करने के लिए पर्याप्त कारण प्रस्तुत करने में असमर्थ रहा इसलिए उसको Limitationद्वारा वर्जित होने की वजह से खारिज कर दिया गया।

मेजर जय प्रकाश (सेना मेडल) बनाम हरियाणा अर्बन डेवलपमेंट एथॉरिटी के मामले में चूंकि याची भूखंड के रद्द किये जाने के कारण चैक भुनाया था इसलिए वह अब एक उपभोक्ता नहीं रह गया था जिसके परिणामस्वरूप परिवाद खारिज का दिया जाना न्यायसंगत माना गया।

सिविल कोर्ट के आदेश उपभोक्ता फोरमों पर प्रभाव- उपभोक्ता फोरमों को मिति कोर्ट द्वारा उच्चारित/सुनाये गये आदेशों द्वारा आबद्ध किया जाता है।

रेल दुर्घटना में परिवादी के पिता की मृत्यु प्रतिकर का दावा-यह प्रतिकर हेतु कोई परिवाद उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अधीन दाखिल किया जाता है तो परिवाद को ग्रहण करते समय यह देखने की उपभोक्ता फोरमों से आज्ञापक तौर पर अपेक्षा की जाती है कि क्या वह वाद हेतुक की तारीख से दो वर्षों की एक कालावधि के अंदर दाखिल किया गया है या नहीं?

इंदौर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट बनाम प्रशान्त कुमार के मामले में पुनरीक्षण याचिका को दाखिल करने में 452 दिनों का अति विलम्ब मात्र इस आधार पर दोषमार्जित नहीं किया जा सकता है कि याची इस प्रभाव के अधीन था कि अपील अभी भी बिलम्ब है। अतएव पुनरीक्षण याचिका को कालवर्जित होने के कारण खारिज कर दिया।

जहां पुनरीक्षण याचिका को दाखिल करने में असाधारण 485 दिनों का विलम्ब हुआ और इस विलम्ब का पर्याप्त क एवं युक्तियुक्त कारण नहीं प्रदर्शित किया गया, वहां पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया गया क्योंकि वह कालवर्जित थी।

जिला फोरम के समक्ष दाखिल किया गया परिवाद Limitationद्वारा वर्जित था और विलम्ब के दोषमार्जन के लिए कोई भी आवेदन पत्र प्रत्यर्थियों की ओर से नहीं दाखिल किया गया तब जिला फोरम को ऐसे परिवाद को खारिज करने में न्यायसंगत माना गया।

चूंकि परिवाद धारा 24-क के अधीन यथा उपबंधित दो पक्षों की विहित कालावधि से परे जिला फोरम के समक्ष दाखिल किया गया इसलिए परिवाद को खारिज करने के आदेश की पुष्टि राज्य आयोग एवं राष्ट्रीय आयोग दोनों द्वारा कर दी गयी। अंततोगत्वा पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गयी।

Tags:    

Similar News