किसी भी अपराध में कोर्ट द्वारा आरोपी को जमानत पर छोड़ा जाता है। ऐसी जमानत आरोपी की ओर से अन्य व्यक्ति लेता है। जब आरोपी कोर्ट में हाज़िर नहीं होता है तब एक जमानतदार की लाइबिलिटी होती है कि आरोपी को कोर्ट में प्रस्तुत करे। आमतौर पर जमानत का अर्थ विस्तृत है परंतु आपराधिक विधि में जमानत से तात्पर्य है- 'किसी अपराध में किसी व्यक्ति को न्यायालय में पेश कराने की जिम्मेदारी लेना'
इससे सरल शब्दों में जमानत को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। अदालत में अभियुक्त को समय-समय पर पेश कराने एवं जब भी न्यायालय अभियुक्त को अदालत में प्रस्तुत होने के लिए आदेश करें तब उसके प्रस्तुत होने की गारंटी लेने वाले व्यक्ति को जमानतदार अर्थात प्रतिभू कहा जाता है।
आपराधिक विधि में किसी अपराध में किसी अभियुक्त की जमानत लेने पर कुछ दायित्व जमानतदार व्यक्ति पर भी अधिरोपित होते है।
जमानत पुलिस अधिकारियों द्वारा भी दी जाती है। जमानती अपराध जो होते हैं उनमें पुलिस अधिकारियों द्वारा भी जमानत दी जाती है परंतु अजमानतीय अपराध की दशा में न्यायालय अभियुक्त को जमानत देता है। अदालत द्वारा जमानत दिए जाते समय व्यक्तिगत मुचलका जो आरोपी स्वयं देता है या फिर जमानतदार की ओर से कोई बंधपत्र दिया जाता है।
जमानतदार
जमानतदार अर्थात ऐसा व्यक्ति जो अभियुक्त के अदालत में पेश होने की जिम्मेदारी ले रहा है। जब कोई व्यक्ति इस तरह का दायित्व लेता है तो अदालत उससे किसी एक निश्चित धनराशि का बंधपत्र न्यायालय मांगता है।
जमानतदार भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 486 के अंतर्गत यह घोषणा करता है की वह अभियुक्त को जब भी आवश्यक हो या अदालत द्वारा बुलाया जावे तब अदालत में पेश करेगा। ऐसी घोषणा के अंतर्गत जमानतदार का दायित्व होता है की वह अभियुक्त को लाकर अदालत में पेश करें।
अदालत द्वारा निश्चित की गयी एक धनराशि का बंधपत्र जमानतदार द्वारा प्रस्तुत कर दिया जाता है।
बंधपत्र के जप्त कर लिए जाने के परिणाम-
इस मामले में BNSS की धारा 491 सबसे महत्वपूर्ण धारा है, यह उल्लेख करती है कि जमानतदार के दायित्वों से क्या परिणाम निकल कर आते हैं।
धारा 491 के अंतर्गत यदि बंधपत्र को जप्त कर लिया जाता है तो ऐसे बंधपत्र में जितनी धनराशि का उल्लेख होता है इतनी धनराशि की वसूली के लिए न्यायालय को ऐसा अधिकार मिल जाता है जैसा अधिकार जुर्माना वसूल करने के लिए होता है।
समाधानप्रद रूप से यह साबित हो जाता है कि बंधपत्र जप्त हो चुका है तो ऐसी परिस्थिति में न्यायालय बंधपत्र की जो राशि है उसकी वसूली के एक नवीन वाद की रचना करती है।
यदि जमानतदार द्वारा जितनी धनराशि का बंधपत्र अपने जमानत पत्र में दिया था उसे शास्ति के रूप में जमा नहीं करता है तो ऐसी परिस्थिति में अदालत द्वारा 6 माह तक का कारावास जमानतदार को दिया जा सकता है।
अदालत किन्हीं विशेष कारणों से बंधपत्र की राशि को कम कर सकता है या फिर उसको आधा कर सकता है परंतु ऐसे कारणों का स्पष्ट वर्णन किया जाना होगा।
जमानतदार के मर जाने पर-
किसी प्रकरण में कोई व्यक्ति किसी अभियुक्त की जमानत लेता है और जमानतपत्र में एक निश्चित धनराशि का उल्लेख करता है जिसे बंधपत्र के रूप में न्यायालय को सौंपता है और जमानतदार की मृत्यु हो जाती है ऐसी स्थिति में बीएनएसएस की धारा 491 उपधारा (4) के अंतर्गत में जिस संपदा का उल्लेख किया गया है जैसे कोई रजिस्ट्री या कोई फिक्स डिपाजिट इत्यादि हो तो वह उन्मोचित हो जाती है और किसी भी संपदा पर कोई दायित्व नहीं रह जाता है।
जमानतदार के जीवित होते हुए ही केवल संपदा के ऊपर दायित्व रहता है यदि जमानतदार की मृत्यु हो जाती है तो ऐसी परिस्थिति में जमादार की संपदा पर दायित्व नहीं होगा। अभियुक्त को न्यायालय द्वारा पुनः नवीन जमानतदार अदालत के समक्ष प्रस्तुत किए जाने का आदेश किया जाता है यदि अभियुक्त नया जमानतदार नहीं पेश कर पाता है तो उसे गिरफ्तारी वारंट जारी कर कारावास भेज दिया जाता है।
मोहम्मद कुंजू तथा अन्य बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया है की जमानत बंधपत्र के संबंध में प्रतिभूओ का महत्वपूर्ण दायित्व है कि जब भी अपेक्षा की जाए न्यायालय में अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करें।
बंधपत्र का मूल तत्व अभियुक्त की उपस्थिति कराना है। बंधपत्र के आदेश में अन्य शर्तें भी होती है यदि जमानत आदेश (बैल ऑर्डर) में किसी शर्त में परिवर्तन किया जाता है तो प्रतिभू उसका लाभ नहीं ले सकता यदि प्रतिभू परिवर्तित शर्तों से सहमत नहीं होता है तो उसे संहिता की धारा 489 के अधीन अपने उन्मोचन के लिए आवेदन प्रस्तुत करना चाहिए।
जमानतदार और अभियुक्त के बीच कोई मित्रता या रिश्ता नाता होना आवश्यक नहीं है, केवल आवश्यक यह है कि जमानतदार अभियुक्त को अदालत में पेश करवाने की गारंटी ले रहा है और इसके बदले कोई बंधपत्र अदालत के समक्ष अपनी संपदा से जुड़ा हुआ रख रहा है। अब यदि वह अदालत में अभियुक्त को पेश नहीं कर पाता है तो अदालत उस बंधपत्र में उल्लेखित धनराशि को जुर्माने की तरह वसूल कर सकता है।
जमानतदार द्वारा अपनी उल्लेख की गयी धनराशि को अदालत में जमा कर दिया जाता है तो भार मुक्त हो जाता है तथा न्यायालय उस अपराध के लिए जमानतदार को दोषी नहीं ठहरा सकती तथा यह बिल्कुल नहीं होता है कि जिस अपराध में अभियुक्त को अभियोजित किया गया था उसका दंड जमानतदार को भोगना होगा। जमानतदार केवल उस धनराशि तक ही दायित्व रखता है जिसका उल्लेख उसने अपने बंधपत्र में किया है। जिस संपत्ति को बंधपत्र में उल्लेखित करता है उस संपत्ति को अपनी स्वतंत्रता से व्ययन कर पाने में असफल हो जाता है।
जमानत वापस लिया जाना-
कोई भी जमानतदार यदि किसी व्यक्ति की जमानत लेता है और वह जमानत पर छोड़ दिया जाता है परंतु बाद में उस व्यक्ति के लिए दी जमानत वापस लेना चाहता है या फिर उसे इस बात का विश्वास नहीं रहा उसके कहने पर या उसके लाने पर अभियुक्त व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित होगा।
ऐसी परिस्थिति में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 489 के अंतर्गत एक आवेदन संबंधित न्यायालय में जमानतदार द्वारा प्रस्तुत करना होगा तथा जमानत प्रभाव से मुक्त हो जाती है। किसी भी समय मजिस्ट्रेट से ऐसा आवेदन किया जा सकता है।
जब जमानत वापस ले ली जाती है तो अभियुक्त को कोई अन्य जमानतदार प्रस्तुत करना होता है। जमानतदार द्वारा बंधपत्र खारिज किए जाने हेतु आवेदन प्रस्तुत किए जाते ही मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अभियुक्त की गिरफ्तारी का वारंट जारी करें।
जमानत कौन ले सकता है-
कोई भी स्वास्थ्यचित्त और वयस्क व्यक्ति जमानत ले सकता है। न्यायालय जितनी धनराशि बंधपत्र में उल्लेख करती है। इतनी धनराशि की कोई संपदा जमानतदार को अदालत ने बतलाना होती है तथा यह सिद्ध करना होता है कि वह इतनी हैसियत रखता है कि जमानत में बंधपत्र में निश्चित की गई धनराशि यदि जप्त की जाए तो वह अदालत में डिपॉजिट कर सकता है।
इसके लिए जमानतदार को किसी संपत्ति का मालिक होना आवश्यक होता है। जब तक मामला अदालत में चलता है जब तक जमानत प्रभावशाली रहती है तब तक उस संपत्ति को स्वतंत्रता पूर्वक उसका मालिक व्ययन नहीं कर पाता है। जैसे यदि किसी भूखंड कि कोई रजिस्ट्री अदालत के समक्ष प्रस्तुत की जाती है तो जिस समय तक जमानत प्रभावशाली रहती है उस समय तक उस भूखंड को किसी अन्य व्यक्ति को नामांतरण नहीं किया जा सकता। जिस समय जमानत प्रभाव मुक्त हो जाती है केवल उसी समय भूखंड को बेचा जा सकेगा या उसका नामांतरण किया जा सकेगा।
अदालत साधारण तौर पर जमीन की पावती या बैंक का 50% फिक्स डिपाजिट तथा मकान की कोई रजिस्ट्री या भूखंड की कोई रजिस्ट्री इत्यादि को ही जमानत के तौर पर हैसियत मानता है तथा स्वीकार करता है।