संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 8 : संविदा अधिनियम के अंतर्गत शून्य करार (Void Agreements) क्या होते हैं और प्रतिफल के संबंध में करार कब शून्य होता है?

Update: 2020-10-21 12:19 GMT

जिस प्रकार हमने पूर्व के आलेखों में यह समझा है कि भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत धारा 10 सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा है। इस धारा के अंतर्गत जिन बातों का उल्लेख किया गया है उन बातों को अगली 20 धाराओं में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

धारा 10 के अनुसार किसी भी करार के संविदा होने के लिए उस में सक्षम पक्षकार, स्वतंत्र सहमति, विधिपूर्ण प्रतिफल और विधिपूर्ण उद्देश तथा करार विधि द्वारा सीधे शून्य घोषित नहीं किया गया हो यह सभी बातों का समावेश होना चाहिए तब ही कोई करार संविदा का रूप लेता है।

पूर्व के आलेखों में हमने स्वतंत्र सहमति तथा सक्षम पक्षकार कौन होते हैं इसके संबंध में चर्चा कर ली है अब अगले आलेखों में विधिपूर्ण प्रतिफल और विधिपूर्ण उद्देश क्या होता है तथा कौन से करार विधि द्वारा सीधे शून्य घोषित किए गए है इस बात पर चर्चा करेंगे। इस आलेख में हम विधिपूर्ण प्रतिफल के संबंध में चर्चा कर रहे।

किसी भी करार में विधिपूर्ण प्रतिफल का होना नितांत आवश्यक होता है। विधिपूर्ण प्रतिफल के साथ विधिपूर्ण उद्देश भी होना चाहिए। यदि किसी करार में विधिपूर्ण उद्देश्य नहीं होता है तथा विधिपूर्ण प्रतिफल का अभाव होता है तो उस करार को शून्य करार कहा जाता है अर्थात ऐसे करार का प्रारंभ से ही कोई अस्तित्व नहीं रहता है। यदि किसी करार के सक्षम पक्षकार नहीं होते हैं और किसी करार में स्वतंत्र सहमति नहीं होती है तो इस प्रकार के करार को व्यथित पक्षकार की इच्छा पर शून्यकरणीय न्यायालय द्वारा घोषित कर दिया जाता है परंतु यहां पर जो करार शून्य करार होते हैं वह किसी भी पक्षकार की इच्छा पर प्रवर्तनीय नहीं होते हैं क्योंकि यह करार तो प्रारंभ से ही शून्य करार होते हैं, इन करार का कोई अस्तित्व ही नहीं होता है।

विधिपूर्ण प्रतिफल ( Consideration)

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत धारा 24 और 25 किसी करार के इस कारण शून्य होने की घोषणा करती है कि उस करार में विधिपूर्ण प्रतिफल नहीं होता है।

अधिनियम की धारा 24 के अनुसार यदि प्रतिफल और का उद्देश्य भगताः विधि विरुद्ध है ऐसी स्थिति में करार शून्य होंगे अर्थात किसी करार का प्रतिफल ( Consideration)का कुछ भाग यदि विधि विरुद्ध है तो वह करार शून्य होगा।

यदि एक से अधिक उद्देश्यों के लिए किसी एक प्रतिफल का भाग या किसी एक उद्देश्य के लिए कई प्रतिफलों में से कोई एक या किसी एक का कोई भाग विधि विरुद्ध हो तो ऐसी स्थिति में किसी करार का कोई भाग विधि विरुद्ध होने पर शून्य करार होगा।

एक उदाहरण के माध्यम से इसे सरलता से समझा जा सकता है-

रवि श्याम की किसी फैक्ट्री में जहां लोहा बनाने का काम चलता है सुपरवाइजर का काम करता है तथा ऐसा काम करने के लिए श्याम ने उसे ₹10000 प्रति माह देने का वचन दिया परंतु श्याम की फैक्ट्री में चोरी के लोहे को गला का लोहा बनाया जा रहा था तो ऐसी परिस्थिति में यह प्रतिफल प्रतिफल वैध नहीं होगा तथा यदि श्याम रवि को रुपये देने से इंकार कर दे तो रवि श्याम से किसी प्रकार का अनुतोष नहीं पा सकता है।

नारायणमूर्ति बनाम रामलिंगम 1933 मद्रास 187 के प्रकरण में पक्षकारों द्वारा यह अभिवचन नहीं प्रस्तुत किया जाता है कि करार अवैध है वहां यदि न्यायालय यह पाता हैं कि संविदा अवैध है तो यह न्यायालय का कर्तव्य है कि उक्त संविदा को इंफोर्स न होने दें।

एक अन्य प्रकरण में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने यह बात स्पष्ट की है कि यदि इस बात की कोई अवधारणा नहीं है कि संविदा अवैध है दूसरी और यह उपधारणा है कि अन्य रूप में पक्षकार जो संविदा अवैध होने की धारणा करता है तो उसे न्यायालय के सम्मुख वैसा साबित करना पड़ेगा तथा न्यायालय संविदा की वैधता पर विचार करेगा।

यह विधि का सिद्धांत है कि जब दोनों पक्षकारों का दोष बराबर होता है तो विधि उनके मध्य हस्तक्षेप नहीं करती है। हानि जहां होती है वहीं रहने दी जाती है कोई भी एक पक्ष कारण कोई धन्य संपदा अथवा मुद्रा दूसरे पक्षकार को दी है तो ऐसी स्थिति में जो कोई मुद्रा या वस्तु पक्षकार द्वारा दी गई है और मुद्रा या वस्तु न्यायालय के जरिए वसूल नहीं किया जा सकता पर दोनों पक्षकार बराबर के दोषी नहीं है तो इस स्थिति में करार के अधीन वह हस्तांतरित मुद्रा या वस्तु को वापस ले सकता है।

इस प्रश्न से संबंधित व्यथा भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 65 में हल होती है। इस धारा के अनुसार उस व्यक्ति को जो करार कर रहा है करार के शून्य होने की जानकारी नहीं है जबकि करार प्रारंभिक रूप से ही शून्य था और बाद में यह पता चलता है कि करार शून्य हैं तो ऐसी स्थिति में करार के अंतर्गत लाभ प्राप्त करने वाला व्यक्ति उस लाभ को वापस करने के लिए बाध्य होगा।

काली कुमारी बनाम मोनोमोहिनी 1935 कोलकाता 748 के प्रकरण में कोलकाता उच्च न्यायालय ने कहा है कि जब कोई करार अवैध होता है अथवा अनैतिक होता है तो उक्त करार के अधीन दिए गए ऋण की वसूली नहीं की जा सकती है।

वादी और प्रतिवादी दोनों के मध्य विश्वास का संबंध है तो वादी अवैध संविदा के अंतर्गत दी गई रकम की वसूली करने के लिए अधिकृत होगा।

किसी वचन के लिए दिया गया प्रतिफल अविधिपूर्ण है तो उसका प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता परंतु यदि प्रतिज्ञा का प्रतिफल आंशिक रूप से विधिपूर्ण और आंशिक रूप से विधि विरुद्ध है ऐसी स्थिति में उक्त दोनों भागो को अलग अलग कर दिया जा सकता है तथा प्रतिज्ञा अथवा वचन का वह भाग जिसका विधिपूर्ण प्रतिफल है यह प्रवर्तनीय होगा परंतु जो भाग विधि विरुद्ध है वह शून्य होगा और उसे प्रवर्तनीय नहीं कराया जा सकता है।

इसे कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी महिला को खरीद लाए और उसके साथ जारकर्म करे और साथ में उसे अपना घर संभालने के लिए भी कहे और इसके बदले वह उस महिला को ₹5000 प्रतिमाह देने का वचन दे तो ऐसी परिस्थिति में जारकर्म के लिए तो कोई राशि वसूली नहीं जा सकती परंतु उस महिला द्वारा उस व्यक्ति का घर संभालने हेतु राशि मांगी जा सकती है तथा न्यायालय ऐसी राशि दिलवाएगा।

प्रतिफल के बिना करार शून्य है (धारा- 25)

प्रतिफल के बिना भी कोई करार शून्य होता है यदि किसी करार में कोई प्रतिफल नहीं है तो ऐसी स्थिति में करार शून्य हो जाता है। इसके संबंध में अधिनियम की धारा 25 में उल्लेख किया गया है परंतु इसके कुछ अपवाद दिए गए। कुछ अपवादों को छोड़कर प्रतिफल के बिना किए गए करार शून्य होते हैं।

जैसे ख को किसी प्रतिफल के बिना ₹1000 देने का क वचन देता है यह शून्य करार है।

कामता प्रसाद बनाम अपर जिला जज द्वितीय मैनपुरी एआईआर 1996 इलाहाबाद 201 के प्रकरण में यह कहा गया है कि यदि कोई करार इस प्रकार का है कि वह प्रतिफल से समर्थित नहीं है तो ऐसी स्थिति में वह करार शून्य होगा।

रामचंद्र बनाम कालू के प्रकरण में कहा गया है कि जहां प्रतिफल के बिना कोई करार किया जाता है तो वह संविदा का रूप ग्रहण ही नहीं कर सकता। इस ही बात को गोपाल कंपनी लिमिटेड बनाम फर्म हजारी लाल एंड कंपनी एआईआर 1963 मध्य प्रदेश 30 के प्रकरण में दोहराया गया है।

सर्वमान्य नियम यह है कि प्रतिफल रहित करार शून्य होता है किंतु कभी-कभी यह देखा जाता है कि प्रतिफल के बगैर करार विधिमान्य माने जाते हैं। संविदा हेतु प्रतिफल की आवश्यकता होती है परंतु जब कोई संविदा स्नेह के अंतर्गत की जाती है तो संविदा की वैधता के लिए प्रतिफल की अपेक्षा नहीं होती।

इसके कुछ अपवाद बताए गए हैं जो निम्न हैः

यदि कोई करार नैसर्गिक प्रेम और स्नेह से संबंधित है तो ऐसी स्थिति में बिना प्रतिफल के किया गया करार विधिमान्य होगा। वेंकट स्वामी बनाम रंगास्वामी 1903 के प्रकरण में कहा गया है कि भाइयों के मध्य आपस में कोई संविदा होती है तो यह बिना प्रतिफल के भी विधि मान्य होगी।

नैसर्गिक प्रेम एवं स्नेह के आधार पर बिना प्रतिफल के भी कोई संविदा विधिमान्य होती है। इस प्रकार यदि कोई करार लिखित है और दस्तावेजों के पंजीकरण के लिए तद समय प्रवर्त विधि के अंतर्गत पंजीकृत है और एक दूसरे के साथ निकट संबंध रखने वाले पक्षकारों के मध्य प्राकृतिक प्रेम व स्नेह के कारण किया गया है तो ऐसी स्थिति में बिना प्रतिफल के भी मान्य होगा।

विशेष बनाम शिवराम के प्रकरण में कहा गया है कि रक्त संबंध और विवाह संबंध द्वारा सृजित संबंध निकट के संबंध होते हैं तथा इन संबंधों में प्राकृतिक प्रेम और स्नेह होता है।

अपवाद-2

धारा 25 के अनुसार संविदा भूतपूर्व सेवा से संबंधित है जिसमें प्रतिफल दिए जाने का वचन निहित होता है। भारतीय विधि में भूतकालीन प्रतिफल को एक अच्छा प्रतिफल माना गया है यदि बिना प्रतिफल के किया गया करार उस समय विधिमान्य था तब प्रवर्तनीय होगा जबकि वह किसी ऐसे कार्य को संपूर्ण या आंशिक रूप में प्रतिफल के लिए प्रतिज्ञा की गई है जिसने वचनदाता के लिए कोई कार्य से स्वेच्छा से किया है या कोई ऐसा कार्य किया है जिसे करने के लिए वचनदाता ने कहा यह था। इस प्रकार इस खंड के अंतर्गत बिना प्रतिफल के भी करार विधि मान्य होगा किंतु ऐसे व्यक्ति के संदर्भ में कोई कार्य किया गया हो और उसके बदले वचन मिला हो।

यदि भूतकाल में कोई काम किया गया है और उसके बदले कोई प्रतिकर दिया जा रहा है तो यह भी बिना प्रतिफल की संविदा है।

जैसे कोई किसी के बच्चे का पालन करता है और ऐसे बच्चे को पालने के बदले बच्चे का पिता कुछ रुपए देने का वचन देता है तो यह संविदा प्रवर्तनीय है।

श्रीमान कमिश्नर ऑफ इनकम टैक्स बनाम कामेश्वर सिंह एआईआर 1953 पटना 231 के मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि प्रतिवादी ने वादी द्वारा अपनी इच्छा अर्पित की गई सेवाओं को स्वीकार कर लिया है और उसके बदले में कुछ धन संपदा देने का वचन दिया है तो संविदा विधिमान्य मानी जाएगी और ऐसी संविदा बिना किसी प्रतिफल के प्रवर्तनीय मानी जाएगी।

अपवाद-3

संविदा अधिनियम का अपवाद तीन उन मामलों से संबंधित है जिनमें काल रहित कर्ज के भुगतान के लिए कोई प्रतिज्ञा की गई है। संविदा अधिनियम की धारा 25 खंड- 3 के अनुसार जिस ऋण का भुगतान परिसीमा विधि से बाधित होने की दशा में लेनदार द्वारा प्राप्त कर पाना संभव नहीं है तो ऐसे ऋण के भुगतान के लिए बगैर प्रतिफल के भी संविदा की जा सकती है और यह संविदा विधिमान्य होगी।

भगवान बनाम मुंशी 1917 के प्रकरण में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उक्त प्रकार का करार लिखित रूप में होना चाहिए। अर्थात कर्ज़ का भुगतान करने का वचन लिखित में दिया जाना चाहिए।

धारा 25 के खंड 3 को लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि कर्ज इस प्रकार हो जो इस कारण से नहीं वसूला जा सकता है कि वह काल तिरोहित हो चुका है क्योंकि यह खंड उसी ऋण की बाबत लागू होगा जो काल तिरोहित हो चुका है बिना प्रतिफल के किया गया करार प्रवर्तनीय होगा।

यदि वह ऐसा वचन है जो लिखित है और उससे भारित किए जाने पर भारित किया जाने वाले व्यक्ति द्वारा इस निमित्त उसके द्वारा प्राधिकृत उसके अभिकर्ता द्वारा हस्ताक्षरित है और या उसके पूर्णतः या आंशिक भुगतान के लिए की गई है।

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